आधी रात के बाद : कर्नल की डायरी, पन्ना 6




यादों के इस सैलाब में डूबता-उभरता हुआ मैं आज के दिन तक ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के ख्यालों में अपने आप को अगर एक पल भी अलग नहीं कर पाया हूँ तो यह सब अकारण नहीं है। मेरा यह मानना कि जिंदगी का जिया गया हर वह पल जो खुद से ऊपर उठ कर पूरी ख़ुदाई के लिए जिया गया हो, आने वाली राहों की रौशनी बन जाता है। भला इस रौशनी से प्यार क्यों न हो? मेरा यह प्यार अब तक की अमानत है। इस अमानत में सबसे बहुमूल्य नाम है नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का।

इस नाम से जुड़ी हर याद मुझे आज भी हिला डालती है. लगातार 20-22 घंटे तक कठोर श्रम करने वाले वह कर्मयोगी (नेताजी) हमारी शक्ति का स्रोत थे.

दिनचर्या के मुताबिक दिन भर का सारा काम निपटाने के बाद मैं रात के 12 बजे नेताजी के कार्यालय पहुँचता था. उस वक़्त नेताजी को मैं दिन भर की गतिविधियों की रिपोर्ट देता था, फिर इन सारी रिपोर्टों पर नेताजी मुझसे पूछताछ करते, विचार-विमर्श होता और अंत में ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ के लिए कुछ सन्देश दिया करते. नेताजी के दिए गए सन्देश को मैं सेना की टुकड़ियों में उसी वक़्त भेजवा दिया करता था.

नेताजी अपनी सेना की हर कठिनाई को बड़े गौर से सुनते थे और उसे हर हाल में सुलझाते थे. उनके कार्यालय में फाइलों को देखने, उन पर हस्ताक्षर करवाने और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नयी रणनीति आदि तैयार करने में रात का एक बड़ा हिस्सा बीत जाता था. मुझे याद है मैं अक्सर 2 बजे रात के आस पास ही नेताजी से विदा लिया करता था कि हर सुबह 8 बजे तक वह फिर से तरोताज़ा होकर अपने कामों में लग जाएं.

नेताजी मुश्किल से 3-4 घंटे सोते थे. एक बार उनके आदेशपाल ने मुझे बातों-बातों में बताया था – 2 बजे रात को मेरे विदा होने के बाद भी नेताजी के कमरे में अक्सर डेढ़-दो घंटे तक रौशनी रहती है. स्पष्ट है कि 3-4 घंटे से ज्यादा आराम नहीं करते थे. मैं इस आदमी की फौलादी हिम्मत को देखकर दंग रह जाता था. आज भी उस लौह पुरुष की याद आती है तो सिर सम्मान में झुक जाता है. मैंने अपने जीवन में अपनी आज़ादी के लिए दीवानगी की हद तक ऐसा दिलेर इंसान कोई दूसरा नहीं देखा.

यादों का यह सिलसिला बहुत लम्बा है और नेताजी के साथ गुज़ारे पल एक पूरी ज़िंदगी जी लेने की तरह है.

रंगून! अगस्त 1944!! यानी हिंदुस्तान के उत्तरी हिस्से में सावन-भादो का महीना!!! रंगून की वादियों में सावन का यह महीना अपनी पूरी जवानी पर था. चप्पे-चप्पे में फैली हरियाली और लगातार होती हुई बारिश ने एक अजब समा बाँध रखा था.

याद है, वह एक खौफ़नाक बरसाती रात थी. दिल को कंपा देने वाली बिजलियों की गड़गड़ाहट और तेज़ धार से बरसते हुए बादल इस खौफ को और भी ज्यादा बढ़ा रहे थे. रात के ऐसे ही सन्नाटे में ठीक बारह बजे नेताजी ने अभी इसी वक़्त मुझे और कर्नल पितृ शरण रतूरी को अपने कार्यालय में याद किया है.

हुक्म मिलते ही मैं और कर्नल रतूरी नेताजी के कार्यालय की ओर चल पड़े. बाहर रात घनी अँधेरी थी. बिजली की गड़गड़ाहट फ़िज़ा में रह-रह कर दहशत पैदा कर रही थी. तेज़ हवाएं, खौफ़नाक सन्नाटा और मूसलाधार बारिश में दो-चार होते हुए हम दोनों जल्दी-जल्दी डेग भर रहे थे.

नेताजी के कार्यालय तक पहुँचते पहुँचते हमारी हालत अजब हो गयी थी, लेकिन हमने देखा इन गहरी रात में भी एक योगी की-सी मुद्रा में वह क्रान्ति-पुरुष अपने काम में तल्लीन था.

इस वक़्त रात के एक बज रहे थे. हमारे पहुँचते ही नेताजी की तन्द्रा टूटी, वह बेहद गंभीर थे. उनके चेहरे के भावों से लग रहा था वह भीतर ही भीतर किसी बात को लेकर बड़ी देर तक लड़ते रहे हैं और जैसे अब इस वक़्त एक मज़बूत फ़ैसले पर पहुँच गए हैं. हम दोनों के सलामी देते ही नेताजी उठ कर खड़े हो गए और बोले – “अच्छा हुआ तुम आ गए.”

फिर पल भर को एक सन्नाटा!

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