आखिर यह सब कैसे हुआ? : कर्नल की डायरी, पन्ना 7




वह एक निर्णायक रात थी. अंग्रेज़ों का डर और आतंक ख़त्म करने के लिए नेताजी ने एक योजना बनाया था. अब तक वह इस योजना का खाका बना चुके थे. इस खाके के अनुसार उन्होंने हमें अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध अपनी सैनिक रणनीति को विस्तार से समझाया और फिर उसे अंजाम देने का वह खतरनाक काम मुझे और कर्नल रतुरी को सौंपा. यह काम उसी रात ख़तम करने का आदेश मिला था, (गुस्ताख़ी माफ़, मैं आज भी अपने वादे पर क़ायम हूँ उस रात के मंसूबे की तफसील न देने पर) नेताजी के आदेश पर मैं कर्नल रतुरी के साथ उस समय अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ा. वह काफी खौफ़नाक रात और खौफ़नाक होती जा रही थी और हम लोग अपनी योजना को कार्यान्वित करने के लिए बेक़रार हो रहे थे.


उस रात अपने मंसूबे को पूरा करने के बाद, हमें लौटते लौटते सुबह के 5 बज चुके थे. हमें अपनी कामयाबी की रिपोर्ट उसी वक़्त नेताजी को देनी थी. हम ने देखा अपने दफ्तर के बाहर बरामदे में नेताजी उस समय बड़ी बेसब्री से टहल रहे थे. अचानक हम दोनों को देखते ही जैसे उनकी बेचैनी को कोई रास्ता मिल गया था. उनके चेहरे का तनाव कम हो गया था. उनके हाव-भाव में संतुष्टि नज़र आने लगा था. बड़ी बे करारी से पूछा था, “क्या हुआ?” हमने अपनी कामयाबी का विवरण पेश करते हुए नेताजी को इत्मीनान दिलाया कि हम इस इम्तहान में खरे उतरे हैं. नेताजी का दिल ख़ुशी और जज़्बात से लबरेज़ हो गया था. हम दोनों को गले से लगाते हुए उनहोंने कहा था “तुम दोनों के जाने के बाद मैं सो नहीं सका”. तुम्हारी चिंता हर पल मुझे बेचैन किए रही. लग रहा था तुम दोनों को कहीं कुछ हो न जाए.”

नेताजी की इस बेचैनी और उदारता ने हम दोनों को शर्मिंदा कर दिया था. हमारे लिए उनका इस तरह से चिंता करना हमलोगों से गहरे दिली लगाव की निशानदही कर रहे थे और उनके ऐसे ही ख्यालात “आज़ाद हिन्द फ़ौज” के हर सिपाही के लिए समान थे. हर समय जान की कुर्बानी देने वाले हर फौजी की जान की कितनी कीमत होती है यह इस दिन मुझे मालूम हुआ था और मुझे लगा था नेताजी अपने सिद्धांतों में एक सख्त किस्म के फौजी होने के साथ साथ अपने सीने में धरकता हुआ एक दर्दमंद दिल भी रखते थे. वह एक ही समय में माँ, बाप, भाई, बहन और दोस्त सभी कुछ थे. भला ऐसे वफ़ादार, आदमी की पहचान समझने वाले और अत्यंत प्रिय इंसान के निर्देश और इशारे पर अपनी जान तक न्योछावर कर देने के जज़्बे हमारे दिलों में क्यों नहीं हिचकोले मारते? मतलब यह कि सभी सुभाष चन्द्र बोस की उच्च कोटि की शख्सियत के काएल थे.

1944 के माह अगस्त में ही हमारी फ़ौज के कुछ बहादुर जवान अंग्रेज़ी फ़ौज से लड़ते हुए बुरी तरह ज़ख्मी हो गए थे. उन जवानों को मांडले में “आज़ाद हिन्द फ़ौज” द्वारा स्थापित क्लिनिक में पहुँचाया गया था. इस वक़्त की याद आज भी मेरे दिल में इस तरह घर किए हुए है जैसे यह कल की बात हो. अस्पताल का सारा माहौल ही संजीदा हो उठा था. ज़ख़्मी जवानों में लाल सिंह, राम प्रसाद, मुहम्मद खान, और मेजर आबिद हसन शफरानी के नाम मुझे आज तक याद हैं. यह सभी जवान बड़े जांबाज़ थे. उनकी दिलेरी के कायल आज़ाद हिन्द फ़ौज के डॉक्टर तक थे. अस्पताल के हर कर्मचारी के चेहरे पर छाई हुई मायूसी हमारे जवानों से दिली लगाव, श्रद्धा की ओर संकेत कर रही थी. इन दिलेर जवानों के ज़ख़्मी होने की खबर सुन कर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस मुझे अपने साथ लेकर मांडले रवाना हो गए थे.


मांडले अस्पताल पहुँचते ही नेताजी ज़ख़्मी जवानों से मिलने के लिए बेचैन हो उठे थे. डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें अकेले ही इस वार्ड में पहुँचाया गया जहाँ देश पर क़ुर्बान होने वाले फौजी जीवन मृत्यु की दुविधा में थे. मैं अस्पताल के दरवाज़े पर गुम सुम खड़ा सोच रहा था कि इन बहादुर जवानों को अगर कुछ हो गया तो हमारी फ़ौज का क्या होगा? एक अजीब से शक ने मुझे भयभीत कर दिया था. मैं इसी सोच में पड़ा हुआ था कि नेताजी वार्ड से बरामद हुए थे. मैं उनके साथ हो लिया था. अस्पताल से इस बंगले तक जहाँ उनके ठहरने का इंतजाम किया गया था उसी दौरान मैं ने नेताजी की बेचैनी का बहुत करीब से जाइज़ा लिया था. उनहोंने बहुत उदास लहजे में कहा था “देखो इन जवानों का क्या होता है!”

इस हादसे के दौरान जब मैं बिलकुल सुबह सवेरे इन जवानों को देखने अस्पताल जा रहा था तो हैरत अंगेज़ मंज़र देख कर दंग रह गया. एक पल तक मुझे ऐसा लगा जैसे मैं कोई ख्वाब देख रहा हूँ. लेकिन वह ख्वाब नहीं जिंदा हकीकत थी. मेरी आँखों के सामने ज़ख़्मी जवान राम सिंह मुस्कुरा रहा था. वह इन दोनों के अंदर ही चंगा हो गया था और इस वक्त वह नेताजी से मिलने जा रहा था.

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