मज़दूरों की मौत पर जिन्हें तरस नहीं आई, वे हाथी की मौत पर छाती पीटते हैं: डॉ मैनेजर पाण्डेय




कोरोना महामारी व भारत आपदा के दौरान प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय क्या सोच रहे हैं, इस पर यायावर पत्रकार पुष्पराज के साथ साक्षात्कार पढ़िए.

विशेष बातें:

प्रधानमन्त्री के द्वारा घोषित कर्फ्यू का नाम ‘सरकारी कर्फ्यू‘ होना चाहिए था.

4000 वर्षों से इस देश में जात–पात के नाम पर सोशल डिस्टेंसिंग कायम है.

मजदूरों की मौत पर जिन्हें तरस नहीं आती,वे हाथी की मौत पर छाती पीटते हैं

गुजरात से दिल्ली आकर राजनीति करने वाले राजनेता को क्या प्रवासी कहा गया

बोलने के लिए जो बदनाम थे. बदनामी से बचने के लिए उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया.

हमारा संविधान हर नागरिक को विचार की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है. प्रोफ़ेसर साईं बाबा का प्रसंग सरकारी क्रूरता का प्रतीक है.

हिंदी आलोचना के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा के सामानांतर डॉ. नामवर सिंह, डॉ. मैनेजर पाण्डेय को शिखर स्थान प्राप्त है. वर्तमान में मैनेजर पाण्डेय हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ आलोचक हैं. जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली में भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष रहे 79 वर्षीय डॉ. मैनेजर पाण्डेय का जन्म बिहार के गोपालगंज जिला के लोहटी ग्राम में हुआ था. ”साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका”, ”शब्द और साधना”, ”भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा“, “आलोचना में सहमति–असहमति”, ”संवाद और परिसंवाद”, ”साहित्य और इतिहास दृष्टि“, ”आलोचना की सामाजिकता“, ”हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान”, सहित एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकों के लेखक डॉ. पाण्डेय अवकाश उपरांत दिल्ली में निवास करते हैं. कोरोना की महामारी और लॉकडाउन की वजह से उत्पन्न राष्ट्रीय आपदा को वे किस तरह देखते हैं. भारतीय मीडिया ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को इस आपदा काल में ज्यादा महत्व देने के कारण देश की सबसे प्रमुख भाषा (हिंदी) के सबसे बड़े आलोचक से आपदा व त्राहिमाम पर संवाद करना अब तक जरुरी नहीं समझा था.

पुष्पराज – आपने लॉक डाउन को किस तरह देखा? आपने क्या जीवन में कभी ऐसा दिन देखा था?

डॉ मैनेजर पाण्डेय – मैंने ऐसा दिन कभी नहीं देखा था. मैंने लॉकडाउन जैसा दिन ना ही जीवन में कभी देखा था, ना ही ऐसे दिन की कभी कल्पना की थी. मुझे किसी देशी–विदेशी, कथा–उपन्यास का भी स्मरण नहीं, जिसमें इस तरह के भयावह दृश्य का चित्रण हो. कोरोना की महामारी की तरह ही अंग्रेजी राज में प्लेग और हैजा की महामारी आती थी. उसे मैंने अपनी आँखों से देखा है. उस महामारी के दौरान गाँव के लोग 2-4 माह के लिए गाँव के बाहरी हिस्से में झोपडी बनाकर निवास करते थे फिर व्याधि खत्म होने पर वापस लौट आते थे. तब लोगों ने एक दूसरे की मदद व सेवा करते हुए अपनी और दूसरों की रक्षा की थी. महामारी पहली बार नहीं आई है. प्रथम विश्वयुद्ध के तत्काल बाद स्पेनिश फ्लू आया था. पूरी दुनियां में कई करोड़ लोग उस महामारी की चपेट में मरे थे. भारत में भी डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग मरे थे. महाकवि निराला ने उस महामारी का सामना किया था. उनकी पत्नी मनोहरा, भतीजे सहित संयुक्त परिवार के कुल 6 लोगों की फ्लू में मौत हो गई थी. अब 100 वर्ष बाद फिर दूसरी महामारी का सामना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है. आश्चर्यजनक यह है कि आधुनिक भारत में कोरोना महामारी से लड़ने के नाम पर जो लॉकडाउन की तबाही लाई गयी, उस तबाही का उपयोग राज्य की सरकारों ने मजदूरों की भुखमरी के ऊपर दमन करते हुए एक तरह से उनका विनाश ही किया है. महामारी और आपदा की मार सब दिन गरीब और वंचित तबके को ही ज्यादा तबाह करती है. मुझे तीन बातें मजदूरों की तबाही के प्रसंग में खास तौर से कहनी है.

  1. करोड़ों मजदूर बीबी-बच्चों सहित हजारों मील की पैदल यात्रा करते हुए अपने घर जाने की कोशिश करते रहे. इस तकलीफदेह यात्रा के दौरान कुछ सौ, कुछ हजार मजदूर तरह–तरह की दुर्घटनाओं के शिकार होकर मर गए. कुछ भूख से बेहोश होकर, कुछ पटरी पर चलते हुए, कुछ रेल में भूख–प्यास से तड़पते हुए मर गए. इस दौरान केंद्र और राज्य की सरकारें झूठ बोलती रही कि हम सबका ध्यान रख रहे हैं. हमारे देश की विचित्र विडंबना है कि सैकड़ों श्रमिकों की भूख–प्यास से हुई मौत पर जिन्हें तरस नहीं आती, वे हाथी-हाथिन की मौत पर छाती पीटने लगते हैं.
  2. भारत सरकार ने मजदूरों की संख्या कभी ठीक–ठीक नहीं बताई. उनके झूठ के बावजूद जो दृश्य टीवी चैनलों की खबरों से उपस्थित होता रहा, उससे साबित होता है कि करोड़ों मजदूर एक जगह से दूसरी जगह तक पैदल गए. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश की सरकारों ने कई सौ वर्षों के संघर्ष से अर्जित मजदूरों की सुविधा संबंधी कानूनों को एक झटके में बदल दिया. श्रम के मानक 8घंटे को 12 घंटे में परिवर्तित कर ओवरटाइम की कोई गारंटी नहीं देना, यह मजदूरों के वर्तमान ही नहीं, मजदूरों के भविष्य पर भी हमला है.
  3. एक से बढ़कर एक दुखद दृश्य टेलीविजन से मेरे सामने प्रकट होता रहा. मजदूरों का जो दर्द मैंने अपनी आँखों से देखा, ऐसा राजतंत्र में भी हुआ हो, मुझे नहीं मालूम. रेल से एक बच्चा मां के साथ यात्रा कर रहा था. बच्चे की मां भूख से मर गई. मरी हुई मां को वह बच्चा चादर उठाकर देख रहा है. वह दृश्य इस आपदा का सबसे मार्मिक दृश्य है. पूरी दुनियां ने इस दृश्य को देखा पर सरकार की संवेदना इस घटना से भी नहीं जगी. देश के अलग–अलग महानगरों से लॉकडाउन की वजह से उत्पन्न तबाही की वजह से मजदूरों की ग्राम वापसी को जो नाम दिया गया, वह बेहद खतरनाक और घातक है. मजदूर जो देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से कमाने–खाने गए थे, वे लॉकडाउन केन्द्रित भुखमरी से बचने के लिए अपने घर लौट आए. उन्हें प्रवासी कहना, उनकी नागरिकता का हनन है. करोड़ों मजदूरों के पलायन को प्रवासी कहना उनका अपमान है. जैसे कभी मॉरिशस जानेवाले भारतीय श्रमिकों को प्रवासी कहा गया था. प्रवासी शब्द विदेश में प्रवास करने के सन्दर्भ में इस्तेमाल होता है. उस तरह से गुजरात से दिल्ली, दिल्ली से बिहार, मुम्बई से उड़ीसा जानेवाले स्वदेशी मजदूरों को प्रवासी क्योँ कहा गया? अगर अपने स्वदेश में मजदूरों को प्रवासी कहना जायज है तो गुजरात से दिल्ली आकर राजनीति करने वाले किसी राजनेता को क्या प्रवासी कहा जा रहा है? नीतीश कुमार दिल्ली आ जायेंगे तो क्या उन्हें प्रवासी कहा जाएगा.

मुझे इस प्रसंग में कुछ और कहने की अकुलाहट है. मनुष्य बुनियादी तौर पर एकभाषिक प्राणी है. भाषा के द्वारा ही वह आत्मबोध और जगतबोध प्राप्त करता है. भाषा पर हमले का मतलब उसकी स्मिता और अस्तित्व पर हमला है. मजदूर चाहे मुम्बई के स्लम में रह रहें हों या दिल्ली, सूरत, पंजाब में – उन्हें प्रवासी कहना भारतवासियों के संवैधानिक अधिकार पर हमला है. मजदूरों की भयंकर तबाही, बर्बादी और दुर्गति को देखते हुए मैं इस बुरे समय में लगातार महाप्राण निराला की कविता को पढ़ता रहा. ”गहन है यह अंधकारा/स्वार्थ के अवगुंठनों से/हुआ है लुंठन हमारा.”

देश के विभिन्न हिस्सों में जो मजदूर काम करते हैं, उनमें बिहार–उत्तर प्रदेश के ही 80 फिसदी हैं. उनकी नौकरियां छूट गई. उनके काम बंद हो गए. उनकी रोजी–रोटी बंद हो गई. मैं वह दृश्य देखकर लागातार परेशान हो रहा था कि मजदूर अपने कार्यस्थल के महानगर से अपने जन्मस्थल ग्राम की ओर प्रवेश कर रहे हैं तो एक मुख्यमंत्री चिल्ला रहा है कि मजदूरों के लिए बिहार की सीमा बंद कर दी गई है. परिवारजन घरों में भूखे छटपटा रहे हैं, उनके घर का मुखिया कमाऊ पूत, कमाऊ–पति भूखा–प्यासा सड़क नाप रहा है, अपने परिवार के पास पहुँचने की बेचैनी और तड़प लगातार बढती जा रही थी. ऐसे समय में पुलिस बंदूक–डंडे लेकर उसके सामने खड़ी होती रही. सरकारों ने उनके साथ वैसा ही बर्ताव किया, जैसा देश के दुश्मनों के साथ किया जाता है.

मनुष्य की संवेदना को जानने–विकसित करने का काम साहित्य का है. मार्क्स का एक कथन याद आता है– ‘कविता मनुष्यता की मातृभाषा है‘. मेरा कथन यह है कि ‘कविता मनुष्यता की मातृभाषा तब ज्यादा हो जाती है, जब उसे मजदूर पीड़ित जन अपनी मातृभाषा में बयाँ करें. मैंने टीवी चैनलों से जाना कि राह चलते मजदूर अपनी लोकभाषा में अपने दर्द को गीत बना रहे हैं. मैं ऐसे कई अनाम मजदूरों के गीतों को सुनते हुए घर में बंद छटपटाता रहा. मजदूर प्रार्थना कर रहे हैं – “हम मजदूरों को गाँव भेज दो सरकार“. गाजीपुर के कवि विनय राय का एक भोजपुरी गीत मैं गुनगुनाता रहता हूँ. ”माई हे माई बिहान होई कहिया/भेड़ियन से खाली सिवान होई कहिया”. गोरख की एक कविता है “स्वर्ग से विदाई” इस कविता में गोरख ने यही कहा है कि जो मजदूर नगर को संवारते हैं – सजाते हैं. उन्हीं को नगर से भगा दिया जाता है. महानगर को बनानेवाले, सजानेवाले को महामारी के समय भगा देना महानाश का संकेत है.

पुष्पराज – भारत के प्रधानमंत्री अक्सर “मन की बात“ देशवासियों के सामने प्रकट करते हैं. वे हिंदी में बोलते हैं. हिंदी के आलोचक के रूप में आप उनके भाषण को किस तरह स्वीकार करते हैं.

डॉ मैनेजर पाण्डेय – सच बताऊँ तो मैं उनका भाषण कभी नहीं सुनता हूँ. उनका प्रवचन सुनने लायक नहीं होता है, विचार करने लायक भी नहीं.

पुष्पराज – प्रधानमन्त्री ने लॉकडाउन से पूर्व ‘जनता कर्फ्यू‘ की घोषणा की थी. ’जनता कर्फ्यू‘ तो कम्युनिस्ट आंदोलनों के संघर्ष का एक प्रतीक शब्द है. एक सरकार शासनिक रणनीति में आंदोलनों की शब्दावली से किसी शब्द के इस्तेमाल का चातुर्य क्योँ करती है?

डॉ मैनेजर पाण्डेय – यह दूसरों का हथियार छीनकर, उसी के हथियार से उसको मारना है. प्रधानमन्त्री के द्वारा घोषित कर्फ्यू का नाम ‘सरकारी कर्फ्यू‘ होना चाहिए था. तमाम सरकारें जनता की भाषा का अपहरण करती है. सरकारें जनता की भाषा के अर्थ को नष्ट भी करती है. ’लोक’ जनता की चक्की से निर्मित जनता का शब्द है. अब ‘लोक‘ एक सरकारी शब्द है. आखिर क्योँ ‘लोकतंत्र‘ में ‘लोक‘ का नहीं ‘तन्त्र‘ का राज्य है. लोक सेवा आयोग से निकले आईएएस जनता की कितनी सेवा करते हैं, जनता जानती है. लोक निर्माण विभाग लोगों का कितना भला करती है. ’लोकसभा‘ में जिस तरह के प्रतिनिधि आते हैं, वे कितने लोकसेवक हैं. जहाँ तक भाषा का सवाल है, सरकार भाषा का गलत इस्तेमाल कर देश को विषाक्त कर सकती है. उसका उदहारण है ‘सोशल डिस्टेंसिंग‘. 4000 वर्षों से जिस देश में जात–पात के नाम पर सोशल डिस्टेंसिंग कायम हो. मेरी समझ है कि प्रधानमंत्री के द्वारा प्रयुक्त इस एक शब्द ने 4000 वर्षों की खाई को वैधानिक और वैध बना दिया है. भाषा के स्वरूप पर ध्यान देना ज्यादा जरुरी है. गलत भाषा के इस्तेमाल से चीजें सुलझने के बजाय उलझ जाती हैं. महामारी के समय नागरिकों की भूमिका सबसे ज्यादा सार्थक साबित होती है. महामारियों का इतिहास बताता है कि एक दूसरे के सहयोग से ही महामारी से लड़ा और बचा जा सकता है. एक दूसरे का सहयोग ना करने का हुक्म तो महामारी को महाविनाश साबित कर सकता है.

पुष्पराज – आप बिहार के एक सुदूर गाँव में जन्में-पले-बढ़े हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब कहा कि मैं बाहर रह रहे प्रवासी मजदूरों को बिहार में प्रवेश नहीं करने दूंगा तो आपको कैसा लगा?

डॉ मैनेजर पाण्डेय – मुझे बिहार के मुख्यमंत्री का यह वक्तव्य सुनकर बहुत क्रोध आया और एक बिहारी होने के नाते गहरा अपमान महसूस हुआ. मुख्यमंत्री जो प्रदेश का मुखिया होता है, वह खुद को पूरे राज्य का मालिक महसूस करे तो उसकी भाषा इसी तरह तानशाहों की तरह हो जाती है. मुख्यमंत्री को चाहिए था कि वे श्रमिकों के चेहरे को अपना आईना बना लें. उनके दर्द को अपना दर्द मान लेते तो उन्हें बहुत यश प्राप्त होता. सत्ता प्राप्त करने की होड़ में और सत्ता पर काबिज होने के बाद राजनेता निर्ममता की पराकाष्ठा प्राप्त कर जाते हैं. अलग–अलग राज्यों ने दूसरे प्रदेशों के श्रमिकों के साथ अलग–अलग भूमिका ली पर किसी ने बिहार के मुख्यमंत्री जैसी भूमिका तो नहीं ली. केरल की सरकार ने तो दूसरे राज्यों के मजदूरों को ‘प्रवासी’ के बजाय ‘गेस्ट‘ (अतिथि) का दर्जा देने का आदेश जारी किया. मजदूरों के लिए प्रदेशों की सीमा रोकने वाले मुख्यमंत्रियों से पूछिए कि एक मुख्यमंत्री को दूसरे प्रदेश में घुसने से रोक दिया जाए तो उन्हें कैसा लगेगा?

पुष्पराज – भारत के वाम ट्रेड यूनियनों ने भारत के मजदूरों के हित में किस तरह की भूमिका निभाई?

डॉ मैनेजर पाण्डेय – वामपंथी ट्रेड यूनियन महानगर से गाँव की तरफ भागते मजदूरों की पीठ पर खड़े नहीं दिखे. वे पीठ पर खड़े किस तरह दीखते, जब वे उनके साथ खड़े ही नहीं हुए. यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं है. बोलने के लिए जो बदनाम थे. बदनामी से बचने के लिए उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया. मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि भाजपा के मजदूर संघ ने श्रमिकों के दमन का विरोध किया.

पुष्पराज – अम्ररीका के श्वेत–अश्वेत संघर्ष को आप किस तरह देख रहे हैं.

डॉ मैनेजर पाण्डेय – अमरीका में श्वेतों–अश्वेतों का संघर्ष सदियों पुराना है. श्वेतों के द्वारा अश्वेतों पर दमन का इतिहास काफी पुराना है. मार्टिन लूथर किंग ने गांधीवादी भूमिका ली तो उनकी चर्चा हुई. अम्रीका में एक सिपाही ने एक आम आदमी को घुटने से दबाकर मार दिया है तो पूरा अमरीका जल रहा है. अमरीका के राष्ट्रपति की हालत ख़राब है. 1857 के ग़दर के दौरान अंग्रेज भारतीय को ब्लैक डॉग ही कहते थे. यह व्हाईट सुपिरयरटी की विशेषता है. अमरीकी काले दक्षिण अफ्रीका के काले गुलामों की संतानें हैं. हाल में अम्ररीका के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने एक बयान जारी किया कि ट्रंप को बोलना नहीं आता तो उसे चुप रहना चाहिए. इस तरह भारत में भारतीय प्रधानमन्त्री को कोई प्रशासक टोक सकता है क्या?

पुष्पराज – दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विद्वान प्रोफ़ेसर 90 फीसदी विकलांगता के बावजूद अंडा सेल में बंद हैं. प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि वरवर राव 80 वर्ष की उम्र में जेल में बेहोश होकर अस्पताल में भर्ती कराए गए हैं. भारत के प्रोफेसरों, कवियों की भूमिका इस मसले पर किस तरह की होनी चाहिए?

डॉ मैनेजर पाण्डेय – हमारा संविधान हर नागरिक को विचार की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है. प्रोफ़ेसर साईं बाबा का प्रसंग सरकारी क्रूरता का प्रतीक है कि उनके दिमाग से सरकार को एतराज हो सकता है पर उनकी विकलांगता पर सरकार और न्यायपालिका को तरस नहीं आती. जहाँ तक वरवर राव का सवाल है, निःसंदेह वरवर राव देश के सबसे बड़े क्रांतिकारी कवि हैं. मैंने वरवर राव पर तब लेख लिखा था, जब वे सिकंदराबाद जेल में बंद थे और उनकी पुस्तक ‘भविष्य चित्रपटम’ पर एनटीआर सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था. भारत के प्रोफेसर और कवियों का यह धर्म बनता है कि जेल में बंद विद्वान विकलांग प्रोफेसर और कवि वरवर राव की रिहाई के लिए एकजुट प्रतिरोध करें.

(पुष्पराज यायावर पत्रकार और लेखक हैं और पेंगुइन द्वारा प्रकाशित चर्चित पुस्तक ‘नंदीग्राम डायरी’ के लेखक हैं.)

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