72 वर्ष की आयु में जय प्रकाश नारायण युवाओं के नेता थे




चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी

जेपी के वैचारिक नेतृत्व और देश भर में फैले 1974-77 आन्दोलन से उस समय भारतीय जनतंत्र के बुनियाद मज़बूत हुए जब इसकी सख्त ज़रूरत थी। इसके बाद जेपी आन्दोलन से प्रेरित शक्तियां और आरएसएस की शक्तियां दोनों (ख़ास तौर पर 80 के दशक से) समानांतर रूप से अलग अलग काम करती हुई एक दूसरे से दूर चली गईं और आज हम एक बार संघी शक्तियों के सामने परास्त महसूस कर रहे हैं। इस अर्थ में जे पी के लोगों के ऊपर विशेष दायित्व है कि सांप्रदायिक उभारों पर प्रभावी रोक थाम के लिए काम करते रहें।

जयप्रकाश नारायण भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। लोकप्रिय रूप से इन्हें जेपी या लोक नायक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था जिसके लिए उन्हें जेल भेजा गया था जहाँ से वह फरार होकर भूमिगत तौर पर अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते रहे।



1942 क्रांति के करो और मरो के दौर में हजारीबाग़ जेल की दीवार को फांद कर जे पी बाहर आ गए और भूमिगत हो गए थे। उस समय जब कांग्रेस के सभी नेतागण जेल में थे तब जेपी ने युवकों का आह्वान किया था और भूमिगत रह कर स्वतंत्रता संग्राम के इस निर्णायक दौर में जेपी ने युवकों को अपने साथ में जोडकर आज़ादी के संघर्ष को नेतृत्व दिया था।

1944 में गांधी मैदान में उनका नागरिक अभिनंदन करने के लिए युवा समुदाय उमड़ आया था तब रामधारी सिंह दिनकर ने उनके अभिनन्दन में कविता पाठ किया था। यही कविता 1974 में 5 जून को गांधी मैदान की सभा में दोबारा फणीश्वर नाथ रेणु ने लाखों लोगों को पढ़कर सुनाया था। विश्व में ऐसे कम ही नेता हुए हैं जिन्होंने इतिहास के इन दो दौरों में युवाओं को नेतृत्व दिया था। 1974 में जेपी देश के युवा हृदय सम्राट बने।

जे पी बिहार में पैदा हुए। वह एक शानदार छात्र रहे और अपने उच्च अध्ययन के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका गए। विदेश में रह कर उन्हें अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में जो कठिनाई हुई इससे उन्हें मजदूर वर्ग की कठिनाइयों का एहसास हुआ। कार्ल मार्क्स का ‘दास कैपिटल’ पढने के बाद, उन्हें यह आभास हुआ कि मार्क्सवाद से जनता की पीड़ा को कम किया जा सकता है और इस तरह वह कट्टर मार्क्सवादी बन गए। भारत लौटने पर वह जवाहरलाल नेहरू के निमंत्रण पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। उन्होंने भारत की आजादी के संघर्ष में उत्साहपूर्वक भाग लिया और 1947 में देश की आजादी के बाद भारतीय राजनीति में उनका एक प्रमुख स्थान बना। 1960 के दशक के दौरान लोकप्रियता की नई ऊंचाइयों को प्राप्त किया। 1970 के दशक में उन्होंने अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद बिहार आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसे बाद में उनके नाम से ही जेपी आन्दोलन के तौर पर जाना जाने लगा। 1999 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

जय प्रकाश नारायण ने दो बार युवाओं का नेतृत्व किया। एक बार तब जब वह 1942 में भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे और दूसरी बार तब जब वह केंद्र की इंदिरा सरकार की अराजकता और डिक्टेटरशिप के खिलाफ हो रहे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। भारत में अगर गांधी और नेहरु के बाद कोई युवाओं के मन में था तो वह जय प्रकाश नारायण ही थे।

जे पी ने कभी भी हिंसक आन्दोलन का समर्थन नहीं किया। उन्होंने बार बार अपने वक्तव्य में कहा कि “हिंसा से क्रांति शीघ्र होती है यह मात्र मिथ्या है। वह कहते थे कि जिन जिन देशों में हिंसा से क्रान्ति हुई उन देशों में क्रांति के बाद हिंसा को इंस्ट्रूमेंट करने वाली शक्तियां ही क्रांति और जनता के माथे पर बैठ गयी। उदाहरण के लिए, विएतनाम में हिंसा का सहारा लेकर लोग जीते लेकिन इसके लिबरेशन के बाद रूसी सेना का वहां नियंत्रण हो गया।

नक्सल आन्दोलन पर उनका कहना था कि हम इनका नैतिक रूप से विरोध नहीं कर सकते हैं। जिन वर्गों का सदियों से हिंसक दमन और शोषण हुआ है वो यदि बगावत करते हैं तो उनकी हिंसा का नैतिक विरोध नहीं किया जा सकता है। परंतु क्रांति के लिये हिंसा से व्यवहारिक मदद मिलेगी यह धारणा अब भ्रम मूलक रह गयी है। इसलिए जेपी नक्सली हिंसा का नैतिक विरोध नहीं करते थे, परंतु व्यवहारिक और राजनीतिक स्तर पर नक्सली हिंसा की सफलता के बारे में पर्याप्त संदेह करते थे।

राष्ट्र निर्माण के मुद्दे पर जय प्रकाश नारायण का मानना था कि राष्ट्र निर्माण सतत प्रक्रिया है और राष्ट्र निर्माण के लिए कश्मीर और नागा की समस्या का समाधान आवश्यक है। उनहोंने कहा था कि “साधु संतो के सद प्रयास से भारत में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पूरी हो गयी यह मानना भ्रममूलक है। भारत में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया सतत है उसमें कश्मीर और नागा समस्या का हल आवश्यक है।”

जय प्रकाश कश्मीर की जनता को खुद मुख्तारी (self determination) का अधिकार देने के पक्षधर थे यानि वह इस बात के समर्थक थे कि वहां की जनता खुद निर्णय करे कि वह कश्मीर में किसके साथ रहेंगे। अलबत्ता, 1967 में शेख़ अब्दुल्लाह के अधिवेशन में उन्होंने कश्मीरियों को ही यह सुझाव दिया था कि अपनी शर्तों के साथ भारत में ही एक स्वायत्त राज्य के रूप में रहना स्वीकार कर लें। भारत के साथ रहना ही बेहतर है। क्योंकि उस समय विश्व दो धु्रवों में बंट गया था और ऐसे में छोटे-छोटे देशों का अस्तित्व संभव नहीं था। समाजिक विशेषज्ञों का मानना है कि मोरारजी शासन काल में कश्मीर में पहली और अंतिम बार ऐसा चुनाव हुआ जब केंद्र का कोई पपेट सेना और सुरक्षा बलों के जोर से वहां स्थापित नहीं किया गया। जे पी नागालैंड पीस मिशन के भी सदस्य थे।

जेपी ने अपने जीवन काल में जिन मूल्यों को राष्ट्रीय पैमाने पर फिर से स्थापित करने की पहल की थी वे मूल्य जे पी के मरने के बाद भी जे पी के ही प्रयास थे कि भारत में मानवाधिकारों, महिला अधिकारों और युवाओं का क्लास मूवमेंट किताबों और प्रस्तावों से बाहर आकर आमजन आन्दोलन के रूप में शान्तिपूर्ण ढंग से चला।

जे पी आन्दोलन जो बिहार से शुरू हो कर पूरे भारत में फैला उसका जो असर रहा वह हम सब जानते हैं। जे पी आन्दोलन की अनोखी बात यह हुई कि जे पी जिसके खिलाफ संघर्ष कर रहे थे वह इंदिरा गांधी भी खुद की लड़ाई को फासीवाद के खिलाफ की लड़ाई कह रही थीं और जेपी भी अपने संघर्ष को फ़ासीवाद के खिलाफ संघर्ष कह रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जे पी आन्दोलन में जनसंघ ने भरपूर सहयोग दिया और उस समय जे पी जनसंघ के करीब आए लेकिन वह संघ की विचारधारा के खिलाफ रहे। जे पी ने इंदिरा को कहा था कि अगर जनसंघ फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूँ लेकिन इसको हमेशा अलग तरह से कोट (quote) किया गया। जे पी ने कहा था कि अगर संघ के लोग बिना हाफ पैन्ट पहने हुए इस आन्दोलन में हैं तो मैं उनके बारे में नहीं जानता। आश्चर्य तो यह है कि बिपिन चन्द्र जैसे इतिहासकार अपनी किताब “इन द नाम ऑफ़ डेमोक्रेसी” में इसी को विश्लेषित करने का आधार पाते हैं कि जे पी मूवमेंट से फासीवादी शक्ति को बढ़ावा मिला। जबकि जे पी ने यह भी कई बार कहा था कि संघ को अपने दरवाज़े सभी धर्म के लोगों के लिए खोलना चाहिए और इसे मुख्य धारा में आना चाहिए।

जेपी के वैचारिक नेतृत्व और देश भर में फैले 1974-77 आन्दोलन से उस समय भारतीय जनतंत्र के बुनियाद मज़बूत हुए जब इसकी सख्त ज़रूरत थी। इसके बाद जेपी आन्दोलन से प्रेरित शक्तियां और आरएसएस की शक्तियां दोनों (ख़ास तौर पर 80 के दशक से) समानांतर रूप से अलग अलग काम करती हुई एक दूसरे से दूर चली गईं और आज हम एक बार संघी शक्तियों के सामने परास्त महसूस कर रहे हैं। इस अर्थ में जे पी के लोगों के ऊपर विशेष दायित्व है कि सांप्रदायिक उभारों पर प्रभावी रोक थाम के लिए काम करते रहें।

(चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी जाने माने लेखकपत्रकार और सामाजिक और राजनीतिक कर्मी हैं। आप जे पी के सहयोगी रहे हैं।)

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