
-मोहम्मद मंसूर आलम
1987 के हाशिमपुरा जनसंहार काण्ड की याद आज भी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का दिल दहला देती है. कईयों के आँखों के आंसू अब भी नहीं सूखे हैं. कुछ के अपने जो रमजान के आखिरी शुक्रवार की रात को बिछड़े तो कभी एक नहीं हुए. उस दिन कईयों के बेटे की बली ली गयी तो कईयों के सुहाग भी उजड़े. गांधी के सिद्धांतों पर चलने वाली पार्टी कांग्रेस उस समय केंद्र में थी और उत्तर प्रदेश में भी उसी का शासन था. राजीव गांधी उस समय देश के प्रधानमंत्री थे और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के ही मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह थे. सरदार बूटा सिंह इस समय देश के गृह मंत्री और आंतरिक सुरक्षा के राज्य मंत्री (गृह राज्य मंत्री) पी चिदम्बरम थे.
हाशिमपुरा और मलियाना जनसंहार काण्ड
मेरठ में सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला अप्रैल 1987 में शुरू हुआ था जो तक़रीबन तीन माह तक चला. उस दौरान आपसी दंगों में क़रीब सौ लोग मारे गए थे. लेकिन दिल दहला देने वाला जनसंहार शहर के हाशिमपुरा और नज़दीक के एक गांव मलियाना में 22 और 23 मई 1987 को हुआ जिसमें तक़रीबन सवा सौ बेगुनाह मुसलमानों को जो ज़्यादातर नौजवान थे पुलिस और पीएसी की गोलियों से भून दिया गया.
22 मई,1987 की रात, पीएसी (प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी) अपने पलटन कमांडर सुरिंदर पाल सिंह के साथ मेरठ के हाशिमपुरा में आए और सभी लोगों को घर से बाहर आने को कहा. हाशिमपुरा में हिन्दू मुस्लिम साथ रहते थे. घोषणा सुनने के बाद हिन्दू और मुसलमान सब बाहर आए. फिर एक घोषणा हुई और हिन्दुओं को अंदर जाने को कहा गया फिर औरतों और बच्चों को भी जाने को कह दिया गया. उसके बाद बचे 47 लोगों को (कुछ लोग 44 या 45 कहते हैं) जिनकी आयु 15 से 35 थी को एक ट्रक में चढ़ने को कहा गया. ट्रक को पुलिस स्टेशन ले जाने के बजाए गाज़ियाबाद के मुराद नगर के गंग नहर ले जाया गया जहाँ बारी बारी से एक एक को गोली मारी गयी और पानी में उन्हें फेक दिया गया. 47 में मुजीबुर्रहमान, ज़ुल्फ़िकार नासिर, नईम आरिफ़ और बदरुद्दीन अंसारी को पीएसी ने मरा हुआ समझ कर उसी पानी में फ़ेंक दिया. इनमें से एक बदरुद्दीन अंसारी को गाज़ियाबाद के तत्कालीन एसपी विभूति नारायण राय ने बचाया और अस्पताल ले गए. विभूति नारायण राय के आदेश पर गाज़ियाबाद के लिंक रोड थाने में पीएसी के विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज किया गया.
इस पूरे काण्ड को अंजाम देने में सेना पर भी आरोप है. आरोप है कि पीएसी ने उन नौजवानों को सेना की निगरानी में ही गिरफ्तार किया था. सेना जनसंहार की भागी है या नहीं यह सुनिश्चित नहीं.
न्यायिक प्रक्रिया
घटना के दो दिन बाद 24 मई को मामले की जांच सीबीसीआईडी को सौंप दी गई थी. 7 साल बाद फरवरी 1994 में सीबीसीआईडी ने विस्तृत रिपोर्ट जमा किया जिसमें 666 पीएसी के जवानो पर दोष आरोपित किया गया जिसमें विभिन्न रैंक के अधिकारी शामिल थे. 15 फ़रवरी, 1995 को मेरठ के जमालुदीन और अन्य ने इलाहाबाद के लखनऊ बेंच के समक्ष याचिका दायर किया और इसमें न्यायलाय से आग्रह किया कि रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए, इन सब को सज़ा दी जाए और पीडितों को उचित मुआवज़ा दिया जाए. लेकिन 20 मई 1996 को उत्तर प्रदेश की राष्ट्रपति शासित सरकार ने केवल 19 लोगों के विरुद्ध ही मुक़दमा दायर किया जिनमें सभी निचले रैंक के थे.
इनके विरुद्ध मुक़दमा होने के बावजूद इन 19 लोगों को न कभी गिरफ्तार किया गया और न ही इन्हें निष्कासित किया गया. ये मुक़दमा चलने के बावजूद अपने पदों पर बने रहे. इन पर मुक़दमें की सुनवाई 13 साल बाद गाज़ियाबाद की एक अदालत में साल 2000 में शुरू हुआ. इस पूरी अदालती प्रक्रिया को शुरू करने में ही पूरी व्यवस्था को 13 साल लग गए.
बाद में, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मामले को 2002 में दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में ट्रांसफ़र कर दिया गया. चार साल बाद 2006 में आरोप तय हुए. अभियोजन पक्ष की ओर से 91 लोगों की गवाही हुई.
आरोप तय होने के नौ साल बाद 2015 में यह सब बरी हो गए. अपने फ़ैसले में एडिशनल सेशन जज संजय जिंदल ने कहा कि यह बहुत तकलीफ़देह है कि कुछ निर्दोष लोगों को इतनी यंत्रणा झेलनी पड़ी और एक सरकारी एजेंसी ने उनकी जानें लीं.
जज ने फ़ैसले में कहा, “लेकिन जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष दोषियों की पहचान को साबित करने लायक सबूत पेश करने में नाकाम रहा. इसलिए मौजूदा परिस्थितियों में सभी 16 अभियुक्तों को उन पर लगाए सभी आरोपों से बरी किया जाता है.” गौरतलब रहे कि तब तक आरोपियों में से तीन की मृत्यु हो चुकी थी.
इन 19 लोगों को वह सब मिला जो सरकारी नौकरी में रहते हुए सरकारी कर्मचारियों को मिलता है. सबके सब सही समय पर रिटायर हुए, सेवानिवृत्ति उपरांत की सुविधाएं मिलीं और पेंशन भी मिलता रहा.
तक़रीबन साढ़े 31 साल बाद इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 31 अक्टूबर को 16 पीएसी वालों को दोषी मानकर आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई. अभी सर्वोच्य न्यायालय बाक़ी है.
हाशिमपुरा के मामले में तो फिर भी देर से ही सही 16 लोगों को सज़ा सुना दी गयी लेकिन वहीँ पास के मलियाना में हुए जनसंहार की अभी तक अदालती कार्यवाही भी नहीं शुरू हुई जो इस जनसंहार के ठीक एक दिन बाद हुआ जिसमें कथित तौर पर 72 मुसलमानों को पीएसी की एक प्लाटून ने गोली मारकर एक कुएं में दफना दिया था.
जनसंहार के असली नायक विभूति नारायण राय
हाशिमपुरा जनसंहार काण्ड का सच कभी सामने नहीं आता अगर गाज़ियाबाद के तत्कालीन एसपी विभूति नारायण राय नहीं होते. विभूति नारायण राय ने बदरुद्दीन अंसारी जो पीएससी की गोली खा कर बच गए थे को बचाकर पीएसी के विरुद्ध लिंक रोड थाना में रिपोर्ट दर्ज करवाई थी.
अंसारी का मानना है कि ईश्वर ने उन्हें इसलिए जिंदा रखा ताकि रमज़ान के उस शुक्रवार को क्या हुआ था दुनिया को बता सकें. मैं इसी की प्रतीक्षा में था कि क्या मैंने वह काम कर दिया. आज मुझे इसका उत्तर मिल गया. अंसारी ने यह बात तब कही जब दिल्ली उच्च न्यायलय ने जनसंहार के ज़िम्मेदार उन पीएसी जवानों को आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी है.
बदरुद्दीन अंसारी की आयु अब 48 साल के आस पास है. हाशिमपुरा काण्ड के दिन उनकी आयु 17 साल थी. वह बिहार के दरभंगा ज़िला के रहने वाले हैं और मेरठ में बुनाई का काम करते थे. अंसारी भी इस काण्ड के हीरो हैं.
विभूति नारायण राय के अलावा इस काण्ड को सज़ा के अंजाम तक पहुँचाने में अंसारी जैसे लोगों का हाथ भी रहा जो इस जनसंहार में बच गए और केस लड़ते रहे. इसमें पीयुसीएल जैसी संस्थाओं का भी योगदान रहा जिन्होंने पीडितों को न्याय पाने में मदद की. इसमें सय्यद शहाबुद्दीन, डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे लोग भी नायक के तौर पर रहे. सैयद शहाबुद्दीन के बारे में हाल ही में एक साक्षात्कार में डॉ स्वामी ने कहा कि इस मामले को लेकर वही मेरे पास आए. जब वह मेरे पास आए थे तो उनके आँखों में आंसू थे. डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी इस काण्ड को लेकर दिल्ली में भूख हड़ताल पर भी बैठे थे. तब दोनों ही जनता पार्टी में थे. इस काण्ड में नायकों के नाम में निखिल चक्रवर्ती, कुलदीप नैयर, आई. के. गुजराल, राजिंदर सच्चर, सुभद्रा जोशी, और बदरुद्दीन तैयबजी जैसे सरीखे लोगों को इसका नायक माना जा सकता है. प्रवीण जैन जैसे पत्रकार भी इस कोर्ट के निर्णय के नायक हैं जिन्होंने वह तस्वीरें खिंची जिसे हम उस काण्ड के गवाह के रूप में अभी भी संजोय हुए हैं.
हाशिमपुरा जनसंहार काण्ड के खलनायक कौन?
वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता असगर अली इंजिनियर ने हाशिमपुरा पर 1987 में अपनी एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इस रिपोर्ट में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर इस पूरे कांड के पीछे कांग्रेस नेतृत्व को दोषी माना गया था. इस रिपोर्ट में उनहोंने लिखा है कि गृह मंत्री बूटा सिंह, गृह राज्य मंत्री पी. चिदंबरम, शहरी विकास मंत्री और मेरठ की एमपी मोहसिना किदवई, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह, उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री गोपी नाथ दीक्षित और पुलिस महानिदेशक एस के भटनागर शहर में मौजूद थे जब यह दंगे हो रहे थे और आश्चर्य की बात है कि उनकी मौजूदगी में दंगे और बढ़ रहे थे और वह इसे रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहे.
इस रिपोर्ट में असगर अली इंजिनियर ने लिखा है कि चिदंबरम दंगे के तीसरे दिन ही मेरठ पहुँच चुके थे और दो बार शहर का दौरा करने के बाद भी केंद्र को दंगे का स्पष्ट आकलन पेश नहीं कर पाए. न ही वह दंगे का आशय बता पाए और और न ही यह कि दंगे को रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए. इस रिपोर्ट के अनुसार, बूटा सिंह दंगे के पांचवे दिन मेरठ पहुँच गए थे और स्थानीय अधिकारियों के कहने के बावजूद उनहोंने शहर को सेना को नहीं सौंपा. बल्कि जिस दिन उनहोंने प्रेस को यह बताया कि मेरठ अब नियंत्रण में है उसके ठीक दुसरे दिन ही मलियाना जनसंहार हुआ.
मोहसिना किदवई जो मेरठ की एम पी और केन्द्रीय मंत्री थीं, रिपोर्ट के अनुसार खुद वहां विरोध की शिकार हो गईं. किदवई को अन्य हिन्दू नेताओं और उनकी पार्टी के कई हिन्दू नेताओं ने ही यह धमकी दी कि अगर किदवई कर्फ्यू ग्रस्त इलाकों का दौरा करती हैं तो दंगे बढ़ सकते हैं. उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों ने चिदंबरम और वीर बहादुर सिंह की मौजूदगी में उनके साथ गाली गलौज भी की. उसके बाद किदवई, इस पूरी प्रक्रिया से अलग कर दी गईं और उनहोंने केंद्र और स्थानीय प्रतिनिधियों के बीच की बैठकों से भी खुद को अलग कर लिया.
सुब्रह्मण्यम स्वामी हाल में एक साक्षात्कार में कहते हैं कि इन सबके असली खलनायक चिदंबरम थे. वह मुसलामानों को सबक सिखाना चाहते थे और इसलिए उनकी ओर से दंगे की खुली छूट थी. स्वामी ने मुलायम सिंह यादव पर भी आरोप लगाया है कि उनहोंने भी पीएसी के जवानों को एक तरह से पूरा संरक्षण दिया क्योंकि उनमें बहुत सारे यादव थे.
उत्तर प्रदेश स्थित मानवाधिकार संगठन रिहाई मंच के राजीव यादव ने भी द मॉर्निंग क्रॉनिकल के साथ बात-चीत में कहा है कि इसकी ज़िम्मेदार कांग्रेस ही है. उनहोंने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अपने पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान हुए जनसंहार की जिम्मेदारी लेते हुए यह सार्वजनिक करना चाहिए कि किन लोगों के दबाव में कांग्रेस सरकार ने बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की हत्या करवाई। उनहोंने सपा सुप्रिमो अखिलेश और बसपा सुप्रिमो मायावती से भी जवाब माँगा है कि उनके कार्यकाल में साक्ष्यों को क्यों मिटा दिया गया।
इन सबके साथ साथ पूरी न्यायिक व्यवस्था भी खलनायक की भूमिका में ही रही. दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में आखिर कौन सा प्रमाण नहीं मिला जिससे कि उन्हें बरी कर दिया गया और आज कौन से अतिरिक्त साक्ष्य के आधार पर उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी. प्रश्न तो बनता है.
(ये लेखक के अपने विचार हैं.)