लीची नहीं मुजफ्फरपुर में कुपोषित बच्चों की मौत की दोषी है सरकार




मुजफ्फरपुर के एक प्राइवेट अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझता बच्चा
प्रोफेसर मोहमम्द सज्जाद        (@sajjadhist)

हर वर्ष मई के आखिर और जून के शुरू में, जैसे जैसे पछुआ हवा के साथ 40 डिग्री से ऊपर तापमान बढ़ा और पुरवईआ हवा के साथ नमी आई, हमें दर्जनों बच्चों की मौत की भयावह खबर भारत के लीची का कटोरा कहे जाने वाले शहर मुजफ्फरपुर से सुनने को मिला. इसकी स्पष्ट संभावना (और बिलकुल स्थानीय स्तर पर) होने के बावजूद हम सरकार की अपराध की हद तक तैयारी में कमी पाते हैं. 50 वर्ष पुराना मुजफ्फरपुर का श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (SKMCH) इस स्थिति को निपटने के लिए इन्फ्रा स्ट्रक्चर के मामले में तैयार नहीं रह पाता है. इसका बच्चों वाला आईसीयू बुरी तरह से उपेक्षित रहता है.

स्वतंत्र भारत के सबसे पहले मेडिकल कॉलेजों में से एक जो निजी उपक्रम के तौर पर स्थापित किया गया था (बाद में इसे सरकार ने ले लिया), इसमें अब तक स्नातकोत्तर कोर्स के लिए क्लिनिकल शाखाएँ नहीं हैं. अतः, यह अन्य इन्फ्रा स्ट्रक्चर के अतिरिक्त मेडिकल कर्मचारियों की कमी से बुरी तरह ग्रस्त है.

1995 से यह त्रासदी मुजफ्फरपुर के बच्चों के साथ बार बार हो रहा है. 2014 में, इससे भी अधिक मौतें हुईं थीं. मोदी के नेतृत्व वाली नई नई बनी सरकार ने अपने केन्द्रीय मंत्री डॉ हर्षवर्धन को तब मुजफ्फरपुर भेजा था. उन्होंने कई बड़े दावे किए थे, कुछ माँ-बाप को इस बात पर राज़ी किया कि वे अपने मृत बच्चों के नमूने उन्हें दे दें. ऐसा दावा किया गया था कि इन्हें कुछ विशेषज्ञ प्रयोगशालाओं में भेजे जाएंगे. इसका किसी को कुछ पता नहीं कि उसके बाद क्या हुआ.

इस वर्ष भी, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने मुजफ्फरपुर का दौरा किया. ऐसे ही वादे फिर से दोहराए गए.

मारवाड़ी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा संचालित मुजफ्फरपुर का केजरीवाल हॉस्पिटल में जो पहले कम दर पर मातृत्व संबंधित इलाज प्रदान करने के लिए मुख्यतः जाना जाता था ने इसका विस्तार करके 2014 के बाद बच्चों का एक वार्ड शुरू किया गया है. स्थानीय संवाददाताओं के अनुसार, केजरीवाल अस्पताल में लीची से होने वाली बीमारी AES (Acute Encephalitis Syndrome), के मामले में भर्ती मरीज़ बच्चों की मृत्यु दर एसकेएमसीएच की तुलना में बहुत कम है. इस वर्ष, एसकेएमसीएच में भर्ती बच्चों की मृत्यु दर जहाँ 33 प्रतिशत से अधिक है वहीँ यह दर केजरीवाल अस्पताल में 15 प्रतिशत से भी कम है.

डॉक्टरों का कहना है कि प्रभवित बच्चों को समय पर डेक्सट्रोज़ की ख़ुराक बहुत मददगार साबित हुआ है. जबकि सरकारी अस्पतालों में डेक्सट्रोज़ की बहुत कमी पाई गयी है. यह कमी ग्रामीण क्षेत्र के कम्युनिटी डेवलपमेंट ब्लाक के अस्पतालों के साथ शहरी क्षेत्रों के अस्पतालों में भी है.

डॉक्टरों का यह भी कहना है कि इस बीमारी के रहस्यों के बावजूद AES के मामले में इलाज के बाद उन्हें जान बचाने में बड़ी सफलता मिली है.

स्थानीय तौर पर यह देखा गया कि मुजफ्फरपुर के कुछ भाग (जैसे बरुराज, मोतीपुर, कतरा, ओरिया के कम्युनिटी डेवलपमेंट ब्लाक) इससे अधिक प्रभावित हैं. केवल गरीब, कुपोषित बच्चे (अधिकतर निचली जाति के) इसके शिकार हुए हैं. Current Science के अध्ययन से पता चलता है कि वैसे बच्चे जिनके अंदर पोषण की कमी नहीं है इसके शिकार नहीं हुए हैं. दुर्भाग्यवश, मीडिया भी इस पहलू पर अपराध की हद तक सरकार की इस नाकामी को बेनकाब नहीं पा रही है.

यहाँ जो बात ध्यान देने योग्य है वह यह कि पहले से चेतावनी के बावजूद, बाल चिकित्सीय देखभाल के लिए इन्फ्रा स्ट्रक्चर की भयावह अनदेखी और सरकार की और से बचाव के उपायों की कमी व्याप्त रही. यह मुख्य कारण हैं. सरकार, हर वर्ष, लीची के फल के साथ इस बीमारी को जोड़ कर अपनी साख बचाती है और इसके मुख्य कारण जो कि कुपोषण है इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती.

विश्व स्तर पर जाना जाने वाला पत्रिका Lancet (vol. 5, April 5, 2017), ने भी “रैपिड ग्लूकोस करेक्शन यानि तेज़ी के साथ शरीर में ग्लूकोस के स्तर में सुधार” की अनुशंसा की थी. इसके बावजूद सरकार ने इसे अस्पतालों में उपलब्ध नहीं कराया. प्रत्येक ब्लाक में सरकारी अस्पताल हैं. अप्रैल तक, इन अस्पतालों को डेक्सट्रोज़ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाना चाहिए था. लेकिन यह नहीं हुआ.

शर्मनाक तो यह है कि, चूँकि प्रभावित लोग गरीब निचली जाति के हैं इससे नेशनल मीडिया के लोगों में वह आक्रोश नहीं दिखा जो सरकार की जान बूझ कर खराब तैयारी को लेकर होना चाहिए था. राजपूत की शान की रक्षा करने का दिखावा करने के लिए, करनी सेना ने काल्पनिक कहानी पर आधारित एक फिल्म ‘पद्मावत’ की स्क्रीनिंग को रोकने के लिए हथियार बंद हो कर कोहराम मचाया था और मुजफ्फरपुर के सिनेमा हॉल में तोड़ फोड़ किया था.

गाय के नाम पर, एक बड़ी भीड़ बाहर आ सकती है. लेकिन स्वास्थ्य, शिक्षा, शासन, जल-संकट के मामले में सरकार की संवेदनहीनता के खिलाफ कोई नहीं आता.

एक दुसरे मायने में, ऐतिहासिक रूप से जाना जाने वाला मुजफ्फरपुर जहाँ सड़कों पर उपनिवेश विरोधी जन आन्दोलन हुए, समाजवादी-लेफ्टिस्ट का कांग्रेस विरोध हुआ, किसान आन्दोलन देखे गए और जहाँ 1960 के दशक के आखिर और 1970 के दशक के शुरूआती दौर में नक्सल आन्दोलन हुआ और जहाँ आचार्य कृपलानी ((1888-1982), अशोक मेहता (1911-1984), जॉर्ज फ़र्नाडिस (1931-2018) जैसे समाजवादी कद्दावर नेता यहाँ से चुने गए वहां 2018 में शेल्टर होम की क्रूरता के खिलाफ कोई जन आन्दोलन नहीं देखा गया यहाँ तक कि वह सब लीची के कारण कम बल्कि ज्यादा राज्य की लापरवाही के कारण हुए कुपोषित बच्चों की मौत पर बहुत ही भद्दे ढंग से और अपराध करने की सीमा तक मौन हैं.

विडंबना यह कि, कल्पित-कथा और घिर विकृत इतिहास यहाँ आक्रोश का कारण बनता है जबकि बलात्कार और क्रूरता के तथ्यों के आधार और स्वास्थ्य में राज्य की लापरवाही पर कोई आक्रोश नहीं होता.

यही समूह 2018 के शुरूआती महीनों में मुस्लिमों को उनका रास्ता दिखाने में तत्पर थे जब फरवरी 2018 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के मुजफ्फरपुर दौरा के बाद मुजफ्फरपुर समेत पूरे बिहार में दंगे हुए.

15 अप्रैल, 2018 को  जब आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव, मौलाना वली रहमानी ने गैर-कुरानी त्वरित तीन तलाक़ को बनाए रखने के लिए लोगों का आह्वान किया तब मुस्लिम महिलाऐं लगभग हर शहर में सड़कों पर उतरीं; मुजफ्फरपुर में भी और फिर पटना में भी जमा हुईं. वह पहले भी संसदीय कानून के माध्यम से शाह बानो के निर्णय को बदलने के लिए 1985-86 में सड़कों पर आई थीं.

उनही महिलाओं को किसी भी मौलवी या समुदाय के अन्य नेताओं की ओर से ऐसे कोई निर्देश नहीं मिले कि वह बाहर आकर बिहार में शेल्टर होम की बच्चियों के साथ हुई क्रूरता के खिलाफ आवाज़ उठाएं न ही वह राज्य के स्वास्थ्य से संबंधित अपराध मामले के खिलाफ आईं. यहाँ तक की सीबीआई भी चार्ज-शीट दर्ज करने में समय लेती रही. सीबीआई नवरुना मामले में भी भू-माफिया राजनेताओं और नौकरशाहों को बेनकाब करने में नाकाम रही जिन पर नवरुना के अपहरण और हत्या का संदेह था. मुजफ्फरपुर में, सीबीआई ऐसे स्पष्ट घटनाओं को लेकर अपना साख खोती दिखी. कुल मिलाकर, बिहार में हाल के वर्षों में अपराध में भारी बढ़ोतरी देखी गयी है.

दुखद यह है कि राजनैतिक विपक्ष ने भी मृत्यु को कम करने के लिए सरकार की आपराधिक खामियों को उजागर करने के लिए कोई व्यापक विरोध नहीं जताया है. बिहार स्वास्थ्य मंत्री, मंगल पाण्डेय की किसी ने इस्तीफे तक की मांग नहीं की है. न ही विपक्ष ने इस पर सदन के अंदर कुछ बोला है.

राजद के तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार के खिलाफ ट्वीट करना बहुत पसंद है. वह भी राज्य की इस उदासीनता को लगता है नज़र अंदाज़ कर गए. उनहोंने अब तक मुजफ्फरपुर का दौरा तक नहीं किया है. केंद्रीय राज्य स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे का बक्सर (जहाँ से वह 2019 में लोक सभा चुनाव जीते हैं) और भागलपुर (अपने गृह क्षेत्र) में सत्कार किया जा रहा है.

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को तृणमूल कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल में बहुत सारी समस्याएँ दिखाई दे रही हैं लेकिन इसे एनडीए शासित राज्यों में कोई समस्या दिखाई नहीं दे रहा है. दुःख की बात यह है कि आईएमए गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में हुई बच्चों की मृत्यु पर भी शांत थी. दुर्भाग्यवश, गोरखपुर की त्रासदी का अंत एक मुस्लिम डॉक्टर के सांप्रदायिक अत्याचार पर हो गया जिसने बच्चों को बचाने का प्रयास किया था.

मुजफ्फरपुर में निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर इतना पैसा कमाते हैं कि आप विश्वास नहीं कर सकते. वह शहर के चैरिटेबल वेलफेयर, सफाई और सौन्दर्य पर कुछ पैसे खर्च करने के सामाजिक दायित्व के बारे में भी नहीं सोचते. मुजफ्फरपुर शहर में निजी नर्सिंग होम जहाँ सबसे ज्यादा हैं वह (जुरन चपरा) शहर का सबसे गन्दा इलाका है. यह बड़ी कमाई करने वाले डॉक्टरों ने कभी ग्रामीण कम्युनिटी डेवलपमेंट ब्लाक के सरकारी अस्पतालों को डेक्सट्रोज़ के लिए धन उपलब्ध कराने के बारे में भी नहीं सोचा.

यह समाज के तौर पर हमारी सामूहिक नीचता को उजागर करता है जिसने राजनीति और शासन को इस हद तक दूषित कर दिया है कि केवल जात और धर्म के आधार पर नफरत, स्त्री-द्वेष और रूढ़ीवाद को बनाए रखने की पुकार ही हमें गली और सड़कों पर विरोध और धरने के लिए उकसाती है.

यह शायद हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है!

 

(मोहम्मद सज्जाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं और Muslim Politics in Bihar: Changing Contours (Routledge)और अन्य पुस्तकों के लेखक हैं. यह उनके अंग्रेजी आलेख का द मॉर्निंग क्रॉनिकल द्वारा अनूदित संस्करण है.)

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