
-समीर भारती
मेरे इस हेडलाइन से आप चौंकिए मत, न ही इसका मंशा पूरी ब्राह्मण जाति को औरों की तरह बुरा भला कहने का है. अपितु एक नैरेटिव फिल्मों, कहानियों और साहित्यों के ज़रिए बनाई जाती है कि अल्पसंख्यकों और दलितों का उद्धारक ब्राह्मण ही हो सकता है उस पर मैं कुछ कहना चाहता हूँ.
अभिनव सिन्हा की यह फिल्म मुल्क की तरह ही एक फाल्स नैरेटिव ले कर आता है. मुल्क की कहानी एक मुस्लिम खानदान की थी जिसका एक बेटा आतंकवाद का रास्ता चुनता है. खानदान के आतंकवादी सदस्य के कारण उसे अपने मोहल्ले के हिन्दुओं का कोपभाजन होना पड़ता है. खानदान की एक बहू हिन्दू है जो इत्तेफाक से वकील है और आखिरकार वही पूरे खानदान को दुःख की घड़ी से निकालती है. मुल्क ने अच्छा व्यापार किया था. फिल्म देखने में अच्छी लगी थी. लेकिन सन्देश को जनमानस पर बैठा वह लोकतंत्र के लिए घातक था.
आर्टिकल 15 अभिनव सिन्हा की उसी थीम पर बनी एक फिल्म है. इस फिल्म में इस बार पीड़ीत मुसलमान नहीं दलित है. दलितों का मसीहा ब्राह्मण है.
इस फिल्म की समीक्षा ट्रेलर के रिलीज़ के दिन के बाद से ही की जा रही है और लोग वाहवाही कर रहे हैं. जो लोग वाहवाही कर रहे हैं उनसे यह सवाल तो बन ही सकता है कि अगर इस फिल्म में ब्राह्मण का उद्धारक किसी दलित को दिखाया जाता तो क्या इसी समीक्षा की उम्मीद की जा सकती थी?
यह फिल्म उस ब्राह्मणवादी सोच को बल देती है कि ब्राह्मण यहाँ के माई-बाप हैं और हम सब दलित, मुस्लिम, सिख, इसाई इनके रहमो करम पर जी रहे हैं.
ऐसी फ़िल्में सेंसेशन क्रिएट करने के अलावा और कुछ नहीं करती. बॉक्स ऑफिस पर यह फ़िल्में कमाल तो दिखा सकती हैं लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य यह है कि समाज के लोग ब्राह्मण को बहादुर, इन्साफ पसंद और ईमानदार समझें.
फिल्मों में यह दशकों से होता चला आ रहा है और हमारे समाज में फिल्म देखने वालों की कंडीशनिंग भी ऐसे ही की जाती है. हमारे मन मष्तिष्क पर फिल्म और सीरियल का इतना असर होता है कि हमने अपने भगवानों का चेहरा भी रामानन्द सागर के दिखाए गए रामायण और महाभारत से ही गढ़ लिया.
धार्मिक सीरियल महाभारत के कृष्ण बाद में एम पी बन गए और रामायण के सीता को फिल्म इंडस्ट्री में उनकी सीता मैया की छवि के कारण काम ही नहीं मिला. एक मजेदार घटना तो यह है कि रामायण में सीता बनी एक हाफ पोर्न फिल्म की शूटिंग कर रही थी. अचानक दर्शकों ने शूटिंग देखी जिसमें बलात्कार का संभवतः कोई दृश्य था. वह दृश्य नहीं हो सका क्योंकि दर्शकों की नज़र में वह अभिनेत्री नहीं बल्कि वास्तविक सीता मैया थीं. शायद इस फिल्म का नाम रात के अँधेरे में थे और इस फिल्म में उनका किरदार सेक्सी रोज़ी का था.

इस बार के लोक सभा में सन्नी देओल ने अपने पूरे चुनावी अभियान में ग़दर फिल्म की छवि दिखाई जिसमें सन्नी देओल हैण्ड पंप उखाड़ कर पूरे पाकिस्तान को सबक सिखा देते हैं. बल्कि हैण्ड पंप लेकर भी कई जगह उनहोंने प्रचार किया. उनके वोटरों को लगा कि सन्नी अगर एमपी बन गए तो भारतीय सेना की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी. हालांकि उनकी सौतेली अम्मा हेमा मालिनी का पिछला रिकॉर्ड इतना खराब रहा कि उसकी भरपाई के लिए इस बार उनको खेतो में काम करते हुए अपने फोटो और वीडियो वायरल करवाने पड़े.
आर्टिकल 15 लोगों में समानता को प्रोत्साहित करने से ज्यादा इस बात की दुहाई देने वाली फिल्म है कि दलितों के असली मसीहा ब्राह्मण हैं. दलितों ने शायद इस बार ब्राह्मणवादी पार्टी भाजपा को वोट भी इसलिए ही दिया.
फिल्म की कहानी
फिल्म की कहानी का मुख्य पात्र ब्राह्मण आईपीएस अफसर जिसकी भूमिका में आयुष्मान खुराना हैं. इस फिल्म में यह ब्राह्मण अफसर दलितों के मसीहा के तौर पर उन्हें उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने की कोशिश करता है. यही नैरेटिव भारतीय समाज के लिए खतरनाक है. लोकतंत्र में सबको हक है कि वह अपनी लड़ाई खुद लड़े और वह लड़ने के लिए पूरी तरह सक्षम भी है.
हाल के दिनों में जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल का उभरना इस बात का प्रतीक भी है कि अब दलित या कोई भी इस में सक्षम हैं कि वह अपनी लड़ाई खुद से लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं. गुजरात की रेप पीड़िता बिलकिस बानो भी इस बात का प्रमाण है कि कोई मुस्लिम महिला भी अगर लड़े तो जीत सकती है. हालांकि यह भी इसका कड़वा सच है कि आज़ादी के बाद भी मुस्लिम और दलित संहार में बहुत कम ही सज़ा हुई है. लेकिन यह बात बिलकुल गलत है कि लड़ाई खुद के बल पर नहीं लड़ी जा सकती.
फिल्म की कहानी भारत में शहरी समाज के अंदर जातिवाद को सिरे से नकारती है. इसमें जातिवाद को शिक्षा से जोड़ा गया है. फिल्म के नायक को जातिवाद से अनजान दिखा कर यह बताने की कोशिश की गयी है कि शहरों में जाति का नामोनिशान ही नहीं है. जबकि रोहित वेमुला का सच गाँव का सच नहीं था. वह उन पढ़े लिखे के बीच जातिवाद का सच था. रोहित को अपनी जान केवल इसलिए गंवानी पड़ी क्योंकि वह दलित था. डॉ. पायल तडवी शहर में और वह भी एक बड़े हॉस्पिटल में जातिवाद की शिकार बनीं. उन्हें अपने प्राण इसलिए गंवाने पड़े क्योंकि वह आदिवासी थीं और नाम से और संस्कृति से न सही धर्म से मुसलमान थी.

कॉर्पोरेट में, उच्च शिक्षा में, बड़े विश्वविद्यालयों में, न्यायालय में, बड़े अस्पतालों में, मीडिया में, फिल्म उद्योग में एक विशेष जात का दबदबा का मतलब ही है कि शिक्षा से जातिवाद का कोई लेना देना नहीं है और न ही गाँव का इससे कोई कनेक्शन है.
कुल मिलाकर यह कहना मुश्किल नहीं कि यह फिल्म भी और फिल्मों की तरह ही एक ख़ास नैरेटिव देती नज़र आती है. इसका उद्देश्य दलितों, दबे और कुचलों को एक सन्देश देना है कि ब्राह्मण ही आपका उद्धारक है.
फ़िल्म ज़रूर देखें लेकिन उस पर दिमाग लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है और न ही इससे कोई सामाजिक सन्देश ग्रहण करने की आवश्यकता है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और यह लेखक के निजी विचार हैं.)