
-मनीष शांडिल्य
बिहार में 21 जनवरी को बनी मानव श्रृंखला ठीक एक सप्ताह बाद तब फिर चर्चा में आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को बिहार सरकार द्वारा राज्य में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ हुई इस प्रयास की सराहना की. दरअसल बीते साल की तरह ही इस बार भी बिहार के लोगों ने सरकार की पहल पर जनवरी के महीने में मानव श्रृंखला का निर्माण किया. अंतर ये रहा कि बीते साल यह शराबबंदी पर जागरुकता फैलाने के लिए था तो इस बार ज्यादा जोर दहेज प्रथा और बाल-विवाह जैसी कुरुतियों पर रहा.
बिहार सरकार के दावों के मुताबिक इस बार की मानव श्रृंखला करीब तेरह हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी थी. प्रधानमंत्री ने इस पहल की तारीफ जरुर की लेकिन सूबे में इस बार की मानव श्रृंखला पर प्रतिक्रिया बीते साल से अलग रही. बीते साल सूबे की सभी पार्टियांे ने इस आयोजन में हिस्सा लिया था तो जाहिर है राजनीतिक स्तर पर कोई विवाद नहीं हुआ. लेकिन वर्तमान राजनीतिक माहौल में इस साल प्रमुख विपक्षी दल न केवल इससे अलग रहे बल्कि उन्होंने इसके औचित्य और इससे जुड़े दावों पर सवाल भी खड़े किए. दूसरी ओर मीडिया रिपोर्ट्स और सोशल मीडिया कमेंट्स से भी यह बात निकल कर आई कि 2018 की श्रृंखला में 2017 जैसा दम नहीं था. लेकिन इस आलोचना और दावों से इतर इतना तो जरुर है कि ऐसे आयोजनों से इन कुरुतियों के खिलाफ एक माहौल बनता है.
लेकिन सिर्फ जागरुकता ही काफी नहीं है. इसे शराबबंदी से जुड़े सरकार के ही आंकड़ांे के आईने में देखा जा सकता है. आंकड़े बताते हैं कि शराबबंदी पर मानव श्रृंखला बनाने और दूसरे जागरुकता अभियानों का असर नहीं हो रहा है. उत्पाद विभाग के आंकड़ों के मुताबिक बीते एक साल में शराबबंदी से जुड़े अपराध बढ़े हैं. जैसे कि वित्तीय वर्ष 2016-17 में उत्पाद विभाग द्वारा करीब 98 हजार छापेमारी की गईं थी तो वहीं 2017-18 के 15 जनवरी तक ही छापेमारियों की संख्या बढ़कर एक लाख पार कर चुकी है. इसी तरह शराब जब्ती और गिरफ्तार किए गए लोगों का आंकड़ा भी तुलनात्मक रुप से बीते एक साल में बढ़ा है.
कड़े शराबबंदी कानून के बाद भी शराबबंदी से जुड़े अपराध अगर कम नहीं हो रहे हैं तो इसके कई सांस्कृतिक, प्रशासनिक और भौगोलिक कारण जिन्हें बस जागरुकता से दूर नहीं किया जा सकता. फिलहाल शराबबंदी को छोड़ उन दो मुद्दों पर आते हैं जिस पर जागरुकता फैलाने के लिए इस साल मानव श्रृंखला बनी और जिसकी तारीफ प्रधानमंत्री तक ने की.
दहेज प्रथा और बाल-विवाह रोकने के लए कड़े कानून पहले से मौजूद हैं. इसके बावजूद अपराध बन चुकीं यह कुरुतियां समाज में बड़े पैमाने पर मौजूद हैं. है. ऐसे में जानकारों का यह मानना है कि जब तक लड़कियों को पूरी तरह सशक्त नहीं किया जाएगा, उन्हें शैक्षणिक-आर्थिक रुप से लड़कों के बराबर खड़ा नहीं कर दिया जाएगा, तब तक इन कुरुतियांे को महज कानून और जागरुकता से मिटाना बहुत असंभव है. और सशक्तिकरण के लिए जरुरी है कि सरकार आगे बढ़ कर लड़कियों के सहज-सुलभ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और रोजगार के लिए पर्याप्त मौके पैदा करे.
ऐसा नहीं है कि बिहार सरकार ने बीते एक दशक में इस दिशा में कुछ नहीं किया है. महिलाओं को पंचायती राज और शिक्षक बहाली में 50 फीसदी आरक्षण, सरकारी नौकरियों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण, लड़कियों की काॅलेज शिक्षा को मुफ्त करना, स्कूली बच्चियों के लिए साइकिल योजना आदि जैसे कई पहल सरकार ने की हैं. लेकिन ये बड़े फैसले जरुर थे लेकिन इस दिशा में पहल करना राजनीतिक और प्रशासनिक रुप से अपेक्षाकृत तौर पर आसान भी था. अब जरुरत शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में भौतिक परिणाम देने वाले नीतियों को लागू करने की है.
मसलन लड़कियों को साइकिल तो मिल गई, उनके लिए उच्च शिक्षा निःश्ुल्क को गई लेकिन स्कूल के बाद पढ़ाई जारी रखने के लिए उनके पास विकल्प बहुत सीमित हो जाते हैं. इन आंकड़ों के आइन में यह देखा जा सकता है. बिहार बोर्ड की परीक्षा में साल 2017 में मैट्रिक में करीब सत्रह लाख स्टुडेंट शामिल हुए तो इंटर में महज करीब 12 लाख. तुलनात्मक रुप से देखें तो छात्राओं के मामले में तो यह कमी और ज्यादा है. इसी साल मैट्रिक में करीब 8.5 लाख छात्राएं शामिल हुई थीं लेकिन इंटर में साढ़े पांच लाख छात्राएं ही शामिल हुईं. दरअसल मैट्रिक से इंटर के बीच स्टुडेंट्स का करीब एक तिहाई घट जाना सूबे में शैक्षणिक सुविधाओं की उपलब्धता से सीधे जुड़ा है. मैट्रिक के मुकाबले इंटर स्तरीय काॅलेज-स्कूल बहुत कम है और जो हैं भी उनमें शिक्षकों और बाकी सुविधाओं का घोर अभाव है. मैट्रिक से इंटर के बीच लड़कियों की संख्या इस कारण भी ज्यादा कम हो जाती है क्यूंकि जो संस्थान उपलब्ध भी हैं वे गांवों से आम तौर पर दूर होते हैं.
दूसरी ओर से सरकार ने नौकरी में एक तिहाई आरचण तो दे दिया लेकिन सरकारी कितना रोजगार पैदा कर रही है यह सबके सामने है. एक ओर बीपीएससी और स्टेट एसएससी जैसी संस्थाएं एक-एक बहाली प्रक्रिया में सालों-साल का समय लगा रही हैं तो दूसरी ओर गिनती के सरकारी नौकरियां सामने आ रही हैं.
समाज सुधार और विकास की रफ्तार और दिशा उसके मजबूत होने से तय होती है. बाल विवाह और दहेज का सीधा सम्बन्ध शिक्षा से है. शिक्षा जारी रहने की गारंटी होगी तो बाल विवाह नहीं होगा. ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक तक सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करें. ड्रॉप आउट रोके .पंचायत स्तर पर महाविद्यालय और प्रखंड स्तर पर महिला महाविद्यालय खोले. हर हाथ के लिए रोजगार के मौके पैदा करे.
हां सरकार को महिला सशक्तिकरण के इन उपायों के साथ-साथ एक और जागरुकता अभियान चलाने की है. वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था को तोड़ने और लड़कियों को पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार दिलाने के लिए जागरुकता अभियान चलाए जिसके लिए कि कानून मौजूद है. लड़कियां सम्पत्ति की मालकिन बनेगी तो दहेज आधारित विवाह का भौतिक आधार कमजोर होगा.
(मनीष शांडिल्य युवा पत्रकार हैं.)