भगवद गीता में जिहाद – I




प्रतीकात्मक छवि

-हाफ़िज़ शान बिहारी

जिहाद का आदेश भगवद गीता में है या नहीं, इस विषय पर चर्चा करने  से पहले हमें यह समझ लेना होगा कि जिहाद का अर्थ क्या होता है?

जिहाद शब्द का प्रयोग आजकल जिस अर्थ में किया जाता है वह केवल इस्लाम के बारे में फैली गलत-फहमियों में से एक है. बल्कि यूँ कहें कि जिहाद के बारे में गलत-फहमी केवल गैर-मुस्लिमों में नहीं है अपितु मुस्लिम में भी है. जिहाद से गैर-मुस्लिम और मुस्लिम दोनों ही यह समझते हैं कि, हर वो लड़ाई जो मुसलमान के द्वारा लड़ी गयी हो जिसका मक़सद कुछ भी रहा हो, गलत हो या सही, जिहाद कहलाता है. जबकि जिहाद की वास्तविकता ही कुछ और है. आइए विस्तार से जानते हैं जिहाद के बारे में.

जिहाद का वास्तविक अर्थ

जिहाद अरबी भाषा का शब्द है जो ‘ज-ह-द’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ‘मेहनत करना’ ‘जद्दोजहद करना’ ‘संघर्ष करना’ अंग्रेजी में इसी को to strive or to struggle कहते हैं. मिसाल के तौर पर ‘अगर एक छात्र उत्तीर्ण होने के लिए मेहनत करता है, तो वह जिहाद कर रहा है.’ अरबी भाषा के शब्द जिहाद का एक अर्थ ‘अपनी नफ़्स (इंद्रियों) से संघर्ष करना’ भी होता है. अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए जितनी मेहनत,कोशिश और संघर्ष किया जाता है अरबी में इसे भी जिहाद कहते हैं. जिहाद अपने अंदर एक और अर्थ समेटे हुआ है जिसका नाम है “आत्म रक्षा के लिए संघर्ष” या किसी शत्रु द्वारा रण-भूमि में चढाई हो जाने या अत्याचार होने पर उसके विरुद्ध लड़ना.

जिहाद धर्मयुद्ध नहीं है

आपको जान कर आश्चर्य होगा कि कुछ विपरीत परिस्थितियों में बुराई से लड़ने और मारने की जो बात क़ुरआन मजीद में कही गयी है उसके लिए जो शब्द प्रयुक्त हुआ है वो जिहाद नहीं बल्कि “क़ेताल” है. शब्द जिहाद को सर्वप्रथम “पवित्र युद्ध” “The Holy War” का नाम पश्चिम जगत के इस्लाम विरोधी मिडिया ने दिया था. जिसने बड़ी चालाकी से जिहाद के वास्तविक परिभाषा को बदल दिया तथा जिहाद की छवि को इतना क्रूर और वीभत्स बना कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया कि लोगों को शब्द जिहाद और मुसलमानों से नफरत हो गया . नफरत के इस सिलसिले को इतना बढ़ाया गया कि वो सिलसिला आज तक जारी है जो हमारे और आपके सामने है.
इस्लाम विरोधी मानसिकता एवं जिहाद

दुनिया भर में इस्लाम के आलोचकों की कमी नहीं है. ये वो आलोचक हैं जो इस्लाम एवं क़ुरआन के यथातथ्य (हक़ीक़त) से परे हैं और सुनी सुनाई बातों पर अपना निर्णयात्मक मत प्रकट कर देते हैं . अगर आलोचक वास्तव में अपने आलोचना के नियमानुसार कोई बात कहे तो वो सर्वमान्य होती है अन्यथा उसे केवल दोहरी नीति और छिछोरा पन ही कहा जा सकता है . आलोचकों की सूची तो बहुत लंबी है, मैं केवल एक आलोचक “श्री अरुण शौरी” जी को प्रस्तुत कर रहा हूँ जिन्होने अपनी पुस्तक “The World of Fatwas” में जिहाद को कैसे परिभाषित किया है उसे देखिये .

इनका कथन है कि कुर'आन में कई आयत ऐसी है जो मार-काट, लड़ाई-झगड़े के लिए उकसाती है. वे लिखते हैं कुरआन में लिखा है“… Fight and slay the Mushrik/Kafir wherever you find them …” (Al Qur’an 9:5)

उपरोक्त अँग्रेजी वाक्य क़ुरआन के सूरह-तौबा सूरह संख्या 9 एवं आयत संख्या पांच 5 से उद्धृत है . अरुण शौरी जी अपनी किताब में जब कुरआन की सूरह तौबा के पांचवी आयत का ज़िक्र किया है वो प्रसंग से बाहर एक त्रुटि पूर्ण बात है . अब प्रश्न ये है कि प्रसंग (Context) क्या है ? आइये जानते हैं आयत के प्रसंग के बारे में लेकिन उससे पूर्व नज़र डालते हैं आयत के अवतीर्ण होने से पहले के हालत पर क्योंकि आयत इन हालातों (परिस्थितियों) सी जुड़ी है .

आयत से पूर्व की परिस्थितियों पर एक नजर

आयत का प्रसंग मक्का एवं उसके आसपास के क्षेत्र के निवासियों से संबन्धित है . जैसा हम सब जानते हैं कि मक्का मुहम्मद साहब की मातृभूमि है . जब मुहम्मद साहब 40 वर्ष की आयु को पहुंचे तो ग़ारे हेरा (हेरा पहाड़ का एक गुफा) में आप प्रभु परमात्मा की उपासना में ध्यान मग्न थे कि अचानक फ़रिश्ता जिब्राईल अलैहिस्सलाम का आगमन हुआ और उन्होने मुहम्मद सल्ल॰ को शुभ सूचना दी कि आप अल्लाह के रसूल (पैगंबर) हैं . मुहम्मद सल्ल॰ फ़रिश्ता जिब्राईल को देख कर भयभीत हो गए क्योंकि इससे पूर्व ऐसी घटना उनके साथ नहीं घटी थी . इसके बाद उन्होने मक्का के निवासियों को बताया कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ अतः मेरा और तुम्हारा पूज्य प्रभु केवल एक है उसी एक की पूजा-उपासना करो, इस आह्वान पर कुछ लोग उनके साथ हुए और कुछ उनके जान के शत्रु हो गए . शत्रुता इतनी प्रचंड हुई कि मक्का के निवासियों ने मुहम्मद साहब और इनके साथियों पर इतना क्रूर और वीभत्स अत्याचार किया कि अल्लाह ने आदेश दे दिया कि ऐ मुहम्मद ! आप मक्का से हिजरत (पलायन) कर जाइए . सितम्बर 622 ई॰ को हिजरत कर के मुहम्मद सल्ल॰ मदीना पहुँचे . यहीं मदीना में आपके अनुयायियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई. सन 628 ई॰ को आप 1400 मुसलमानों के साथ मदीना से मक्का की ओर “काबा” की तीर्थ हेतु प्रस्थान किया . मक्का के निवासियों को जब खबर मिली कि मुहम्मद सल्ल॰ काबा की तीर्थ के लिए आ रहे रहे हैं तो कुछ लोग उन्हें मक्का के बाहर “हुदैबिया” नामक प्रसिद्ध कुआँ के स्थान पर रोक लिया, तब मुहम्मद सल्ल॰ ने हजरत उस्मान गनी रजि॰ को अपना दूत बना कर मक्का भेजा कि हमें तीर्थ से रोका क्यों जा रहा है? जब हजरत उस्मान मक्का पहुँचे तो उन्हें बंधक बना लिया गया . यहाँ मुहम्मद साहब और उनके साथी हजरत उस्मान का इंतज़ार कर रहे थे जब बहुत देर हो गई और हजरत उस्मान वापस नहीं आए तो मुहम्मद सल्ल॰ ने अपने साथियों से बैत (प्रण लेना) लिया जो “बैते रिज़्वान” के नाम से प्रसिद्ध है . इस बैत में मुसलमानों ने प्रतिज्ञा ली कि हम सब मरते दम तक मुहम्मद सल्ल॰ का साथ नहीं छोड़ेंगे . जब इस प्रतिज्ञा की आवाज़ गूँजी तो मक्का के निवासियों को भय हुआ कि अब मुसलमान चढ़ाई कर देंगे अतः उन्होने हजरत उस्मान को सुहैल बिन उमरो के साथ छोड़ दिया और मुहम्मद सल्ल॰ के समक्ष ये प्रस्ताव रखा कि हम आप से संधि करना चाहते हैं . मुहम्मद सल्ल॰ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और संधि के लिए तैयार हो गए . अब ज़रा संधि पर भी नज़र डालिए ;

हुदैबिया की संधि

इस संधि के लिखने वाले का नाम “अली इब्ने तालिब” है. संधि मुहम्मद सल्ल॰ और सुहैल बिन उमरो के मध्य हुई. संधि में वर्णित तथ्य इस प्रकार थे

  1. आगामी दस वर्षों तक कोई युद्ध नहीं होगा .
  2. कोई भी मुहम्मद सल्ल॰ का साथ देना चाहे या उनसे संधि करना चाहे तो वो स्वतंत्र है . इसी प्रकार अगर कोई भी कोरैश (मक्का निवासी) का साथ देना चाहे या संधि करना चाहे तो वो भी स्वतंत्र है .
  3. कोई भी मक्का का व्यसक या ऐसा व्यक्ति जिसके माता-पिता जीवित हों अगर वो मुहम्मद सल्ल॰ के समुदाय या मदीने में जाए तो मुहम्मद सल्ल॰ को उस लड़के या व्यक्तियों को उसके माता-पिता या अभिभावक को लौटा देना होगा . परंतु अगर कोई मदीना निवासी या मुहम्मद सल्ल॰ का अनुयायी कुरैश (मक्का निवासी) की ओर आएगा तो उसे लौटाया नहीं जाएगा.
  4. इस साल मुहम्मद सल्ल॰ तथा इनके अनुयायियों को मक्का का तीर्थ छोड़ कर यहीं से लौटना होगा . परंतु अगले साल मुहम्मद सल्ल॰ और उनके साथी मक्का में प्रवेश कर काबा का तीर्थ कर सकते हैं, इन्हें केवल तीन दिन मक्का में ठहरने की अनुमति होगी, इन तीन दिनों के लिए मक्का निवासी (कुरैश) आस-पास की पहाड़ियों से हट जाएँगे .
  5. जब मुहम्मद सल्ल॰ और उनके साथी मक्का में प्रवेश करेंगे तो उनके पास अस्त्र-और शस्त्र नहीं होने चाहिए परंतु हाँ उस सादे तलवार को रखने की अनुमति होगी जो अरब संस्कृति के लोग सदैव अपने पास रखते हैं .

उपरोक्त संधि के अनुसार दस वर्षों तक युद्ध निषिद्ध किया गया था परंतु ये केवल दो वर्षों तक ही बना रहा और मक्का निवासियों के एक क़बीले की ओर से इस संधि को तोड़ दिया गया अर्थात एक रात क़बीला बनु-बकर (मक्का का एक क़बीला) ने बनु-कुज़ा क़बीला (मुहम्मद सल्ल॰के पक्षकार) के कुछ आदमियों की हत्या कर दी . इस घटना के बाद मुहम्मद सल्ल॰ ने जब बनु-बकर से बात करनी चाही तो कुरैश (मक्का निवासी) ने बनु-बकर की अस्त्र-शस्त्र के साथ सहायता की . तब मुहम्मद सल्ल॰ ने तीन सूत्री संदेश मक्का निवासियों (कुरैश) को भेजा .

  1. कुरैश बनु-कुज़ा को हत्या करने के एवज रक्त बहा का भुगतान करे .

या

  1. कुरैश बनु-बकर से अपने संबंध विच्छेद कर ले .

या

  1. कुरैश हुदैबिया की संधि को रद्द करे .

मक्का निवासियों ने उत्तर भेजा कि हम आपकी तीसरी शर्त मानेंगे अर्थात हुदैबिया की संधि को रद्द करते हैं . इस संदेश के बाद बहुत जल्द ही मक्का निवासियों को अपनी गलती का एहसास हुआ अतः उन्होने अबू सुफयान नामी व्यक्ति को मक्का का दूत बना कर  पुनः संधि के नवीकरण हेतु मुहम्मद सल्ल॰ के पास भेजा तो मुहम्मद सल्ल॰ ने उस दूत के अर्जी को रद्द कर दिया .

सन 630 ई॰ को मुहम्मद सल्ल॰ ने दस हज़ार मुजाहिदीन (सैनिक) के साथ मक्का की ओर कूच किया . मुसलमानों की इस कूच से भयभीत हुए बहुत से मक्का निवासियों ने इस्लाम कुबूल कर लिया तथा मुहम्मद सल्ल॰ ने आम माफी (क्षमा दान) का ऐलान कर दिया . एक छोटी सी झड़प के बाद समस्त कार्यवाही शांति से हो गयी तथा मुहम्मद सल्ल॰ मक्का विजयी बन कर मक्का में प्रवेश हुए . ये संक्षिप्त विवरण है उपरोक्त सूरह तौबा की आरंभिक पाँच आयतों के संदर्भ को समझने हेतु . अब आयत पर पुनः विचार करते हैं ;

आयत का विश्लेषण

उपरोक्त पस्तिथियों के मद्देनज़र ही सूरह तौबा की आरंभिक कुछ आयतों का अवतरण हुआ है . क्योंकि मक्का चढ़ाई के वक्त भयभीत हो कर इस्लाम स्वीकार करने वालों में तीन प्रकार के लोग थे .

  1. गद्दार और संधि विच्छेद करने वाले लोग.
  2. कुछ संधि को निभाने वाले लोग .
  3. तथा कुछ आम नागरिक भी थे .

जिन्हें क्षमा का दान दे दिया गया था, परंतु पूर्व कालिक अनुभव के तहत प्रथम श्रेणी के संधि विच्छेद करने वाले व्यक्तियों पर शंका बनी हुई थी कि ये पुनः धोखा कर सकते हैं, इसलिए आने वाले समय में इनसे कोई संधि न किया जाना तय हो गया. बचे दूसरे श्रेणी के लोग,चूँकि हुदैबिया की संधि का समय अभी बाकी था इसलिए आयत चार में कहा गया “परंतु जिन मुशरीकों से तुमने समझौता किया था, फिर उन्होने तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुद्ध किसी की सहायता की तो उनका समझौता उनकी अवधि तक पूरा करो. निसंदेह अल्लाह सदाचारियों को पसंद करता है” (सूरह तौबा : आयत-4) .

इसके बाद बचे तीसरे श्रेणी के कुछ आम नागरिक तो उनके साथ ये रियायत की गई के आपको तत्काल मक्का छोड़ने की आवश्यकता नहीं है आपको चार माह का समय दिया जाता है कि आप आराम से जहाँ जाना चाहते हैं जा सकते हैं या इस्लाम की सत्यता पर आपको विश्वास हो तो आप इस्लाम को स्वीकार कर मक्का में भी रह सकते हैं . इन आदेशों का उद्देश्य ये था कि आने वाले नव वर्ष से पूर्व ही मक्का नगर आसानी के साथ इन सब गद्दार मुशरीकों से खाली हो जाए, मक्का के नगर को इन गद्दारों से खाली करवाना किसी व्यक्तिगत बदले की भावना से नहीं था अपितु लगातार अनुभवों के बाद अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए था . इस आदेश के बाद कह दिया गया कि अगर कोई तय समय पर यहाँ से नहीं जाता है तो उनके लिए अल्लाह का आदेश भी आ चुका है जिसका वर्णन सूरह तौबा की पाँचवीं आयत में हुआ है ” फिर जब हराम महीने (चार महीने) व्यतीत हो जाए तो इन मुशरीकों की हत्या करो जहाँ पाओ, उनको पकड़ो और उनको घेरो, और बैठो उनकी घात में . फिर यदि वह तौबा कर लें और नमाज़ स्थापित करें और ज़कात अदा करें तो उन्हें छोड़ दो . अल्लाह क्षमा करने वाला, दया करने वाला है”.

इन सब कठोर आदेशों के बावजूद भी इनके लिए विनम्रता का भाव रखा गया जिसका वर्णन छठी आयत में हुआ है (जिसे अधिकतर इस्लाम विरोधी मानसिकता के लोग नहीं लिखते ) छठी आयत इस प्रकार है

"और यदि शिर्क करने वालों में से कोई व्यक्ति तुमसे शरण माँगे तो तुम उसको शरण दे दो, ताकि वह अल्लाह के वाक्य सुनें फिर उसको उसके सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दो . यह इसलिए कि वो लोग ज्ञान नहीं रखते (सूरह तौबा :आयत-6).

विचारणीय तथ्य ये है कि क्या आज दुनिया का कोई ऐसा आर्मी जनरल होगा जो अपने सैनिकों से कहेगा कि अपने दुश्मनों को जाने दो, लेकिन अल्लाह अपनी किताब अल-कुरआन में फरमाता है कि अगर तुम्हारा दुश्मन शान्ति चाहता है तो न सिर्फ शान्ति दो बल्कि उन्हें उनके सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दो. क्या इतिहास में ऐसा कोई आर्मी जनरल गुजरा है जिसने इस प्रकार दयालुता पूर्ण आदेश दिया हो, अब अरुण शौरी जी से कोई ये पूछेगा कि उन्होंने अपनी किताब में जानबूझ कर आयत संख्या 6 का वर्णन क्यूँ नहीं किया? क्योंकि इस्लाम विरोधी मानसिकता के लोग अपने लेख में केवल उन तथ्यों का समावेश करते हैं जिनसे उनकी झूठी वाह-वाही हो और लोगों को लगे कि ये तो बहुत ज्ञानी हैं इन्होने तो कुरआन मजीद की समीक्षा कर डाली. जबकि सत्यता ये है कि इनकी ओछी सोच और गलत मार्गदर्शन के कारण लोग पीढ़ी दर पीढ़ी भ्रमित, घृणित और सांप्रदायिक विद्वेष में धकेल दिये जाते हैं.

(आगे पढ़िए भगवद गीता में जिहाद का वर्णन कहाँ कहाँ है)

(हाफ़िज़ शान बिहारी इस्लाम और वेदों के ज्ञाता हैं. यह लेख दीने इस्लाम और हिन्दू धर्म के बीच समानताओं पर आधारित है तथा गीता और क़ुरआन के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर जिहाद को समझाने का एक प्रयास है.)

 

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