सन 1943 का वह दिन




आशा है कि कर्नल की डायरी का पहला पन्ना अच्छा लगा होगा। कर्नल की डायरी का दूसरा पन्ना आज प्रस्तुत है।

सन 1943 का एक ख़ुशकिस्मत और ख़ुशगवार दिन था, जब सिंगापुर में पहली बार नेताजी को रूबरू देखने और सुनने का मौक़ा मिला था. तब मैं ‘ब्रिटिश इंडियन फ़ौज’ में सेकंड लेफ्टिनेंट था. ‘इंडियन मिलिट्री अकादमी’ से ऑल इंडिया एंट्रेंस एग्जामिनेशन पास करने के बाद 1940 में मुझे इस पद पर बहाली मिली थी और तब मैं फ़ौज की एक टुकड़ी के साथ मलाया भेज दिया गया था. यह वह समय था जब हिटलर की फ़ौज पूरे यूरोप को रौंदने के लिए बेताब हो उठी थी. मलाया के मोर्चे पर पर मेरी तैनाती फौजी ज़िन्दगी की एक नयी शुरुआत थी. फिर 43 के शुरूआती दिनों में मुझे सिंगापुर बुला लिया गया. यहीं हुई थी पहली मुलाक़ात नेता जी से. वह ‘कैथे भवन’ में आयोजित एक आम सभा को संबोषित कर रहे थे- “यह हमलोगों की खुशकिस्मती है कि हम ऐसे वक़्त पर पैदा हुए जब अपने मुल्क की खिदमत कर सकते हैं. आज हमारा मुल्क गुलाम है. इस गुलामी की ज़ंजीर को तोडना हमारा पहला कर्तव्य है. देश के अंदर तो लोग आज़ादी के लिए लड़ते हैं अवश्य लेकिन गोरी हुकूमत उन पर गोली चलाती है और उनको दबा देती है. हमलोग जो हिंदुस्तान के बाहर हैं, हमारा यह फर्ज है कि हम सभी एक जगह जमा हो कर, एक मज़बूत फ़ौज बनाकर हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए आगे बढ़ें.

नेताजी की आवाज़ का जादू इतना प्रभावशाली था कि सारा का सारा माहौल जैसे सिर्फ और सिर्फ कान बना गया था. एक अजीब सा सम्मोहन तारी हो गया था. रगों के खून उबालें लेने लगा था और हम उन्हें मन्त्र-मुग्ध सा सुन रहे थे: “हिंदुस्तान के अंदर आज जो गरीबी व्याप्त है उसका मूल कारण अंग्रेजी साम्राज्य की शोषण नीति है. इस गरीबी को दूर करने का ज़िम्मा सारे हिन्दुस्तानियों को है. यहाँ इतनी गरीबी है कि किसान अपने एक जोड़ा बैल को ठीक से खिला नहीं पाता है जबकि सारे अन्न का जन्मदाता वही है. एक किसान के लिए इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या हो सकती है? इसलिए जबतक हम इकट्ठे न हो जाएंगे, अंग्रेजी हुकूमत ‘फूट डालो, शासन करो’ की नीति अपनाकर हिंदुस्तान में जमा रहेगा. ‘कैथे भवन’ में गूंजता हुआ स्वर शब्द-शब्द मौजूद श्रोताओं को आंदोलित कर रहा था और यह सिंहनाद सबसे पूछ रहा था ‘खून खून को पुकारता है यानी पहाड़ी के उस पार, वादी के उस पार, समुद्र के उस पार, भाई भाई को बुलाता है, माँ बेटे को बुलाती है. क्या हमारा फर्ज नहीं है कि हम उन्हें आज़ादी दिलायें. अपनी माँ को इसी तरह बेड़ियों में जकड़ा कब तक देखते रहेंगे हम? इस सवाल के साथ ही वह आवाज़ थम गयी. लेकिन मैंने देखा हर ओर, हर कहीं, हर किसी के भीतर उस आवाज़ की अनुगूँज जारी थी. सभा में उपस्थित हर हिन्दुस्तानी अपने भीतर एक अजीब बेचैनी महसूस कर रहा था. लोगों की मुट्ठियों भीच गयी थी. मैंने पहले बार आवाज़ का जादू सर चढ़ता हुआ देखा था. फैसले का वह लम्हा गो कि बहुत मुख़्तसर था मगर बहुत-बहुत अहम. मैंने तय कर लिया था कि ब्रितानी सरकार की दी गयी यह फौजी नौकरी मेरे लिए नहीं है. एक हिन्दुस्तानी होने के नाते मेरा पहला फर्ज मादरे वतन की आवाज़ सुनना होता है और मुझे लगा कि मादरे वतन मुझे मेरे फर्ज के लिए ललकार रहा है. मैं अचानक अपनी सीट पर खड़ा हो गया और बड़े गंभीर स्वर में बोल पड़ा. “नेताजी! मैं देश के लिए अपने को कुर्बान करने को तैयार हूँ. यदि आप चाहें तो इसके लिए मेरा कोई इम्तहान ले सकते हैं. मैं चाहता हूँ कि अपनी मिटटी के लिए पहला खून जो गिरे वह मेरा हो.” और मेरे इस एलान के ख़त्म होते होते जैसे उस सभा में मौजूद लोगों को कोई राह मिल गयी हो, भीतर दबी हुई आकांक्षा को शब्द मिल गए हो. एक साथ हजारों आवाजें गूँज पड़ीं :– “हम मुल्क के लिए शहीद होने को तैयार हैं.” आज़ादी के दीवानों का वह जोश लगभग, ‘कैथे भवन’ की तारीख का वह पहला दिन था जब उसने देखा कि परायी धरती पर मादरे वतन के लिए कुर्बान होने का जज़्बा कितना पाक और कितना जूनून से भरा होता है. ‘कैथे भवन’ चश्मदीद गवाह है उस भावनात्मक पल का जब उस सभा में मौजूद एक 70 वर्षीय बूढी औरत ने चाकू से अपनी ऊँगली काटकर नेताजी के माथे पर खून का टीका लगाते हुए उनके सफल और दीर्घायु होने की दुआ मांगी थी.

वह लम्हा आज भी आँखों में रक्स कर जाता है. मेरी आँखें आज भी पुरनम हो आती हैं. सोचता हूँ :- या खुदा, वह कौन सी ताकत थी जिसने बच्चे से लेकर बूढों तक में कुर्बानी का जज्बा पैदा कर दिया था, जिसने मिटटी का क़र्ज़ अदा करने के फ़र्ज़ की याद दिला दी थी. पूरा भवन ‘जय हिन्द के नारे से गूँज उठा था.

मेरे बुलंद हौसले को देखकर नेताजी ने नवगठित ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ में मुझे भर्ती कर लिया था. वह लम्हा, वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे रोमांचक दिन था.

(क्रमश:)

 

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