
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही
कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही
उठेगी मेरी तरफ प्यार की नज़र यूं ही
मैं जानता हूँ कि तू ग़ैर है मगर यूं ही
मैं जनता हूँ कि तू ग़ैर है मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
आज की यह कड़ी समर्पित है उस कहानी को जो ज़माने से अलहदा था और इश्क की पहले से खिंची गयी लकीरों से बिलकुल जुदा था. अधूरी मुहब्बत का यह वह मुकम्मल अफसाना था जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती.
इस कहानी के पात्र हैं साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम जो किसी परिचय के मोहताज नहीं. इस प्रेम कहानी की शुरुआत हुई सन 1939 में, जब साहिर और अमृता एक ही कॉलेज के विद्यार्थी थे. साहिर ने शेर व शायरी लिखना शुरू कर दिया था और कॉलेज में विख्यात हो गए थे. अमृता उनके शेरों की दीवानी थीं और शायद प्रेम भी करने लगी थीं. लेकिन जैसा कि अक्सर होता है अमृता के घर वालों को यह रिश्ता बहुत ही नागवार लगा क्योंकि एक तो साहिर की माली हालत अच्छी नहीं थी और दूसरा यह कि साहिर मुस्लिम थे और तीसरा कारण यह कि अमृता की शादी प्रीतम सिंह से ही चुकी थी. बाद में अमृता के पिता के कहने पर साहिर को कॉलेज से निकाल दिया गया.
ऐसा लगा कि बात यहीं खत्म हो गयी. मगर क़ुदरत को कुछ और ही मंज़ूर था. पांच साल बाद साहिर और अमृता लाहौर में फिर मिले. और दोनों की मुलाक़ात की वजह बनी शायरी. वही शायरी जिसके लिए उर्दू साहित्य में साहिर और पंजाबी साहित्य में अमृता का अपना अहम् मक़ाम है. खुद अमृता के लफ़्ज़ों में-
“पता नहीं यह उसके लफ़्ज़ों का जादू था या उसके ख़ामोश निगाहों का लेकिन मैं उससे बंध कर रह गयी थी.”
भारत विभाजन के बाद अमृता दिल्ली आ गईं और साहिर मुंबई में बस गए. ऐसा महसूस हुआ जैसे आधी नज़्म एक कोने में सिमट गयी और आधी नज़्म एक कोने में बैठ गयी. दोनों का मिलना जुलना अब लगभग बंद हो गया लेकिन मुहब्बत का एहसास कभी कम नहीं हुआ. अमृता की जिंदगी में उतार चढ़ाव आते रहे. प्रीतम सिंह के साथ उनकी शादी कुछ ही सालों में टूट गयी और वह अपने दोस्त इमरोज़ के साथ रहने लगीं. इमरोज़ चित्रकार थे और अमृता से बेपनाह मुहब्बत करते थे लेकिन अमृता के दिलो दिमाग़ पर साहिर का राज था जिसका इज़हार अमृता ने अपनी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में बेझिझक किया है:
“वह चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता, आधी पीने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता. जब वह जाता तो कमरे में सिगरेटों की महक बची रहती. मैं उन सिगरेट के बटों को संभाल कर रखती और अकेले में उन बटों को दोबारा सुलगाती. जब मैं उन्हें अपनी उँगलियों में पकडती तो मुझे लगता कि साहिर के हाथों को छू रही हूँ.”
साहिर ने भले अमृता से अपना इश्क दुनिया के सामने ज़ाहिर नहीं किया लेकिन अमृता के लिए वह दीवानेपन की हद तक दीवाने थे. उनकी दीवानगी उनके गीतों, उनकी ग़ज़लों, और नज्मों में साफ़ साफ़ महसूस की जा सकती है. जिस तरह अमृता सिगरेट के बटों को जमा करती थीं उसी तरह साहिर भी अमृता की पी हुई चाय की प्याली संभाल कर रखते थे. कहा तो यह भी जाता है कि साहिर ने बरसों तक वह प्याला नहीं धोया था जिसमें अमृता ने चाय पी थी. साहिर ने कभी लिखा था:
वह अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
वह अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर तोड़ना अच्छा
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
कमो-बेश उनकी और अमृता की कहानी भी इन्हीं दोनों पंक्तियों में सिमट कर रह गयी. मुहब्बत की इस अधूरी दास्तान के गवाह बने चाय के जूठे प्याले, आधी जली सिगरेट के टुकड़े, कुछ किस्से, कुछ यादें और ढेर सारे खुतूत.
आज साहिर और अमृता दोनों इस संसार में नहीं रहे लेकिन मुहब्बत के अफ़साने ख़त्म कहाँ होते हैं! जो मर कर भी जिंदा रह जाए वही मुहब्बत है, वही मुहब्बत है.