
-उदयन रॉय
पटना (बिहार), 26 नवम्बर,2017 | 71 वर्षीय अरुणा रॉय भारत की नामी राजनितिक और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। आप कई वर्षों तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत रहीं। आपने अपनी प्रशासनिक सेवा की नौकरी छोड़कर राजस्थान के निर्धन लोगों के मध्य कार्य करना शुरू किया। आपने भारत में सूचना का अधिकार लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपको आपके कार्य के लिए मैगसेसे पुरस्कार भी मिला। आप मेवाड़ के राजसमन्द जिले में स्थित देवडूंगरी गांव से सम्पूर्ण देश में संचालित मजदूर किसान शक्ति संगठन की संस्थापिका एवं अध्यक्ष हैं। द मॉर्निंग क्रॉनिकल के उदयन रॉय ने आपसे विभिन्न मुद्दों पर बात-चीत की, जिसका प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत है।
उदयन: आपके संगठन और आपके संघर्ष की शुरुआत कैसे हुई, किससे प्ररणा मिली और अभी कहाँ हैं?
अरुणा: जब मैं औपचारिक तरीके से संगठन बनाने के लिए उतरी तब 41 साल की थी और मेरे पास सरकारी और स्वैच्छिक काम दोनों का अनुभव था। उसके पहले मुड़ कर देखें तो आजादी के एक साल पहले जन्म लेने और दिल्ली में पलने बढ़ने की वजह से उस समय की राजनीति को बुद्धि से नहीं तो सुन कर जरूर समझा. गाँधी जी की हत्या, विभाजन, स्वतंत्रता आन्दोलन से सम्बंधित सारी चर्चाएँ पांच-छः सालों तक चलती रहीं। दूसरा महायुद्ध और उससे निकले नतीजे, कोई भी संवेदनशील बच्चा या इंसान उस समय इन बातों से दूर नहीं रह सकता था. उस समय के प्रगतिशील घरों में यह सब एक किस्म के बैकग्राउंड में चलता रहता था. मेरे बचपन में, जवाहर लाल, महात्मा गांधी, अंबेडकर की या फिर भगत सिंह और एम एन रॉय की बातें हों, सभी हमारे घर की आम चर्चा का हिस्सा थीं. अलग अलग किस्म के नेताओं की राजनीति के बारे में बात, वाद-विवाद, बहस, चलती रहती थी. उस माहौल में मेरा जन्म हुआ, और एक तरह से उस पीढ़ी के हम बच्चे हैं और हम लोगों ने बड़ों के साथ उस सपने के रंग देखे हैं और आज भी देख रहे हैं. हमारे जीवन काल में यह एक बड़ा प्रभाव रहा है. एक दो चीजें जल्दी स्पष्ट हो गयी थीं कि घर में बैठना नहीं है, केवल शादी कर के रहना नहीं है. महिला राजनीति और जाति विरोध की राजनीति मेरे घर में बहुत ठोस थी. बराबरी एक मुद्दा बना रहा था मेरे घर में, सरकार में भी आईएएस में गयी तो कामकाज में बराबरी कानूनी तरीके से करनी चाहिए, ऐसी सोच रखती थी. मैं संस्था में गयी क्योंकि सरकार में, ऐसी बराबरी, विकास संबंधी चीजों के अलावा नहीं होती नहीं.
कई तरीके से मैंने दुनिया को समझा. गाँव में रही, वहां लोगों से बात की, मगर फिर कुछ सीमाएं नजर आने लगीं. सरकार के नाराज हो जाने का भय, जो सही भी था, क्योंकि पैसे का स्रोत भी यही था. तो फिर लगा की इनसे हट के काम करना चाहिए. तो फिर संगठनात्मक काम में आयी. एक तरह से परिपक्व थी, लोगों ने मुझे एक चौथी बात बतायी. लोगों के साथ मिल कर राजनीति समझी, गरीबों और वंचितों की राजनीति की जो दुर्दशा है और जो दुर्भाग्यपूर्ण चीजें हैं, इसीलिये हैं क्योंकि हम उनकी सुनते ही नहीं हैं. वो काफी समझदार हैं, काफी परिपक्व हैं, राजनीतिक समझ भी काफी है, इसीलिये जब संगठन बना और
उसमें मैं सक्रिय हुई शंकर और निखिल के साथ, पहले तो तीन साल हम गाँव में रहे मिटटी के घर में. न्यूनतम मजदूरी कहीं न कहीं से कमा लेते थे. और हम लोगों ने वहां पहले तीन साल इसीलिये बिताये ताकि लोगों के साथ मिल कर एक राजनीतिक संगठन बना सकें. यदि वो चाहें तो ठीक नहीं तो हम घर लौटें जाएंगे. इस मानसिकता के साथ गए थे. लेकिन पहले ही साल में हमसे इतने ज्यादा लोगों का जुड़ाव हुआ कि हमें लगा सही रास्ते पर चल रहे हैं। न्यूनतम मजदूरी को ले कर लड़ाईयां हुईं. और ये लड़ाई मैं पहले से लड़ चुकी थी. मेरी एक दोस्त है नौरती बाई, वो दलित हैं और सरपंच भी रह चुकी हैं, काफी समझदार हैं और बहुत बड़ी नेता रह चुकी है, दलित और साथ में महिला नेता भी. उनसे मैंने संगठनात्मक काम सारा सीखा. मैं किताबों और ट्रेड यूनियन से नहीं सीखी. कैसे लोगों को मोबिलाइज करना है, लोगों की क्या प्राथमिकताएं हैं, मुझे लगा ये केंद्र बिंदु हों और उस पर फिर थ्योरी और सब कुछ आये, तो फिर काफी आगे जा सकते हैं. थ्योरी को ले कर उसके इर्द गिर्द मनुष्यों को इकठ्ठा करना बहुत मुश्किल है. उस वजह से संगठन का न्यूनतम मजदूरी का कार्यक्रम तय हुआ. हम लोग सुप्रीम कोर्ट तक गए, एक केस भी जीते. वो सब पृष्ठभूमि में था मगर संगठन में इन मुद्दों को लेकर जमीन के ऊपर सामूहिक हक और न्यूनतम मजदूरी पर छोटे मोटे आन्दोलन, और फिर भारी आन्दोलन हुआ और वहां पर स्थानीय लोग हमारे साथ जुड़ गए. उससे लगा ये मुद्दे सही हैं, संगठन बना, सब को साथ लिया और संगठन का नाम भी लोगों ने मिल कर दिया. यह बना 1990 एक मई को. जबकि हमने काम शुरू किया था 1975 में. इमरजेंसी के पहले से मैं काम छोड़ दी थी, 1980 में मैं शंकर से मिली और 1983 में निखिल से मिली. हम तीनों का एक ही सपना था. हम तीनों शंकर के गाँव में गए, देव डूंगरी और वहीं रहे. मैं सत्रह साल वहीं रही थी, बाहर नहीं निकली थी. मेरे जीवन के सबसे सुन्दर दिन वही लगते हैं.
उदयन: आपने जाति वाली राजनीति की बात की थी ? आपकी जब राजनीतिक चेतना आ रही थी, और देश में जाति की राजनीति चाहे लोहियावादी या अम्बेडकरवादी आन्दोलन हों, दोनों फलफूल रहे थे. क्या भारत जैसे जाति-प्रधान देश में जाति को एक सिरे से नकार देना उचित होगा या उसके कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं?
अरुणाः मुझे कभी जाति में कोई सकारात्मक चीज तो नहीं दिखती, मगर मनुष्य हैं. एक थ्योरी होती है, एक इंसान होता है. मनुष्य को अपनी समझ के साथ चल कर उन्हें आगे की मोड़ और दिशा देनी चाहिए. उनके पास आकर थ्योरी बता दें, कुछ तथ्य या आंकड़े बता दें तो उनके पल्ले नहीं पड़ता. समझ में नहीं आता तो राजनीति से ऊपर उठने के लिए जितना काम हुआ, उतना राजनेताओं ने पीछे ठेल दिया, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा जो मुझे अन्धकार दिखता है, वो है जब जाति को एक लोकतान्त्रिक वोट-ढांचे में जोड़ दिया है. जब आपने आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को इस तरीके से जोड़ दिया फिर जितनी प्रगतिशील बातें संविधान में हैं, या हमारे अंबेडकर, लोहिया या गाँधी, सभी ने उनकी सीमा के अन्दर योगदान किया है. सभी की बातों को लेकर हम एक बहुत शानदार भारत को रच सकते थे. मगर जो पिछले तीन चार साल में हुआ है, वो और भी खराब है. क्योंकि ना केवल जाति, बल्कि जाति के जो गोत्र हैं उनके ऊपर भी चर्चा शुरू हो गई है. अब ग्राम सभाओं में भी ऐसी बातें शुरू हो गयी हैं. हमारी महारानी साहिबा राजस्थान की मुख्यमन्त्री, अजमेर के एक बाय-इलेक्शन के दौरे में हैं. वो पब्लिक मीटिंग बहुत कम कर रही हैं, वो सीधे सीधे एक-एक जाति और गोत्र को लेके बैठ रही हैं. और बिलकुल निम्नतर मानसिकता बना दी है. मैं गाँव की एक मीटिंग में गयी, जहाँ वोटर हूँ, वहां के एक स्कूल में बहुत कमियां हो गयीं तो कुछ पैसे उगाने चाहे. हमने कहा पैसा इकठ्ठा करिए, वार्ड के आधार पर, तो वो बोले नहीं जी ये लोगों के पल्ले नहीं पड़ेगा, गोत्र के आधार पर पैसे इकठ्ठा कीजिये. जाति भी नहीं गोत्र के नाम पर इसी से जिम्मेदारी फिक्स हो सकती है. इन सबसे बहुत धक्का लगता है. मैं हैरान रह गयी. गाँव के सरपंच के साथ चैपाल पर बैठ के बात की, सरपंच खुद कह रहा था आप जाति के आधार पर करो. न कोई राडार सेंसेक्स होता है, न दिल्ली में चर्चा होती है, मुझे गाँव की बातें ही सच्चाई बताती हैं. एक बहुत बड़ा चैलेंज है इसके नेगेटिव इम्पैक्ट को कम करने का. अंबेडकर साहेब ने बिलकुल सही कहा था, इंटर कास्ट मैरिज, या डाइवोर्स, काफी नहीं, जाति प्रथा तभी खत्म होगी जब जातिगत पहचान खत्म होगी. वो तभी संभव है जब लव जिहाद और खाप पंचायत जैसे कांसेप्ट को समझेंगे. यदि आम इंडियन पूरे पोलिटिकल डिबेट और डिस्कोर्स को नहीं समझे और उस पर अपनी सोच और मानस नहीं बनाए, तो हम अपने मुद्दों के लिए तो लड़ते रहेंगे, और बड़े मुद्दों में हम खो बैठेंगे. ऐसे केसेज में समझ चलती रही, इसीलिये सूचना का अधिकार हमारे लिए बहुत बड़ा आन्दोलन था. उसमें हमने इन सभी को पूरे फैब्रिक ऑफ डेमोक्रेसी को लेते हुए, गरीबों से शुरू करते हुए, काम किया. जो सबसे गरीब थे और न्यूनतम मजदूरी नहीं पाते थे, उन्होंने रिकॉर्ड मांगे लेकिन नहीं दिखाए गाये. तो क्यूं नहीं दिखाए ? बड़े लॉजिक से गए हम लोग, रिकॉर्ड नहीं दिखाए क्यूंकि ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट है. नहीं दिखाया क्यूंकि चोरी हुई। तो कागज बाहर निकालो. एक एक कड़ी पे हम लोग छः छः आठ आठ महीने प्रयास संघर्ष लड़ाई झगडा करते हुए अगले स्टेप में गए. तो ये जो लॉजिकल समझ और चेतना है, बहुत जरूरी है. हमारे आन्दोलन में भी ये संपदा हमे बिलकुल साफ साफ स्थापित नहीं है. हम थ्योरी में खूब चले जाते हैं, उसको प्रैक्टिस में कम करते हैं
उदयन: राजनीति जाति का दुरुपयोग कर रही है। जाति के सवाल का जाति मुक्त भारत के लिए, गैर राजनीतिक हल क्या हो सकता है?
अरुणा: हमें जाति की कुरीतियों के खिलाफ लड़ना चाहिए. मगर जिस समय हम चवसंतपेमक होते हैं हम भी ब्राह्मण के जैसे बनना चाहते हैं। इसमें वो भाग नहीं ले सकते, वो नहीं कर सकते, हम ही करेंगे। जैसे ब्राह्मण हैं वैसे हम भी बनेंगे। वो बीमारी हम ही फैलाते हैं। जितना लचीले हो सकते हैं, जितना बाउंड्री फैला सकते हैं, जितना ज्यादा लोगों को साथ लेकर चल सकते हैं, वो करना चाहिए। सही है ऐतिहासिक गलतियों को सही करने को बहुत कुछ करना होगा। जन संगठनों को चर्चा करनी चाहिए बिना डरे। हम लोग समझते हैं कुछ हो जाएगा इसीलिये नहीं करते. एक एक मुद्दे को लेकर झगड़ते हैं, एक एक मुद्दे के इर्द गिर्द क्या है ये नहीं देखते। हमें एक मुद्दे को प्रथम रूप से ले के लड़ना पड़ेगा, और सभी चीजों का निवारण करना पड़ेगा। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, हमारी पोलिटिकल स्ट्रेटेजी हमारे सोच, हमारी थ्योरी, हमारे वैकल्पिक नजरिए में हम बहुत सीमित दायरे के अन्दर में रह जाते हैं। इसीलिये पोलिटिकल पार्टी वाले हमें सिंगल इशू वाले कह कर खारिज कर देते हैं। अब हम सिंगल इशू वाले नहीं रह सकते हैं।
उदयन: देश में अभी छात्र, मजदूर, किसान, वर्किंग क्लास, सभी अलग अलग स्तर पर आन्दोलन चला रहे हैं। अलग अलग किस्म के आन्दोलन जैसे उत्तर भारत और दक्षिण भारत के किसान आन्दोलन में फर्क होगा, पश्चिम भारत और पूर्वी भारत के एक छात्र आन्दोलन में फर्क होगा, क्या इन सबको राष्ट्रीय हित में एक कॉमन कॉज के जरिये एक कॉमन प्लेटफार्म पर लाया जा सकता है?
अरुणा: कोशिश तो हो रही है, और पिछले महीने मावलंकर हाल में एक मीटिंग हुई थी, सीपीआई और लेफ्ट पार्टीज के समन्वय में प्रोग्रेसिव राजनीतिक दल और जन संगठनों को साथ लेकर। उसमें और कई किसान संगठन भी थे। सब ने एक मंच से काम करने की बात की है। प्रयास तो बहुत जगह हो रहे हैं, हमें छोटी मोटी चीजों में अलग नहीं होना चाहिए, एक साथ रहना चाहिए। अभी भारत में जो फासीवाद का उभार है, उनके समर्थक (कुछ खुलके और कुछ गुप्त रूप से) ये तर्क दे रहे हैं कि जल्दी से जल्दी आर्थिक तरक्की के लिए ये जरूरी है। यानी बाजारवाद और फासीवाद मिलकर तेजी से आर्थिक प्रगति लायेंगे. आपके विचार देखिये अभी तथ्य ये है कि तीन सालों में ग्रोथ कम हुई है
उदयन: वो कहेंगे कि ये शार्ट टर्म फेज है
अरुणा: नहीं हम तो कहेंगे हां आज खायेंगे, कल देखेंगे. आज तो यही हुआ है दूसरा ये भी देखना है कि अगर सिंगल लीडर चाहिए तो इलेक्शन का ढोंग क्यूं ? बंद कर दो इलेक्शन। इलेक्शन तो सिंगल लीडर के जगह एक समूह चुनना है। सब तरह की सोच को समाहित करना, सभी को लेके चलना होता है. क्या आप सोचते हैं दिल्ली में बैठे बैठे, आप दक्षिण, पूरब, कश्मीर, बिहार और सबके लिए सोच लेंगे? अभी जो राज्य का कांसेप्ट है और भी सिकुड़ गया है. इसमें जो विभिन्नता थी, वो भी खतम हो गयी है. हमें इसको आगे बढ़ाना चाहिए, कि फासीवाद से नुकसान क्या है. आंबेडकर को कोट करें हमलोग, उन्होंने यही कहा था, ‘महात्मा तो….मतलब एक सिंगल लीडर’ के लिए राजनीति में जगह नहीं है. उसको नकारना चाहिए. हमको कहना है मुद्दे बताओ, हमें लीडर नहीं चाहिए, मुद्दे चाहिए, जिसको वहां बैठाओगे, उससे हम काम करवाएंगे, और आपको भी काम करवाना पड़ेगा
उदयन: अभी वर्तमान में भारत में कोई आदर्श मॉडल हो सकता है, इकॉनौमी या डेवलपमेंट का?
अरुणा: जब आप मॉडल की बात करते हो तो मुझे डर लगता है, क्योंकि इकॉनौमी का मॉडल ही तो हमें दबा रहा है वो प्लूरैलिटी के लिए जगह नहीं दे रहा न. तो हमें मॉडल नहीं कुछ आधार चाहिए, कुछ व्यवस्था चाहिए, रणनीति या तरीके चाहिए. उस पे ही बात करेंगे. मॉडल की बात करनी ही नहीं चाहिए. आज हम लोगों पे वही मॉडल थोपा जा रहा, उसी की प्रतिक्रिया में हम खड़े हैं आज. वो मॉडल्स क्यूं कोई एक जना ही देखे, मैं क्यूं देखूं मॉडल को ?
उदयन: अभी देश में युवा आबादी है उनको एक ख़ास वर्ग के खिलाफ देशप्रेम के चोले में ब्रेनवाश किया जा रहा है। इससे देश को कितना खतरा है?
अरुणा: हमारी गलती है हमने यूथ का राजनितिक रूप से शिक्षित किया ही नहीं. हमने उनको ओपन एंडेड नहीं छोड़ा है. हमने कहा हमारे साथ रहो, या निकल जाओ. अभी ओपन एंडेड नहीं होने से पोलिटिकल एजुकेशन संभव नहीं. कुछ गाँधी के बारे में बात नहीं करते, कुछ मार्क्स के बारे में बात नहीं करते, कुछ और कुछ और के बारे में बात नहीं करते. हमें सबके बारे में बात करना चाहिए. समझने के लिए कि एक राजनीतिक ढाँचे में जो लोकतंत्र है, अलग अलग विचार के लोग होंगे, और सबको समझने के बाद जो निकलता है, उभरता है, वो हमारे देश के लिए सबसे ठीक है, ये भी नहीं कह सकते कि एक आइडियल यही है. लोकतंत्र तो हमें व्यवहारिकता सिखाता है. व्यवहारिक क्या होगा हमें ये देखना पड़ेगा. कोई कहता है केवल पूँजीवाद चाहिए, वो तो होगा ही नहीं. कोई कहेगा केवल गरीबों के मुद्दे हों, ये भी संभव नहीं, इतनी बड़ी उभरती हुई मिडिल क्लास है हमें समझना पड़ेगा कहाँ किसका महत्व है. और बेसिक जो मूलभूत संवैधानिक अधिकार हैं, उनके बगैर तो हम आगे बढ़ ही नहीं सकते. यूथ का मुद्दा जो है, वो सबसे बड़ा बेरोजगारी का है. कितना प्रॉमिस किया गया, लेकिन कुछ नहीं दिया, आज आन्दोलन यूथ को लेके करना है तो बेरोजगारी को लेके होना चाहिए. आज बैंक जो लोन की बात करता है लेकिन देता कहाँ है? लोग पढ़ते हैं बैंक से लोन लेकर और नौकरी ही नहीं मिलती.
क्या फ्यूचर होगा? हमें तो बहुत डर लगता है, क्योंकि किसानों से भी ज्यादा बुरा हाल छात्रों का होने वाला है. एजुकेटेड हो गए हैं. लोग पढ़ने के लिए लोन लेते हैं. लोन चुकाने के लिए नौकरी चाहिए. सरकार नौकरी नहीं दे रही, ठेके पर रख रही है और उसके नियम बहुत बुरे हैं.
उदयन: आप खुद ब्यूरोक्रेट रही हैं, आपको किस चीज़ ने मोटिवेट किया की आपन उसे छोड़ कर यहाँ आ गईं. अगर अंग्रेजों के जाने के बाद गांधियन मॉडल होता तो उसमें ब्यूरोक्रेसी के लिए जगह नहीं होती. ब्यूरोक्रेसी ने भारत को कितना नुकसान पहुंचाया है, और अभी वो कितना सार्थक या उपयोगी कहा जा सकता है?
अरुणा: मुझे लगता है हमारी गलती है. आप कभी भी कोई सिस्टम चलाएंगे, उसका व्यवस्थापक तो होता है. तो ब्यूरोक्रेसी एक व्यवस्थापक है. हमने ये तय किया है. हमारी गलती है. मैं एक डांसर, सिंगर, टीचर, फिजिसिस्ट, शोधक , संगीतकार से ज्यादा हूँ क्या ? इतना वजन क्यों देते हैं बयूरोक्रेट्स को। संवैधानिक पावर्स भी तो दिए हैं हमारे दिमाग में कीड़े हैं, हमने पॉवर दिए हैं. छीन लेते तो क्या हो जाता ? हम ना तो एकाउंटेबिलिटी की बात कर रहे हैं ना तो एकाउंटेबिलिटी संूे लेके आ रहे हैं हम लोग, उसका सिस्टम पार्लियामेंट नहीं चाहती, ब्यूरोक्रेसी नहीं चाहती कोई नहीं चाहता. लेकिन हम एक ब्यूरोक्रेसी के बिना देश को चला भी नहीं सकतेइसीलिय े हमारे आन्दोलन के लोग कहते हैं, हमें एक शक्तिशाली सरकार चाहिए, हमें चतपअंजपेम नहीं करना है. ये सरकार कर रही है हम सब कुछ को प्राइवेटाइज कर देंगे, लेट्रल एंट्री कर देंगे. जॉइंट सेक्रेटरी के लेवल पर आने तक पैंतीस साल लगते हैं. इसी लिए इनकी जवाबदेही होती है. कोई पांच साल के लिए आएगा, लूट मचा के चला जाएगा. क्या करेंगे हम ? इसीलिए एक स्थायी नौकरशाही जरूरी है, जिसको पारदर्शी और जवाबदेह दोनों होना है
उदयन: आपने आरटीआई के फाउंडर के रूप में काम किया है, यहाँ ब्यूरोक्रेसी को मैक्सिमम ट्रांसपेरेंसी कैसे दे सकते हैं?
अरुणा: सेक्शन 4 को करवाइए. और एक राइट तो इंस्पेक्ट करने का है जिसको कोई नेम नहीं कर रहा. आप जब पैसे जमा करते हैं, तो फाइल्स देख सकते हैं. दस रुपये जमा कीजिये और फाइल्स इंस्पेक्ट कीजिये, आपके पैसे बचेंगे, और उनको पूरी फाइल दिखानी पड़ेगी। इस जानकारी को निचले लेवल तक ले जाने की जिम्मेदारी किसकी होगी ?
साठ से अस्सी लाख लोग आरटीआई यूज कर रहे हैं। हरेक साल. ये सिविक, सोशल, डेमोक्रेटिक जिम्मेदारी है, सरकार की भी जिम्मेदारी है. जब तक उस पर जोर नहीं डालोगे वो नहीं करेगी. हम अपने लेवल पर करें. मैं जहाँ भी जाती हूँ, एक्टिविस्ट जरूर मिल जाते हैं, और कितने भी नेगेटिव मिलें तब भी छोड़ते नहीं हैं. अभी इस कानून को ही खतम करने का विचार आ गया है, हमें अब तो उसके खिलाफ लड़ना पड़ेगा.
उदयन: ये जो वल्र्ड है, उसमें डेवलपमेंट जरूरी है, भारत के लिए भी, जो यहाँ की परस्थितियाँ हैं, सामाजिक, राजनीतिक, और हमारा जो संविधान है, उसे हम कितना सार्थक कहेंगे, विकास को लाने के लिए. क्या उसमें बड़े बदलावों की जरूरत होगी ?
अरुणा: संविधान में बदलाव की तो कोई जरुरत ही नहीं है. हमारा देश ट्रांसपेरेंसी के बिना पिट रहा है, हमें नहीं चाहिए, अदानी और अम्बानी ने टाटा और बिड़ला की जगह ले ली है. क्या फर्क पडा है अदानी को फाइनेंस कौन कर रहा है. अभी ऑस्ट्रेलिया में अदानी के खिलाफ में एक बहुत बड़ा विरोध हुआ है. ट्विटर हैंडल के साथ चल गया है. हमें रीजनेबल ग्रोथ के बारे में बात करनी है, लोगों को फायदा पहुंचाने वाली ग्रोथ की बात करनी है. लोगों की जमीनें, जंगल, रोजगार, पानी, हक छीन के ग्रोथ किसके लिए है?
इंसान को खतम करके किसका डेवलपमेंट करोगे, अरबपति बनाओगे ? विषमता कितनी बढ़ रही है, अमीर-गरीब का फासला कितना ज्यादा बढ़ा है, अमीरों के हाथ में कितना ज्यादा पैसा आ गया है. और ये गलतफहमी मत पालिए की सिर्फ अमीरों की जमीन जाती है. अभी एअरपोर्ट बना रहे थे, वो अजमेर एअरपोर्ट, किशनगढ़ के पास. लोअर मिडिल क्लास के लोगों के मकान तोड़े गए हैं. कोई डाकिया, कोई सिपाही, कोई किरानी, कोई थानेदार. इनको कौड़ी के भाव मुआवजा देके भगा दिया गया है. ये सब प्लान आयेंगे तो हम सबकी जमीनें जायेंगी, सबको देखना पड़ेगा
उदयन: अरुणाजी, भ्रष्टाचार दो तरह के हैं, एक संस्थागत, दूसरा हमारे समाज में भ्रष्ट लोग भी हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार को स्वीकार्यता मिली हुई है. क्या ज्यादा खतरनाक है?
अरुणा: संस्थागत भ्रष्टाचार व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है. अगर संस्थाएं इमानदार होंगी तो व्यक्तिगत स्तर पर भ्रष्टाचार स्थायी नहीं रहेगा। संस्थाएं कानून और संविधान के तहत बनी हैं, और संविधान का पालन संस्थाओं के लिए जरूरी है। नागरिकों व इन संस्थाओं को कानून का पालन करवाना चाहिए. इसीलिये वो सभी आंदोलनों, संगठनों, बपअपब बॉडीज, को कमजोर कर रहे हैं। इन सबको बरबाद इसलिए कर रहे हैं ताकि सारा पैसा हड़प लें, और भ्रष्टाचार बढ़ाएं, और सब कुछ हमारी गोद में डाल दें. लेकिन ये सब तो हमारी गोद में नहीं आने वाला भ्रष्टाचार तो अमीरों, ताकतवर लोगों और स्टेटस ुनव बनाये रखने वालों तथा सरकार की वजह से है
उदयन: मैं भ्रष्टाचार की स्वीकार्यता के लेवल के बारे में पूछ रहा हूँ।
अरुणा: अगर आपके पास चॉइस नहीं है, तो कैसे करेंगे? ऐसा नहीं है भारत में लड़ने की क्षमता नहीं है. अभी यूरोप में मैंने देखा कैसे हिटलर ने ज्यादतियां की थीं. क्या हम भारत में ऐसी ज्यादतियों की कल्पना कर सकते हैं? वो भी बोलेंगे और साथ में आवाजें भी उठेंगी. आपको अपना मान के बता रही हूँ, आप हम लोगों के संघर्ष करने के क्षमता को कम नहीं आंकें. वो बहुत गहरी है. कभी भी हथियार नहीं डालें. लड़ेंगे जीतेंगे
Yogendra ji is an established organic thinker. A pity we do not have space for thinkers in politics