चीन हिल हाक्का: कर्नल की डायरी – पन्ना 3




आशा है कि कर्नल की डायरी का दूसरा पन्ना अच्छा लगा होगा। कर्नल की डायरी का दूसरा पन्ना आज प्रस्तुत है।

29 अगस्त, 1943. यानी आज़ाद हिन्द फ़ौज में भर्ती होने के एक महिना के बाद मुझे नंबर एक ‘सुभाष रेजिमेंट’ का एड्जुटेंट (सेनापति का विशेष सहायक) होने का गौरव प्राप्त हुआ. यह नेताजी की पारखी आँखे ही थीं जिसने मुझे इस छोटे से अंतराल में ही रेजिमेंट के कमांडर जनरल शाह नवाज़ खां का दाहिना हाथ बनाया. एडजुटेंट के रूप में मेरा काम रेजिमेंट की देखभाल करना और उसकी कार्रवाइयों की रिपोर्ट कमांडर तक पहुँचाना था.

पता नही ऐसा क्या था जो नेता जी की नज़रों में मुझे अहम बना गया था. लेकिन यह तय है कि नेताजी का अटूट विश्वास और नेतृत्व-कौशल ही ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ की सबसे बड़ी ताक़त थी.

‘सुभाष रेजिमेंट’ में बतौर एडजुटेंट मेरा पहला मोर्चा था भारत-बर्मा सीमा पर ‘चीन-हिल हाक्का’. इसी मोर्चे पर ब्रितानी फ़ौज से हुई थी हमारी मुठभेड़ और आखिर में हम इस मोर्चे पर फतह हासिल करने में कामयाब हुए थे. जीत की वह ख़ुशी आज़ादी की हमारी दीवानगी को और भी ज़्यादा जोश में भर गयी थी. हमने अपने मुल्क को आज़ाद कराने का जो सपना देखा था उसकी सच्चाई पर पहली मोहर थी वह. उस दिन नेताजी ने रेजिमेंट के सभी सिपाहियों की पीठ ठोककर शाबाशी दी थी और मेरी हौसला आफज़ाई करते हुए उनहोंने कहा था-

महबूब! इस 23 वर्ष की उम्र में तो तूने कमाल कर दिया. शाहनवाज़ ने मुझे बताया है कि तेरी चक्र-व्यूह रचना इतनी बेहतरीन थी कि गोरी फ़ौज के महाप्रभुओं को नाकों चने चबाने पड़े. ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ के इतिहास में तेरा नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा और आने वाली पीढ़ी यह जान सकेगी कि ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ में एक ऐसा भी सिपाही था जिसके लिए मज़हब, जिस्म और सम्मान से बढ़ कर थी हिंदुस्तान की आज़ादी.”

नेताजी के कहे हर शब्द किसी दैवी ताक़त की तरह मेरे भीतर उतरते चले गए थे. उस वक़्त लगा था यह आवाज़ सिर्फ़ एक व्यक्ति की नहीं बल्कि अपने मुल्क की करोड़ों आत्माओं ने जैसे दुआ दी थी मुझे. मेरा रोम-रोम आभार से भर उठा था. मैंने थरथराते हुए स्वर में कहा था-

“नेताजी! अगर आप मुझे हुक्म दें तो इसी पल मुल्क के लिए अपने शरीर का एक-एक बूँद खून दान कर सकता हूँ.”

नेताजी ने मेरे कन्धों पर संतुष्ट होते हुए अपना हाथ रख दिया था.

सन 1943 का अंतिम महिना. तय हुआ था नंबर 1 ‘सुभाष रेजिमेंट’ को ‘ओखरोल मोर्चे’ पर भेजा जाए. इम्फाल (मणिपुर) के निकट था यह ‘ओखरोल मोर्चा’. इस मोर्चे पर एक बार फिर हुई थी अंग्रेज़ी-सेना से हमारी जम कर मुठभेड़. अंग्रेज़ों की फ़ौज का मुकाबला करने में हमारे लिए सबसे ज्यादा मददगार हुआ करती थी हमारी हिम्मत और रणनीति. इसी बलबूते पर हमने ‘ओखरोल मोर्चा’ भी जीत लिया था. यह जीत एक मायने में हमारी पिछली जीत से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए थी कि यह लड़ाई हमने हिंदुस्तान की सरज़मीं पर लड़ी थी और पहली बार अपनी ज़मीन पर अपनी जीत का परचम लहराया था. वह वक़्त मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. हमारे हरेक जवान ने लहराते हुए परचम को बड़े जोशो-खरोश के साथ सलामी दी थी और क़सम खायी थी –

‘जितनी जल्दी हो सके हम अपने पूरे मुल्क से अंग्रेज़ों को नेस्तनाबूद कर देंगे.’

इस मोर्चे की जीत के बाद हमने इम्फाल के नज़दीक जो अगला मोर्चा लिया था वह था ‘मोरैंग’. यह 1944 के शुरू के दिन थे. ‘मोरैंग’ की धरती पर हिन्दुस्तानी परचम लहराने की खुशकिस्मती हासिल हुई थी शौकत मल्लिक को. यह विजय हमारे संघर्ष की बहुत बड़ी उपलब्धि थी. ‘मोरैंग’ की धरती पर ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ ने पहली बार अपनी हुकूमत क़ायम की थी. 21 दिनों तक ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ की चलने वाली इस हुकूमत की घोषणा लगातार कई दिनों तक रेडिओ टोक्यो एवं रेडिओ ताशकंद द्वारा की जाती रही.

क्रमशः

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