
कश्मीर को तीन टुकड़ों में बांटने और कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा छिनने के बाद पूरे कश्मीर को कई महीनों तक लॉक डाउन (याद रहे कोरोना वाला लॉक डाउन नहीं, वहां बिना कोरोना कश्मीरियों ने 100 से अधिक दिन तक लॉक डाउन का मज़ा लिया इसके बाद पूरे भारत से कोरोना से लिया) में रखने के बाद अब केंद्र की हिंदूवादी सरकार का नया और असली खेल शुरू होने जा रहा है.
समाचार पत्र द ट्रिब्यून की ख़बर के अनुसार, केंद्र सरकार ने 25 हजार से अधिक गैर कश्मीरियों को कश्मीर का अधिवास प्रमाण-पत्र (Domicile Certificate) सौंपा है. ऐसा करने के बाद यह कश्मीरियों की हकमारी आसानी से कर सकते हैं.
खबर के अनुसार, बिहार के रहने वाले जम्मू कश्मीर कैडर के आईएस अफ़सर नवीन कुमार चौधरी समेत 25 हजार लोगों को अधिवास प्रमाण-पत्र (Domicile Certificate) सौंपा गया है. इस प्रमाण पत्र के आधार पर मुस्लिम बहुल कश्मीर मे जो अब केंद्र शासित प्रदेश है में मूल कश्मीरियों जिनमें सभी धर्म के लोग हैं की हकमारी शुरू होगी. अब इस प्रमाण पत्र के मिलने के बाद यह सब यहाँ नौकरी पाने से लेकर ज़मीन ख़रीदने तक का काम कर सकते हैं.
इस प्रमाण पत्र को प्राप्त करने के बाद नवीन कुमार चौधरी कश्मीर के पहले गैर कश्मीरी नागरिक बन गए हैं.
सरकारी आंकड़ो के अनुसार इस प्रमाण पत्र के लिए केंद्र सरकार को अब तक 33,157 आवेदन जम्मू कश्मीर से मिले हैं जिनमें 25 हजार लोगों को यह प्रमाण पत्र निर्गत किया जा चुका है.
श्रीनगर एक मात्र ज़िला है जहाँ 65 आवेदन मिले हैं लेकिन एक भी अब तक निर्गत नहीं हुए हैं. कश्मीर में सबसे अधिक अधिवास प्रमाण-पत्र (Domicile Certificate) पुलवामा में निर्गत किए गए हैं. इस ज़िला में अब तक 153 लोगों को यह दिया गया है. इसी तरह अनंतनाग में 106, कुलगाम में 90, बारामुला में 39, शोपियन में 20, बांदीपुरा और कुपवाड़ा में 10, बुडगाम में 9, गंदेरबल में 1 निर्गत किए गए हैं.
जम्मू के डोडा में 8,500, राजौरी में 6,214, पूँछ में 6,123 और जम्मू में 2,820 प्रमाण पत्र दिए गए हैं.
केंद्र सरकार इस मामले में इतना जल्दी में है कि 15 दिनों के अंदर प्रमाण पत्र न निर्गत करने पर इसने तहसीलदार पर 50 हजार रुपए का जुरमाना लगाने की घोषणा की है.
ज्ञात रहे कि भारत में पहाड़ों और जंगलों के संरक्षण के लिए संविधान में कुछ धाराएं हैं जिनके अंतर्गत उस राज्य से बाहर का कोई भारतीय ज़मीन नहीं खरीद सकता. यह असम, उत्तराखंड, हिमाचल और कई राज्यों में अब भी मौजूद है. इसके पीछे एक ही मंशा है कि जंगल और जमीन पर वहां के मूल निवासी का ही अधिकार हो और जनसंख्या को नियंत्रण में रखा जा सके. पहाड़ पर बढ़ती जनसंख्या और जंगल के कटने के कारण हमने उत्तराखंड और कश्मीर की तबाही पहले ही देखी है.