
-फ़िरोज़ आलम सिद्दीक़ी
पटना (बिहार), 19 अप्रैल, 2018 (टीएमसी हिंदी डेस्क) । कई दिनों से दीन बचाओ देश बचाओ कांफ्रेंस पर आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है. जो लोग इस कांफ्रेंस को होने देना ही नहीं चाहते थे वह अब इस कांफ्रेंस को पोलिटिकल मंशा का आयोजन कहने पर आतुर हैं. इस कांफ्रेंस की सबसे अधिक आलोचना मुस्लिम आधारित पोर्टल और उर्दू मीडिया में की गयी जबकि अगर गोदी मीडिया को छोड़ दिया जाए तो मेनस्ट्रीम मीडिया ने पहले खुद को तठस्थ रखा और बाद में बहुत ही पॉजिटिव रिपोर्टिंग की. दैनिक भास्कर ने “ज़बान पर अल्लाह हाथ में तिरंगा” का हेडलाइन दिया जो बिलकुल सटीक था. उस कांफ्रेंस में चूँकि मैं शुरू से अंत तक मौजूद था तो मैं कह सकता हूँ कि मैंने उनकी आँखों में जो तस्वीर देखी वह वही थी जिस भारत की तस्वीर बाबा साहब कृत भारतीय संविधान में मौजूद है. आज यह हालत है कि जितनी मुंह उतनी बात. तरह तरह के प्रश्न और तरह तरह के तर्क. तरह तरह से मशवरे और ईमारत और वली रहमानी की आलोचनाएं और उनके नाम मशवेर. इन सबको सुन और पढ़ कर मुझे उस बाप बेटे और खच्चर की कहानी याद आती है.
कहानी यह है कि बाप बेटे अपने खच्चर के साथ सफ़र कर रहे थे. दोनों खच्चर पर बैठ कर अपने सफ़र में मस्त थे तभी जानवरों से प्रेम करने वाले एक शख्स ने तंज़ करते हुए कहा “कैसे लोग हैं यह मासूम खच्चर पर इतनी क्रूरता.” इतना सुनना था कि बेचारा बाप और बेटे दोनों उतर गए और पैदल ही चलने लगे. आगे जाकर एक तर्क करने वाला बुद्धिमान शख्स मिला. उसने कहा “एकदम बुरबक लोग हैं खच्चर के रहते हुए कोई पैदल भी चलता है.” बेचारे बाप बेटे को बुरा लगा और बेटे ने कहा अब्बा आप बैठ जाइए. बाप बेचारा बैठ गया. थोड़ी देर आगे जाने के बाद एक करुणा से भरे दिल वाले शख्स ने कहा “वाह रे बाप, खुद आराम से खच्चर पर सवार है और बेटा पैदल चल रहा है.” यह सुनना था कि बाप उतर गया और बेटे को खच्चर पर बिठा दिया. थोड़ी देर चलने के बाद फिर एक नए अजूबे से मुलाक़ात हो गयी और उसने भी तंज़ किया कि “कैसा नालायक़ बेटा है बाप पैदल चल रहा है और खुद खच्चर पर सवार है. मुस्लिम समुदाय के लिए काम कर रहे संगठनों की हालत आज बाप बेटे की तरह ही है.
कोई कह रहा है दीन बचाओ नहीं दीन बेचो रैली है. कोई कह रहा है कि क्या इस समुदाय का ठेका सिर्फ़ मौलवियों ने ले लिया है. कोई कह रहा है कि कौम का सौदा हो गया है. कोई कह रहा है कि क्या ऐसी कांफ्रेंस से दीन बच गया. ऐसे ही कहने वालों से मैंने पूछा कि आख़िर आप ही बताइए किसी लोकतांत्रिक देश में रैली, कांफ्रेंस से बेहतर विरोध करने का कोई और लोकतांत्रिक और अनुशासित तरीका है. क्या करे मुस्लिम समुदाय? रेलों की पटरियां उखाड़े? सरकारी संपत्तियों को आग लगाए? क्या करे? मुझे तो इससे बेहतर तरीका समझ में नहीं आता. किसी के पास कोई बेहतर लोकतांत्रिक और अनुशासित तरीका है तो ज़रूर बताए?
मुस्लिम समुदाय आज तक इतनी बड़ी भीड़ को लेकर कभी किसी जगह जमा नहीं हुआ. जानकार कहते हैं कि जे पी की संपूर्ण क्रान्ति और लालू की गरीब रैली में भी इतनी भीड़ नहीं थी. और ऐसा नहीं कि इस रैली से विरोध की शुरुआत हुई. इस रैली को करने से पहले लॉ कमीशन को करोड़ों हस्ताक्षर भेजे गए और कहा गया कि मुस्लिम खुश हैं अपने पर्सनल लॉ से, जगह जगह छोटे छोटे कार्यक्रम किए गए, समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में बहस कराई गयी, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों, जनजातियों के साथ बैठकें की गईं और उन सबका समर्थन लिया गया जिनके खुद के पर्सनल लॉ ख़तरे में थे. अदालतों में अपनी बात रखी गयी. सभ्य समाज में इसके अलावा और क्या तरीका हो सकता है विरोध जताने का? वामन मेश्राम का इस में मौजूद होना इस बात का प्रमाण है कि यह कांफ्रेंस दीन बचाने के साथ साथ संविधान बचाने और देश बचाने के लिए किया गया था. इसमें बढ़ रहे बलात्कार, मस्जिदों मदरसों पर हो रहे हमले, अल्पसंख्यक समुदायों, दलितों, आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए बाजाब्ता रेज़ोलुशन पढ़े गए और भीड़ ने सुन कर अपना समर्थन भी दिया.
यह बात बिलकुल सही है कि आज़ादी के बाद आज तक मुस्लिम समुदाय सड़क पर आया है तो महज़ अपनी आस्था को लेकर. इसने कभी रोज़ी, रोटी, रोज़गार नहीं माँगा. इसने कभी आरक्षण नहीं माँगा. इसने दंगों में मारे गए लोगों के लिए मुआवज़ा नहीं माँगा, इसने अपनी लूटी हुई हालत का बदला किसी से नहीं माँगा. इसने जो भी माँगा इस अदालत से माँगा, इस संविधान से माँगा और इस अदालत और इस संविधान ने जो इसे दिया उस पर इत्मीनान रखा. शरियत इसकी जान है और इस पर चलना इसका संवैधानिक अधिकार है.
इस कांफ्रेंस में आई भीड़ इतनी अनुशासित थी कि इसकी चर्चा वहां आस पास खोमचे और ठेले पर बेच रहे लोगों ने बड़े मीठे अंदाज़ में की. मैंने जब इस बारे में वहां सामान बेचने वाले से पूछा तो एक सत्तू बेचने वाले ने कहा कि “भाई साहब, आज तक इतनी बड़ी भीड़ नहीं देखी और इतनी कमाई हमें किसी रैली से नहीं हुई. अक्सर रैली में हम लूट जाते हैं. आज हम कमा कर जा रहे हैं. अक्सर रैलियों में हमें 10 गिलास में से 2 गिलास के ही पैसे मिलते हैं इस रैली में हमें 10 के 10 मिले.”

खालिद अनवर का क्या खेल है?
ईमारत ए शरिया खालिद अनवर को एमएलसी का टिकट दिए जाने पर पहले ही प्रेस रिलीज़ दे कर यह साफ़ कर चुकी है कि इससे इस कांफ्रेंस का कोई लेना देना नहीं है. संगठन ने यह कह दिया कि ईमारत ए शरिया प्रमुख ने इस टिकट के लिए कोई सिफारिश नहीं की और यह सब जो खेल खेला जा रहा है वह कांफ्रेंस के असर को फीका करने की कोशिश है. मैंने जब जदयू के लोगों से बात की तो मुझे माजरा समझ में आया. नाम उजागर न करने की शर्त पर कई लोगों ने कहा कि खालिद अनवर का नाम नीतीश कुमार के ज़ेहन में रैली से पहले था ही नहीं. कई नामों पर चर्चा हो रही थी लेकिन किसी मुस्लिम का नाम नहीं था चूँकि इदारा शरिया प्रमुख बलियावी पहले से जद यू के एमएलसी हैं. पहले वह राज्य सभा में थे जिन्हें डिमोशन दे कर विधान परिषद में लाया गया. खालिद अनवर को टिकट देकर नीतीश कुमार ने ईमारत ए शरिया से अपने संबंधों को बेहतर बनाने का प्रयास किया है. ज्ञात रहे कि जब से वली रहमानी इस संगठन के प्रमुख बने हैं उनहोंने कभी भी किसी प्रोग्राम में नीतीश को आमंत्रित नहीं किया बल्कि मांझी के मुख्य मंत्री बनने पर ईमारत ने एक प्रोग्राम में उन्हें मुख्य अतिथि बनाया था और यह उस समय बनाया था जब नीतीश के ख़िलाफ़ मांझी खुला स्टेटमेंट दे रहे थे. और इस प्रोग्राम की अध्यक्षता खुद वली रहमानी ने की थी.
क्या थे दीन बचाव देश बचाव में आने वालों के लिए 15 निर्देश,अवश्य पढ़ें
सूत्रों के अनुसार, नीतीश कुमार मुस्लिमों के सबसे बड़े संगठन के प्रमुख से नज़दीकी चाहते हैं और यही कारण है कि नीतीश कुमार ने उन्हें खुश करने के लिए भरपूर प्रयास किया. कांफ्रेंस की सफलता के लिए बिहार जद यू ने अनाधिकारिक तौर पर जो मेहनत की वह जग ज़ाहिर है. खालिद अनवर को एमएलसी बनाना भी इसी प्रयास का हिस्सा है.
क्या नीतीश की यह चाल है ताकि कांफ्रेंस का असर फीका हो जाए?
खालिद को एमएलसी बनाना नीतीश कुमार का इस कांफ्रेंस के प्रभाव को फीका बनाने का मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा है, यह सवाल जब मैंने कुछ लोगों से पूछा तो लोगों ने कहा कि नीतीश कुमार इतने कच्चे राजनीतिज्ञ नहीं हैं. नीतीश कुमार कभी नहीं चाहेंगे कि वली रहमानी जो मुस्लिमों के एक आइकॉन के तौर पर उभरे हैं या कह लें वह पहले से हैं वह आइकॉन टूट जाए या उसकी हैसियत को कोई नुकसान पहुंचे. आइकॉन का पॉलिटिक्स में बहुत महत्व होता है और उसका फायदा राजनेता उठाना अच्छी तरह जानते हैं. यह अलग बात है कि इसका लाभ किसको मिलता है. नीतीश कुमार ने कांफ्रेंस की शाम को यह घोषणा इसलिए की ताकि इसका फायदा कोई और पार्टी न उठा पाए.
ईमारत के लोगों से जब मैंने बात की तो उनहोंने नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर कहा कि इसमें कोई ताज्जुब नहीं है कि खालिद अनवर को एमएलसी टिकट दिया गया. उनहोंने कहा कि दरअसल अगर यह प्रोग्राम पहले होता तो खालिद अनवर राज्य सभा भी जा सकते थे.
खालिद अनवर ही क्यों?
खालिद अनवर उर्दू समाचारपत्र के मालिक हैं, पैसे वाले हैं और गैर मौलवी में वली रहमानी के सबसे नज़दीक हैं. खालिद अनवर के माध्यम से नीतीश कुमार को उर्दू मीडिया में अपना सिपासालर मिल गया जो उर्दू मीडिया गठबंधन से हटने के बाद लगातार नीतीश की आलोचना कर रहा था.
वली रहमानी के एक बेहद क़रीबी ने कहा कि खालिद अनवर को चाहिए था कि वह इस ऑफर को अभी ठुकरा देते और थोड़ा और इंतज़ार करते. उन्हें कुछ बड़ा भी मिल सकता था. लेकिन ऐसा करके वह मुस्लिम समाज की नज़र में गिर ही गए मौलाना की नज़र में भी रुसवा हुए हैं.
अंत में मैं यही कहना चाहता हूँ कि जो लोग कांफ्रेंस की मंशा पर प्रश्न उठा रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि इस कांफ्रेंस ने तमाम अल्पसंख्यक और वंचित समुदायों को अपनी समस्याओं को उगागर करने का जनवादी तरीका दिखाया है. आशा करता हूँ कि ऐसे कांफ्रेंस का आयोजन आने वाले दिनों में भी होते रहेंगे.
(फ़िरोज़ आलम सिद्दीक़ी होली क्रिएचर्स के पैट्रन हैं और अल खैर कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी लिमिटेड के चेयरमैन रहे हैं. लेखक से आप tmcdotin@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.)