धूर्त धर्मनिरपेक्ष के हाथों खेल रहे बिहारी मतदाता सांप्रदायिक और अपराधियों में से अपना नेता चुनने पर मजबूर




(साभार: India Spend)

-मोहम्मद सज्जाद

बिहार में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन (कुल 40 लोकसभा सीटें) का कांग्रेस (नौ सीट), सीपीआई-एमएल (आरा की एक सीट), जीतन मांझी के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान आवाम मोर्चा या हम (तीन सीट) और मुकेश सहनी के नेतृत्व वाली विकास इन्सान पार्टी या वीआईपी (तीन सीट) और उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी या आरएलएसपी (पांच सीट) के साथ गठबंधन हुआ है।



आखरी तीन पार्टियों/नेताओं का भाजपा के साथ गठबंधन पहले भी रहा है, बहुत पहले नहीं, और ये मुसहर (महादलित), मल्लाह (मछुआरों या अति पिछड़ा), और कोइरी (ऊपरी ओबीसी) जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसा लगता तो है कि राजद ने जाति समीकरण से उठकर गठबंधन को मजबूत किया है, और अपना आधार यादवों से परे फैलाने का प्रयास किया है, लेकिन गठबंधन ने अपने बंधुआ मतदाताओं – मुस्लिमों को ही विश्वस्त मतदाता माना हुआ है।

मुस्लिम उम्मीदवारों को केवल कांग्रेस और राजद से ही नामांकन मिला है। रालोसपा, हम और वीआईपी (राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन का हिस्सा) ने भाजपा की तरह से ही एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को नामांकित नहीं किया है। वास्तव में, रालोसपा ने टिकट के लिए उन मुस्लिम चेहरे को ही बाहर कर दिया जो टिकट के लिए आवाज़ उठा रहे थे। और हालांकि जद (यू) और रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) जो भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा हैं, ने एक-एक मुस्लिम उम्मीदवार उतारा है।

महागठबंधन में मुस्लिम प्रतिनिधित्व

राजद ने ओवैसी के नेतृत्व वाले एआईएमआईएम को छोड़ना पसंद किया, जिसकी भारत के सबसे गरीब जिलों में से एक किशनगंज – जहाँ लगभग 66 प्रतिशत मुस्लिम वोट हैं में अच्छी-खासी उपस्थिति है।

महागठबंधन से AIMIM को छोड़ने का राजद का तर्क यह था कि यह पार्टी “बहिष्करण और पहचानवादी गठन” है। लेकिन यह तर्क तब अर्थहीन लगता है जब राजद ने मधुबनी लोकसभा सीट के लिए महागठबंधन सदस्य वीआईपी के उम्मीदवार के रूप में आरएसएस के एक कैडर को समर्थन दिया है और वह भी लालू के विश्वासपात्र और राजद के सबसे बड़े नेताओं में से एक अपने ही मुस्लिम उम्मीदवार अब्दुल बारी सिद्दीकी को त्याग कर।

राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी (बाएँ) और ए ए फ़ातमी

सिद्दीकी को दरभंगा भेज दिया गया, इस प्रकार राजद ने अपने एक और बड़े नेता, एमएए फातमी को लगभग अलग-थलग ही कर दिया। पूर्व राज्य मानव संसाधन मंत्री फ़ातिमी के बारे में माना जाता है कि उन्होंने दरभंगा-मधुबनी क्षेत्र में अपना जनाधार विकसित किया है। इसलिए, वह दरभंगा सीट के लिए एक जीतने वाले उम्मीदवार हो सकते थे।

मधुबनी से सीपीआई चुनाव जीतती थी, फिर यह सीट कांग्रेस में चली गई, इससे पहले भाजपा के हुकुमदेव यादव के पास यह सीट थी। 2019 के चुनावों में, हुकुमदेव के बेटे अशोक यादव, भाजपा के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। आरजेडी पिछले दो लोकसभा चुनावों में बहुत कम अंतर से यह सीट हारी है।

राजद ने बिहार में गैर-अशराफ नेताओं की हिस्सेदारी को भी नजरअंदाज किया है, जैसे कि सामाजिक न्याय के मुस्लिम चेहरे – अली अनवर अंसारी और डॉ. एजाज अली।

शरद यादव के साथ ही अंसारी ने नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली पार्टी जद-यू के एनडीए में शामिल होने के बाद 2017 में राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था और जद-यू छोड़ दिया था। शरद को आरजेडी ने दो सीटों पर चुनाव लड़ने की पेशकश की थी। उनहोंने एक (मधेपुरा) को अपने पास रखा और दूसरे को अंसारी को अनदेखा करते हुए किसी और को सौंप दिया।

राजद ने बिहार महागठबंधन से भाकपा को भी छोड़ दिया क्योंकि वाम दल को बेगूसराय सीट चाहिए थी। बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनावों में, राजद के मुस्लिम उम्मीदवार तनवीर हसन मधुबनी में अपने समकक्ष से चार गुना अधिक अंतर के साथ भाजपा से बेगूसराय हार गए थे। इसके बावजूद, राजद ने बिहार महागठबंधन के सदस्य, सीपीआई-एमएल को बेगूसराय सीट देने से मना कर दिया।

संवाददाता सम्मलेन में सीपीआई (माले) के दीपांकर भट्टाचार्य (बीच में) (फाइल फोटो)

राजद ने सीवान लोकसभा सीट सीपीआई-एमएल को देने से भी इनकार कर दिया, जबकि सीपीआई-एमएल की स्थिति वहां अच्छी है और पिछड़ी जातियों और दलितों का वोट सीपीआई-एमएल की जाने की प्रबल संभावना है। इसके बजाय, राजद ने जदयू की राजपूत उम्मीदवार हिंदू युवा वाहिनी के बाहुबली नेता अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह के खिलाफ सजायाफ्ता गैंगस्टर विधायक और सांसद शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब को मैदान में उतारा है। हालाँकि माना जाता है कि शहाब को अच्छी खासी संख्या में मुस्लिम समर्थन प्राप्त है, लेकिन वे सिवान में पिछले दो चुनाव हार चुकी हैं।

भाजपा के प्रभुत्व से पहले, सीवान के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन को भाकपा-माले के खिलाफ उच्च जाति के जमींदारों का भाड़े का सिपाही माना जाता था। मार्च 1997 में, कथित तौर पर शहाबुद्दीन के बंदूकधारियों द्वारा सीपीआई-एमएल के जेएनयू छात्र नेता चंद्रशेखर और श्याम यादव की हत्या कर दी गई थी।



बिहार में दरभंगा, मधुबनी और सिवान लोकसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की पसंद पहले, गैर BJP ताकतों की धर्मनिरपेक्षता पर और फिर मुस्लिम समुदायों की इस पर प्रतिक्रियाओं पर प्रश्न उठाती है।

“धर्मनिरपेक्ष धूर्त’ और खामोश मुसलमान

क्या राजद (और अन्य स्वयंभू ’धर्मनिरपेक्ष’ ताकतों) को एक ऐसा मुस्लिम नेता की जरूरत है, जिसकी धार्मिक पहचान को तो दिखावे के लिए इस्तेमाल कर के राजनीतिक रूप से इसका शोषण किया जा सके, लेकिन वह मुखर, सवाल करने वाला और अपना स्वतंत्र जन-आधार वाला न हो? क्या तेजस्वी सिद्दीकी को फातमी के हाथों बड़ी चालाकी से हरवाना चाहते हैं और और ऐसा करके, सिद्दीकी को क्षेत्रीय राजनीति से बाहर करना चाहते हैं, और इस तरह वह उन्हें राज्य मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण मंत्रालयों से दूर करना चाहते हैं।

2015 में, मुसलमानों के बीच एक शिकायत थी कि सिद्दीकी को राजद में उनकी वरिष्ठता के आधार पर उपमुख्यमंत्री का पद देना चाहिए था क्योंकि वह तेजस्वी जैसे नौसिखिए से अधिक योग्य थे। राजद ने दब्बू, विनम्र (बेगूसराय के) तनवीर हसन को अपना मजबूत समर्थन क्यों दिया जबकि एक से अधिक बार दरभंगा लोकसभा जीतने वाले फातमी को बाहर कर दिया?

राजद ने उत्तर बिहार के शिवहर से कथित तौर पर भाजपा के आदमी सैयद फैसल अली को उतारा है। कई लोग इसे बंधुआ मतदाताओं, मुस्लिमों के मुखर और सवाल करने वाली नेतृत्व को राजद द्वारा हाशिए पर लाने के व्यवस्थित प्रयास के रूप में देखते हैं।

CPI के बेगूसराय के उम्मीदवार कन्हैया कुमार 2016-17 से इस निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार कर रहे हैं, और यह सामान्य ज्ञान की बात बन गई थी कि राजद के हसन को बेगूसराय में कन्हैया से मुकाबला करना पड़ सकता है। ऐसे में, बेगूसराय के उम्मीदवार के रूप में हसन के तौर पर राजद की पसंद कई सवाल खड़े करती है।

हसन ने कन्हैया के कड़े अभियान के सामने अपने नेतृत्व और लामबंद करने वाली क्षमताओं को प्रदर्शित क्यों नहीं किया?

हसन ने अक्टूबर 2018 में सीतामढ़ी के लिंचिंग पर न तो कुछ कहा और न ही वह वहां गए. वह इतना बेपरवाह क्यों रहे? क्या ऐसा इसलिए क्योंकि वह हाल ही में अपनी केवल धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य विधान परिषद के लिए चुने गए थे? और यदि ऐसा है, तो मुसलमानों को ऐसे नेता क्यों चाहिए जो अपनी-अपनी पार्टियों के रबर-स्टैम्प हों और नीचे से संघर्ष कर के आने के बजाय ऊपर से ऊपर से थोपे गए हों?

ट्रिपल तालक जैसे गलत और भावनात्मक मुद्दों के खिलाफ विरोध करने के लिए जब मुसलमानों को बुलाया जाता है तब वे भारी संख्या में उपस्थित होते हैं, जैसा कि उन्होंने 15 अप्रैल, 2018 को किया था, जब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वली रहमानी के एक कॉल पर वहां जमा हुए थे, लेकिन वह आजीविका के मुद्दों पर इसी हौसले के साथ नहीं बोलेंगे? मुसलमानों ने दक्षिणपंथी हिन्दुओं और पुलिस वालों द्वारा किए नफरत फैलाने वाले अपराधों के खिलाफ कोई भी रैलियां नहीं निकालीं?

इसके अलावा, मुस्लिम पीड़ितों के लिए काम करने वाले नागरिक समाज समूहों को अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है बजाए उनके जो धर्म और धार्मिकता के नाम पर काम कर रहे हैं?

बिहार में ओवैसी राजनीति

1980 के दशक में, हैदराबाद में AIMIM के पुनरुत्थान के पीछे की व्याख्याओं में इस पार्टी का शिक्षा, व्यापार और स्थानीय निकायों के क्षेत्रों में सार्थक हस्तक्षेप की अर्थपूर्ण राजनीति थी। इससे मुसलमानों को ख़ासा लाभ मिला, और शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में दलितों के साथ गठजोड़ हुआ। हालांकि, आश्चर्य की बात यह है कि एआईएमआईएम ने सीमांचल (पूर्वी बिहार के चार जिलों, जैसे पूर्णिया, अररिया, किशनगंज और कटिहार) में वही दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाया? यह क्षेत्र पश्चिम बंगाल के चार उत्तरी जिलों (उदाहरण के लिए, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर, मालदा और मुर्शिदाबाद) जहाँ मुसलमानों की आबादी ज्यादा है के पास है।

असदुद्दीन ओवैसी (बाएँ) अपने किशनगंज उम्मीदवार अख्तरुल ईमान (बाएँ से दुसरे) के साथ (फाइल फोटो)

दिलचस्प बात यह है कि एआईएमआईएम ने बिहार और पश्चिम बंगाल के इन जिलों में स्थानीय निकाय चुनावों में दलित-मुस्लिम गठजोड़ के साथ प्रयोग करने का प्रयास ही नहीं किया। अक्टूबर 2018 में, AIMIM ने औरंगाबाद में प्रकाश अंबेडकर के साथ गठबंधन किया, लेकिन वह वहीँ तक सीमित था।

मुस्लिम मतदाताओं को यह तर्कसंगत लगता है कि AIMIM, उनकी ‘स्वयं की पार्टी’, विधायी क्षेत्र में समुदाय के लिए मोलभाव करेगी। हालांकि, उन्हें इतिहास को याद करना चाहिए। 1937 में, उत्तर प्रदेश और अन्य मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रांतों जैसे बिहार, बॉम्बे, मद्रास और मध्य प्रांतों में कांग्रेस की सरकार ने सत्ता संभाली जिसमें लगभग सभी मुस्लिम विधायक विपक्ष में ही बैठे थे।

एकांतिकतावादी (exclusivist) मुसलमानों के लिए सबक: मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए डिज़ाइन किया गया ‘रक्षोपाय’, जैसे आरक्षित सीटें, पृथक निर्वाचक मंडल और वेटेज (उनकी आबादी के प्रतिशत से अधिक सीटें) मुस्लिम दलों या राजनेताओं के लिए सत्ता में हिस्सेदारी की गारंटी नहीं बना। यदि कांग्रेस पर्याप्त गैर-मुस्लिम सीटें जीत लेती तो यह उन्हें कार्यालय और शासन से बाहर कर सकती थी जैसे कि “उनका अस्तित्व ही नहीं हो”।

यह असदुद्दीन ओवैसी कभी भी अपने समर्थकों को नहीं बताते.

किशनगंज की कई पुरानी वास्तविक शिकायतें हैं: इसके ऐतिहासिक पिछड़ेपन और गरीबी पर राज्य और राजनेताओं द्वारा ध्यान नहीं दिया गया है। कई बार हाई प्रोफाइल बाहरी लोगों ने इसका प्रतिनिधित्व किया, जिनमें पत्रकार एमजे अकबर और राजनयिक राजनीतिज्ञ सैयद शहाबुद्दीन (1935-2017), और भाजपा के शाहनवाज हुसैन शामिल हैं।

अब, किशनगंज में एक सुरजापुरी (संख्यात्मक रूप से मज़बूत भाषाई समुदाय) उम्मीदवार के लिए मजबूत स्थानीय भावना है।

पीड़ित और बहुत ही कम शिक्षित मध्यम वर्ग सुरजापूरी सोशल मीडिया पर किशनगंज की शिक्षा, स्वास्थ्य की कमी और अन्य विकासात्मक मुद्दों की बात कर रहे हैं। राजनीतिक संरचनाओं के साथ उनका मोहभंग सही और स्पष्ट है।

हिंदू दक्षिणपंथी के डरावने उत्थान, और ‘धर्मनिरपेक्ष’ ताकतों (राष्ट्रीय और क्षेत्रीय) द्वारा मुसलमानों को उनके भाग्य पर छोड़ देने के साथ, ओवैसी की मुखरता (एक नपी तुली संवैधानिक भाषा में, संसद के अंदर और टेलीविजन समाचार चैनलों पर) इस क्षेत्र के निराश, असहाय, निराश और तंग आए हुए, लेकिन आकांक्षापूर्ण मुस्लिम युवा के बीच जगह पा रही है।

सार्वजनिक रैलियों में, ओवैसी, हालांकि भीड़ को भड़काने वाले ही राजनेता की तरह साबित होते हैं। वह कभी भी मुसलमानों के बीच जाति की बात नहीं करते। लिंग के सवाल पर, वह स्पष्ट रूप से उन महिला-द्वेषी मुल्लाओं की तरफ ही हो जाते हैं जो तत्काल ट्रिपल तलाक के साथ अब तक अडिग हैं। फरवरी 2018 में, वह मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड प्लेनरी के मेजबान थे, जिसने अपने वादे के बावजूद अब तक मॉडल निकाहनामा नहीं लाया है।

इनका बिहार का चेहरा, अख्तरुल ईमान साफ़ (सुसंस्कृत) उर्दू बोलने में माहिर हैं। वे (किशनगंज के) कोचाधामन से दो बार (2005 और 2010 में) विधायक रहे। वह पहले राजद, फिर जद-यू (2014 का लोक सभा जिसमें वह हार गए) और फिर एआईएमआईएम में आए जिसके चिन्ह पर वह 2015 का विधान सभा चुनाव हार गए।

चूंकि एआईएमआईएम एक मुस्लिम-विशेष पार्टी है, इसलिए ऐसा हो सकता है कि किशनगंज के हिंदू अल्पसंख्यक या तो जेडीयू उम्मीदवार महमूद अशरफ के लिए या कांग्रेस उम्मीदवार जावेद आजाद के लिए वोट करेंगे। कहा जाता है कि अशरफ अपना उप-संप्रदाय (मसलकी) कार्ड खेल रहे हैं। वह खुद को बरेलवी के रूप में पेश करते हैं जोकि देवबंदी संप्रदाय (बरेलवी संभवतः किशनगंज में देवबंदियों से अधिक हैं) के लिए नापसंदीदा है। दूसरी तरफ आजाद (किशनगंज) से मौजूदा विधायक हैं। उनके दिवंगत पिता कई साल पहले बिहार में मंत्री थे।



यह बिहार के पूर्वी छोर में है, जहां “मुस्लिम-विशेष” एएमआईएम मुसलमानों के एक वर्ग का विकल्प हो सकता है।

गहराता बहुसंख्यकवाद

बिहार के पश्चिमी छोर में, आरा चुनाव-देखने वालों के लिए कुछ विपरीत तस्वीर पेश कर रहा है।

इस सीट पर नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल के केंद्रीय मंत्री भाजपा के राज कुमार सिंह चुनाव लड़ रहे हैं। महागठबंधन उम्मीदवार के रूप में सीपीआई-एमएल के राजू यादव (छात्र-युवा आंदोलनों की उपज) का उनसे मुकाबला होगा। राज ने भारत के गृह सचिव के रूप में तब ख्याति अर्जित की थी जब उन्होंने कुछ हिंदू चरमपंथियों के आतंकवादी कृत्यों का भंडाफोड़ किया था। विडंबना यह कि सेवाओं से सेवानिवृत्त होने के बाद, वह भाजपा में शामिल हो गए।

पूरे बिहार में, विशेष रूप से आरा में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता जड़ फैला रही है। भगवा संगठन दलितों और मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक तनाव को भड़काने के बहाने ‘कलश यात्रा’ (जुलूस जिसमें दलित परिवारों की युवा लड़कियों को चुनरी (स्कार्फ) पहनाते हैं और उनके सिर पर कलश (धार्मिक कलश) ले जाते हैं) का आयोजन कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र, गोरखपुर से सटे सारण के राजपूत बहुल गाँवों में हिंदू युवा वाहिनी का विस्तार तो हो ही रहा है इसके साथ ही एक और गतिवधि ‘शिव चर्चा’ अप्रत्यक्ष रूप से बहुजन महिलाओं को सांप्रदायिक बना रही है।

6 नवंबर, 2017 को, कोइलवर ब्लॉक के बहियारा गाँव में ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ (आरएसएस विद्यालयों की श्रंखला) में गार्ड ने शौच के लिए गई एक दलित लड़की से बलात्कार करने का प्रयास किया। उसने लड़की को गोली मारकर घायल कर दिया। बाद में, गार्ड ने मौके पर पहुंची लड़की के चाचा और बड़ी बहन की राइफल के बट से पिटाई भी की।

Shiv Charcha
शिव चर्चा में जमा महिलाएं (साभार: दैनिक जागरण)

इस स्कूल के मालिक भाजपा के अरबपति राज्यसभा सांसद रवींद्र किशोर सिन्हा हैं और कथित रूप से इन्होंने दलितों को आवंटित सरकारी भूमि पर जबरन कब्जा कर लिया है। आरके सिन्हा का नाम पैराडाइज पेपर्स लीक में भी आया था। मोहन भागवत की आरा यात्रा के दौरान, आरएसएस प्रमुख सिन्हा के घर पर ही रुके थे।

सहार के जोगा खारिचा गांव में राजपूत जाति के एक बदमाश ने दलित बालिका से बलात्कार करने का भी प्रयास किया था। 17 जनवरी 2018 को, सामंती अपराधियों ने शाहपुर के करनामेपुर में अखबार विक्रेता योगेंद्र प्रसाद तटवान की गोली मारकर हत्या कर दी। उसके चचेरे भाई की भी अक्टूबर 2017 में हत्या कर दी गई।

सीपीआई-एमएल का दावा है कि कई कठिनाइयों के साथ इस तरह के सभी सांप्रदायिक और सामंती-आपराधिक ताकतों से यह लड़ रही है। आरा में, यह हिंदू सांप्रदायिकता और अपराधियों, दलितों के खिलाफ उच्च जातिगत सामंती अत्याचार के खिलाफ लड़ रही है; सीवान में भाकपा-माले (महागठबंधन से बाहर) एक दोषी गैंगस्टर के ढहते साम्राज्य की सुरक्षा में लगी मुस्लिम सांप्रदायिकता के खिलाफ कमरबंद है।

बिहार के बाकी हिस्सों के जितना ही बिहार के दो भौगोलिक (तथा वैचारिक) हिस्सों – बिहार के पश्चिमी और पूर्वी इलाकों के चुनावी नतीजों को देखना दिलचस्प होगा। हालांकि यह स्पष्ट है कि भारत के कुछ अन्य हिस्सों की तरह ही, बिहार भी अपराध, जाति और सांप्रदायिकता के गठजोड़ का सामना करता रहा है।

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं. ये Muslim Politics in Bihar: Changing Contours (Routledge) के लेखक हैं. यह आलेख फर्स्टपोस्ट  में मूलतः अंग्रेजी में छपा है जिसका द मॉर्निंग क्रॉनिकल ने अनुमति लेकर हिंदी में अनुवाद कर प्रकाशित किया है.)

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