महान संस्थाएं दरक रही हैं, भटक रही हैं




सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्ती चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकूर और कुरियन जोसेफ (फ़ोटो साभार: अरविंद यादव / एचटी)

-मनीष शांडिल्य

शुक्रवार को दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने परंपराएं तोड़ते हुए आजाद भारत के इतिहास में पहली बार प्रेस-कांफ्रेस कर यह बताया कि उनके मुताबिक देश का लोकतंत्र खतरे में क्यूं है. उसी दिन दिल्ली के ही एक दूसरे हिस्से में सेना प्रमुख बिपिन रावत ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से इतर कुछ ऐसा कहा जिससे विवाद पैदा हो गया.

जागरुक नागरिकों में शायद ही कोई ऐसा होगा जो यह नहीं जानता हो कि चार जजों ने क्या कहा. तो उनकी बातों को न दोहराते हुए पहले आपको यह बताएं कि सेना प्रमुख ने क्या कहा. शुक्रवार को आर्मी डे मौके पर उन्होंने जम्मू-कश्मीर में राज्य के स्कूली शिक्षकों द्वारा छात्रों को दो नक्शा, एक भारत और दूसरा राज्य का, दिखाने और ऐसे दूसरे उदाहरण देते हुए राज्य की शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा की जरुरत बताई. उन्होंने कहा कि वहां का पढ़ाने का तरीका ऐसा है जिससे छात्र कट्टरपंथ के रास्ते पर चले जाते हैं. इस बयान पर वहां की सरकार ने इन आरापों को गलत बताते हुए रावत के बयान पर आपत्ति जताई और कहा कि सेना प्रमुख उस काम से भटक रहे हैं जो संविधान ने उन्हें सौंपा है.



देश की दो सबसे अहम संस्थाओं के प्रमुख लोगों ने एक ही दिन अलग-अलग तरह की बातें कहीं लेकिन इससे इन संस्थाओं के जो हालात सामने आए वो यह कि ये संस्थाएं या तो दरक रही हैं या भटक रही हैं. और यही देश के लिए, देश के लोकतंत्र के लिए चिंता कि बात है क्यूंकि संस्थाएं ही किसी देश को महान बनाती हैं. हुक्मरान एक कालखंड के राजनीतिक-सामाजिक हालातों के कारण आते-जाते रहते हैं लेकिन संस्थाएं जिम्मेदारी और गंभीरता से अपना काम करती रहती हैं जिससे एक ऐसा लोकतंत्र बनता और मजबूत होता है. ऐसे लोकतंत्र में नागरिक अपने सभी अधिकारों का उपभोग करते हैं. ऐसी व्यवस्था में नागरिकों के जवाबदेही और कर्तव्य की निगरानी करने वाले संस्थान भी होते हैं.

देश ने पहले भी संस्थाओं के साथ छेड़-छाड़ देखी है और ऐसा फिर एक बार हो रहा है. भारत में ज्यादातर स्वायत्त संस्थाओं की नींव पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रखी थीं, इन संस्थाओं की आजादी पर पहला बड़ा हमला नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुआ. इनमें आपातकाल का दौर भी शामिल है. और आज कई अहम संस्थाएं सबसे दयनीय हालत में दिख रही हैं.

बीते चार वर्षों से विचारधारा, राजनीतिक और निजी पसंद व जरूरत के हिसाब से देश के शीर्ष संस्थानों में ‘अपने लोगों’ को बिठाकर इन संस्थानों को प्रभावित किया जा रहा है. माना जा रहा है कि शुक्रवार की अभूतपूर्व घटना को उसी का प्रतिवाद है. और ऐसा कहने की ठोस वजहें भी हैं. मसलन ऊपर जिन संस्थाओं का जिक्र है उनको ही लें. जहां एक ओर केंद्र सरकार ने कई आरोपों के बावजूद जस्टिस दीपक मिश्रा को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया. वहीं सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को जब नया थलसेनाध्यक्ष चुना था तब उसने इसके लिए सीनियरिटी के आधार पर चीफ बनाने की प्रथा को 1983 के बाद पहली बार नजरअंदाज किया गया था.

साथ ही देश की दूसरी कई ऐसी बड़ी संस्थाओं की साख को भी हाल के दिनों में बट्टा लगा है. अभी कुछ महीनों पहले गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीख तय करने में हुई देरी को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोती की नीयत पर सवाल उठे, पूरा मामला जिस तरह चला उससे मुख्य चुनाव आयुक्त बेदाग बाहर नहीं निकल सके. चुनाव के तारीख को लेकर जो सवालिया निशान लगना शुरु हुआ था वह मतदान के अंतिम चरण तक बना रहा. आयोग ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को एक इंटरव्यू के सिलसिले में नोटिस थमाया लेकिन प्रधनमंत्री मोदी द्वारा आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के आरापों पर कोई कार्रवाई नहीं की. इससे पहले ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी के आरोपों के मामले में चुनाव आयोग संदेहों को पूरी तरह दूर नहीं कर सका है. चुनाव आयोग से भरोसा उठने का मतलब होगा पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भरोसा उठना. जो कि बहुत खतरनाक बात है.

एक और स्वायत्त संस्था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने नोटबंदी के दौरान जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ठीक से नहीं निभाया. जानकारों का मानना है कि जनता को ऐसे हालात का सामना इसलिए करना पड़ा क्यूंकि सरकार ने इतना बड़ा फैसला बिना आरबीआई को पूर्ण विश्वास में लिए मनमाने ढंग से किया. ऐसे में इस ‘आर्थिक सूनामी’ से निपटने के लिए रिजर्व बैंक जैसी स्वतंत्र संस्था की कोई मुकम्मल तैयारी नहीं दिखी.

वैसे तो मानवाधिकार आयोग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से लेकर केंद्रीय विश्वविद्यालय तक दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जिनकी चर्चा इस सिलसिले में की जा सकती है.

सरकारों के मजबूत होने से लोकतंत्र मजबूत नहीं होता, सरकार पर नियंत्रण रखने वाली संस्थाओं की कमजोरी से लोकतंत्र जरूर कमजोर होता है. सबसे बड़े लोकतंत्र को अगर और बेहतर लोकतंत्र बनना है तो इसे अपने सभी संस्थानों की साख बचानी ही होगी.



शुक्रवार की अभूतपूर्व घटना के बाद जो चिंताजनक स्थिति सामने आई उससे एक अच्छी बात भी निकल कर सामने आई है. वो यह कि जजों की अंतरात्मा की आवाज ये बताती है कि विविधता के कारण इस देश की डेमॉक्रेसी मजबूत है और इसे कोई इतनी आसानी से अपने रंग में नहीं रंग सकता.

आगे भी संस्थानों की नैतिक सत्ता बनी रहे इसके लिए जनता को चैकन्ना रहना होगा और मौका मिलने पर उचित हस्तक्षेप करना होगा.

(मनीष शांडिल्य युवा पत्रकार हैं.)

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