
–हाफ़िज़ शान बिहारी
एक हिन्दू भाई ने कहा कि मुसलमान अपने सिवा दूसरों को नगण्य समझता है तथा उनसे घृणा करता है, और हिन्दू होने के नाते मेरी समझ से इसका सबसे बड़ा कारण इस्लाम की शिक्षाएं हैं! कुरआन मजीद के अनुसार मुसलमानों के अतिरिक्त जितने भी लोग हैं, वह सब के सब ‘काफ़िर’ हैं, इसीलिए मुसलमान हम हिंदुओं को काफ़िर कहते हैं. इस प्रकार के विचार का परिणाम तो यही हो सकता है हाफिज़ साहब कि मुसलमानों के दिलों में दुसरो के प्रति नफरत और नगण्यता का भाव जन्म ले?
मैंने उस भाई से कहा वास्तविकता तो ये है भाई कि गलत ढंग से इस प्रकार की भ्रान्ति इस्लाम और मुसलमानों से लोगों को दूर रखने के लिए फैलायी जाती है. इस्लामी शिक्षाओं तथा मुसलमानों का इस प्रकार की फिजूल बातों से कोई संबंध नहीं है.
काफ़िर और इस्लामी दृष्टिकोण
इस सिलसिले में इस्लाम का बुनियादी तथ्य ये है कि मुसलमानों के अतिरिक्त दूसरी समस्त जातियाँ एवं सम्प्रदाय इंसानी रिश्ते से आपस में भाई-भाई हैं तथा सब लोग इस्लाम को जानने हेतु आमंत्रित हैं. कुरआन का आदेश है कि “अपने रब की मार्ग की ओर तत्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ बुलाओ और उनसे ऐसे ढंग से वाद–विवाद करो जो उत्तम हो ” (सूरह नहल – 125). अगर आमंत्रित व्यक्ति के साथ हमदर्दी की जगह नगण्यता (नीचता) का व्यवहार किया जाए तो इस्लाम का पैगाम उन तक नहीं पहुंचाया जा सकता है. फिर किसी मुसलमान के लिए इसकी गुंजाईश कैसे निकल सकती है कि वो अपने सिवा हिन्दू को नगण्य जाने, ऐसी परिस्थिति में तो वो इस्लाम के आमन्त्रण (दावत) की बुनियाद ही खो डालेगा. इस्लाम का दूसरा दृष्टिकोण ये है की चाहे कोई हिन्दू हो या मुसलमान वह सब के सब एक ही पिता आदम की संतान हैं तथा आपस में भाई – भाई हैं |
इस्लाम और मुसलमानों के निकट कुफ्र का अर्थ
पवित्र कुरआन मजीद एवं हदीस तथा अरबी शब्दकोष में ‘कुफ्र’ का अर्थ “इनकार और छुपाने” का है, इसी शब्द कुफ्र से बना है “काफ़िर” अर्थात छुपाने वाला या इंकार करने वाला या नाशुक्री (अकृतज्ञ) करने वाला.
इस प्रकार शब्द काफ़िर बहुत से अर्थो में प्रयोग हुआ है. अरबी भाषा में किसान को भी काफ़िर कहते है, कुरआन मजीद सुरः अलहदीद आयत बीस में किसान का चर्चा हुआ है जहाँ अरबी भाषा में क़ुरआन ने किसान के लिए “कुफ़्फ़ारा नबातुहू” का शब्द प्रयोग किया है जो छिपाने के अर्थ में प्रयोग हुआ है क्योंकि किसान बीज को ज़मीन में छुपाता है. इसी तरह रात्रि (रात) को भी काफ़िर कहते हैं क्योंकि रात अपने अँधेरे में संसार की समस्त वस्तुओं को छुपा लेती है, समुन्द्र का दूसरा तट जो नजरों से ओझल है उसे भी काफ़िर कहते हैं. कुरआन मजीद सुरः अलमुमतहिना आयत चार में इस्लाम धर्म के एक पैगम्बर हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने बातिल (गलत) के विरुद्ध स्वयं को काफ़िर कहा है, इब्राहीम अलैहिस्सलाम और उनके साथियों ने जब अपने कौम को फसादी रास्तों में उलझा हुआ पाया तो उन्होंने कहा तुम और तुम्हारे फसादी रास्तों से हम बरी हैं एवं तुम्हारे फसादी रास्तों का हम पूरी तरह इन्कार करते हैं क़ुरआन में यहाँ पर “कफरना बिकुम” का शब्द आया है, इस प्रकार यहाँ पर कुफ्र का शब्द इनकार के अर्थ में प्रयोग हुआ है |
बिहार के प्रसिद्ध सूफी बुजुर्ग हज़रत यहया शर्फ़ुद्दीन मनेरी (र०अ०) ने अपनी पुस्तक “मक्तुबाते सदी” में लिखा है कि सुफियाओं की भाषा में “काफ़िर” खुदा के प्रेम तथा शास्त्र की बात छुपाने वाले को कहते हैं, तथा “मुसलमान” इसे ज़ाहिर और ऐलान करने वाले को कहा जाता है.
एक प्रसिद्ध सूफी कवि अमीर खुसरू स्वयं को ‘कफिरे इश्क’ क़रार देते हुए फ़ारसी में कहते हैं ;
“ कफिरे इश्कम मुसलमानी मोरा दरकार नेस्त, हर रगे जाँतार गुशः हाजत जेनार नेस्त ”
अर्थात
मैं काफिरे इश्क हूँ क्योंकि मैं खुदा की मुहब्बत को अपने छाती में छुपाये रहता हूँ, मुझे मुसलमान बनने की आवश्यकता नहीं क्योंकि मैं खुदा से की गई पाक मुहब्बत के जज्बात का ऐलान करना मुनासिब नहीं समझता, जब मैं जान चुका हूँ कि मेरे रग में लहू बनकर खुदा के इश्क की लहर दौड़ रही है तो मुझे दिखने वाली जनेऊ के तारों को लपेटने की क्या आवश्यकता है.
इसके अतिरिक्त उर्दू काव्य में “काफ़िर” प्रेमिका को कहा जाता है क्योंकि वह प्रेम देने का प्रण करके शर्माते हुए इनकार करती है.
इस प्रकार कहा जा सकता है कि शब्द “कुफ्र एवं काफिर” में नगण्यता (नीचता या नफरत) का भाव नहीं है, अगर ऐसा भाव इस शब्द में विराजमान होता तो, न तो मुसलमान ही शब्द काफिर की संज्ञा स्वीकार करता और न तो इस्लाम के एक उच्च कोटि के पैगम्बर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को पवित्र क़ुरान मजीद में बातिल के इंकार के लिए काफिर कहना पड़ता, और न ही सूफी मत के निकट शब्द काफिर प्रेम का पात्र बन पाता.
हिन्दुस्तान के एक बड़े इस्लामिक धर्मगुरु मौलाना अशरफ अली थानवी (र०अ०) कहा करते थे:- “मैं मुसलमानों को ‘हालन’ (वर्तमान में) और हर काफ़िर को ‘एह्तेमालं’ श्रेष्ठ समझता हूँ. एह्तेमालं का अर्थ ये है कि इस समय वो अल्लाह और उसके आदेश को अस्वीकार कर रहा है, परन्तु क्या पता कि भविष्य में अल्लाह ताला उसको तौबा करने का मार्ग प्रशस्त कर दे जिससे वो कुफ्र एवं काफिर की मुसीबत से निकल जाये तथा अल्लाह ताला उसकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ा दे कि वह मुझ से भी आगे निकल जाये”.
इन तथ्यों से स्पष्ट है की किसी को नगण्य समझते हुए “काफ़िर” कहना उल्माए इस्लाम (इस्लामिक धर्मगुरु) तथा मुसलमानों का दस्तूर नहीं है. जिन लोगों को शब्द “काफ़िर” से गलत फहमी पैदा हुई है उसकी असल वजह ये है कि उन्होने इस्लामिक शिक्षा और मुसलमानों के व्यवहारिक जीवन का स्वयं अध्ययन नहीं किया है अपितु सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा कर के ऐसा समझ बैठे हैं.
काफिर को गाली ना दो
पवित्र कुरान मजीद ने संसार के समस्त मानवों के मर्यादा एवं गरिमा को बरकरार रखते हुए समस्त मुस्लिमों से आह्वान किया है कि “ऐ मुसलमानों ! ये लोग अल्लाह के अतिरिक्त जिनको पुकारते हैं उन्हें गालियाँ न दो” इस आयत में इनकार करने वाले (काफिर) को भी सम्मान देने का आदेश है. स्पष्ट रूप में मना किया गया है कि ऐसी बातें जिनमें व्यंग्य का भाव, निन्दा एवं परिहास की बातें निहित हों तुम्हारे लिए वर्जित हैं. अगर कोई मुस्लिम या गैर मुस्लिम कुरान मजीद की आयत या उसका अनुवाद किसी व्यक्ति विशेष, समुदाय, सम्प्रदाय पर निन्दा करने की भावना तथा उसे हीन दर्शाने के लिए प्रयोग करता है तो उसका ऐसा करना जायज़ नहीं है, क्योंकि कुरान मजीद ने स्वयं को किताबे हिदायत (मार्ग दर्शक पुस्तक), किताबे रहमत (कृपा की पात्र) एवं किताबे नूर (प्रकाश वाली पुस्तक) कहा है. शब्द काफिर कुरान मजीद का इस्तेलाही शब्द नहीं है, कुरान मजीद ने एक दो स्थान को छोड़ कर लगभग हर स्थान पर शब्द “काफ़िर” को इनकार के अर्थ में प्रयोग किया है, तथा एकेश्वरवाद, इश्दूतत्व एवं परलोक के बुनयादी उसूलों को न मानने वालों के लिए कभी शब्द कुफ्र, कभी शिर्क, तो कभी जिर्म का प्रयोग किया है. कुफ्र और काफिर का शब्द अगर इस्तेलाही होता तो इसे मुस्लिमों के लिए प्रयोग न किया जाता जिस प्रकार सूरह बक़रह कि आयत दो सौ छप्पन में अंकित है “जिस किसी ने बढे हुए फसादी का इनकार करके अल्लाह को माना, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटने वाला नहीं”. इस आयत में शब्द इन्कार (कुफ्र) मुस्लिमों के लिए प्रयोग हुआ है जिसमें कहा जा रहा है की ऐ ईमान वालों! शैतान के काफ़िर बन जाओ और एक अल्लाह को मानो जो सबका पैदा करने वाला है. कुरान मजीद ने अरब देश की प्रथम दो समुदायों को “अहले किताब (आसमानी किताब वाले), यहूद तथा नसारा (ईसाई)” कह कर पुकारा है, और ये वो शब्द हैं जिसको आज भी ये समुदाय अपने लिए प्रयोग करती है |
कहने का तात्पर्य यह है कि क़ुरआन मजीद ने सबकी गरिमा को बरक़रार रखते हुए, सबके साथ समान न्याय किया है.
मुहम्मद सल्ल॰ ने काफिर का सम्मान किया है
हजरत मुहम्मद सल्ल॰ प्रत्येक मानव को मानवता की निगाह से देखते थे तथा इसी रिश्ते से समस्त मानव का सम्मान करते थे. हुजूर सल्ल॰ का एक वाक्या सहीह बुखारी शरीफ की हदीस में इस प्रकार मिलता है कि “मदीना में एक मर्तबा रसूलुल्लाह सल्ल॰ के पास से एक जनाज़ा (अर्थी) गुज़रा उस वक्त आप सल्ल॰ बैठे हुए थे. जनाज़ा को देख कर उसके सम्मान में हुजुर सल्ल॰ खड़े हो गए, आप के साथ आपके सहाबा रजिअल्लाहु अनहुम भी खड़े हो गए. जब जनाज़ा गुज़र गया तो आप सल्ल॰ से कहा गया कि ये जनाज़ा तो एक यहूदी (काफिर) का था, जो आपका कट्टर विरोधी था, अतः इसके सम्मान में खड़े होने की आवश्यक्ता नहीं थी. इस पर मुहम्मद सल्ल॰ ने उस समय जो शिक्षा दी वो हम मुसलमानों के लिए एक नमूना है, हुज़ूर फखरे मौजूदात, सरदारे अंबिया, खातमन नबीय्यीन ने फरमाया “क्या वो इंसान नहीं था?” (बुखारी शरीफ-1312). मुहम्मद सल्ल॰ ने उस काफिर को काफिर की दृष्टि से नहीं अपितु मानव की हैसियत से देखा तथा उसके सम्मान में खड़े हुए. ये खड़ा हो जाना सरकारे मदीना, रहमतुल-लिल-आलमीन की जानिब से मानवता के सम्मान की, उसके गरिमा के रक्षा की एक बहुत बड़ी मिसाल है. उनका ये अमल इस बात को दर्शाता है कि इस्लाम में किसी गैर-मुस्लिम व्यक्ति को नगण्य (नीचा) समझने और उसे काफिर कह कर चिढाने और उससे नफरत करने की लेस मात्र भी स्थान नहीं है.
हजरत मुहम्मद सल्ल॰ का पाक इरशाद है “सारा जीव अल्लाह का कुन्बा है तथा समस्त जीव में अल्लाह को अत्यधिक पसंद वो व्यक्ति है जो उसके कुन्बे से प्रेम करे”.
(हाफ़िज़ शान बिहारी इस्लाम के साथ संस्कृत के भी विद्वान हैं. आप भी यदि किसी धर्म के ज्ञाता हों और आप लिखना जानते हों तो क़लम उठाइए और अपना आलेख हमें tmcdotin@gmail.com पर भेज दीजिए.)