भगवद गीता में जिहाद II




प्रतीकात्मक छवि

-हाफ़िज़ शान बिहारी

संसार के सभी मुख्य धर्मों में 'अच्छे कार्य के लिए संघर्ष' करने का आदेश मिलता है. यह बात भगवद गीता में भी लिखी है "योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है" (गीता-02:50).

लड़ाई-मारपीट(युद्ध) का वर्णन गीता में

महाभारत एक महाकाव्य है, जो हिन्दू धर्म की पवित्र और मान्य पुस्तक है, इसमें मुख्यतः दो रिश्तेदार (cousins) कौरवों और पांडवों के बीच 18 दिनों तक चली भीषण लड़ाई का वर्णन है. जब अर्जुन युद्ध के मैदान (कुरुक्षेत्र) में पहुँचते हैं और शत्रु रूप में अपने ही रिश्तेदारों को देखते हैं तो उनकी अंतरात्मा बोझिल हो जाती है और वे अपने रिश्तेदारों की हत्या के विचार से विरक्त हो कर अपने हथियार ज़मीन पर रखते हुए लड़ने से मना कर देते हैं. तब उसी क्षण उसी युद्ध के मैदान में अर्जुन के रथ के सारथी बने श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को प्रेरणा देते हैं, उसी प्रेरणा के सम्पूर्ण संग्रह को ‘भगवद गीता’ कहते हैं. गीता महाभारत के अध्याय 25 से 42 तक के कुल 18 अध्यायों से हू-बहू उद्धृत है जिसमें700 श्लोक हैं. भगवद गीता के कई श्लोक से हमें अपने दुश्मनों से लड़ने और उन्हें मारने के आदेश मिलते हैं, चाहे दुश्मन हमारे अपने ही रिश्तेदार क्यूँ न हों? अब आइये देखते हैं गीता के कुछ वो श्लोक जिसमें लड़ाई के लिए कृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रेरित किया है.

भगवद गीता अध्याय एक, श्लोक संख्या 44 से 47 में वर्णित है जिसमें अर्जुन स्वयं स्वीकार करते हैं कि मैं लड़ना नहीं चाहता क्योंकि अपने ही रिश्तादारों को मारना बहुत बड़ा पाप है. अगर कोई ऐसा पाप करे तो निश्चित ही वो नरक का भागी है. इस प्रकार उद्विग्न मन हो कर अर्जुन अपने हथियार को धरती पर रख देते हैं. श्लोक इस प्रकार है;

अर्जुन उवाच

हे जनार्दन! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं (गीता-1:44).

अहो! शोक है कि हमलोग बुद्धिमान हो कर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख से लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं.(गीता-1:45)

यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रन में मार डालें तो वो मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा.(गीता-1:46)

संजय बोले: रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए. (गीता-1:47)

तब श्री कृष्ण भगवान अगले अध्याय 2 श्लोक संख्या 2 एवं 3 में अर्जुन को प्रेरित करते हुए कहते हैं:

श्री भगवानुवाच

श्री भगवान बोले: हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है. (गीता-2:2)

इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ती. हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा. (गीता-2:3)

उपरोक्त श्लोक से ज्ञात हुआ कि जब अर्जुन श्री कृष्ण भगवान से कौरवों को मारने के बजाये खुद निहत्थे मर जाने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं, तो श्री कृष्ण भगवान उन्हें समझाते हैं कि कैसे इस तरह के अपवित्र विचार तुम्हारे मन में आ गए, कैसे तुम नपुंसक हो गए. उठो और अपने शत्रुओं का वध करो, उनसे लड़ो और विजय पाओ क्योंकि तुम्हारा ऐसा करना ही तुम्हें स्वर्ग का भागीदार बनाएगा. इसी प्रकार आगे अध्याय 2 के श्लोक 30 से 36 तक में भगवान पुनः कहते हैं:

हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है. इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने योग्य नहीं है. (गीता-2:30)

तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे भय नहीं करना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़ कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है. (गीता-2:31)

हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं. (गीता-2:32)

किन्तु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति कों खो कर पाप को प्राप्त होगा. (गीता-2:33)

तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़ कर है. (गीता-2:34)

और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे. (गीता-2:35)

तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे ; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ? (गीता-2:36)

इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो भगवद गीता में कुरआन से अत्यधिक युद्ध पर उभारने और नरसंहार करने की शिक्षा मिलती है. इसके अलावा मनुस्मृति के भी कुछ श्लोक पर दृष्टिपात कीजिये.

मानवेतर प्राणी सृष्टि में जीवो जीवस्य भोजनम् – का निसर्ग सिद्ध व्यवहार दृष्टिगोचर होता है. परन्तु जब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य की हिंसा की जाती है तब उसके औचित्य का सवाल उठता है. इस सन्दर्भ में ब्राह्मण संस्कृति के प्राचीन धर्मशास्त्र मनुस्मृति में वर्णित है– जो आततायिन् है उसका तो वध करना ही चाहिये. यहाँ ‘आततायिन्’ शब्द की व्युत्पत्ति कहती है कि – आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुम् शीलम् अस्य..अर्थात् खुले शस्त्र को ले कर जो वध करने के लिये आ रहा है, वह आततायिन् है.
मनुस्मृति में कहा गया है कि ;

गुरुं वा बाल-वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्.
आततायिनम् आयान्तं हन्याद् एवाविचारयन्.. ( मनु. 8 – 350)

अर्थात् – गुरु हो, बालक हो, वृद्ध हो या बहुश्रुत ब्राह्मण हो – लेकिन वह शस्त्र लेकर वध करने को यदि आ रहा हो तो, ऐसे आततायी को तो बिना कोई विचार किये मार ही डालना चाहिये..

इस तरह धर्मशास्त्र निश्चित सन्दर्भों में हिंसा को अनिवार्य बताते हैं. यहाँ पर हिंसा के औचित्य पर या कोई वैकल्पिक उपाय के लिए चिन्तन करने की आवश्यकता ही नहीं सोची गई है. उपर्युक्त श्लोक में, बिना कुछ सोचे ही, आततायी को आते देख कर ही उसका वध कर देने का आदेश दिया गया है. ( यहाँ एवकार घटित हन्याद् क्रियापद ध्यानास्पद है ) अर्थात् आततायिवध के सन्दर्भ में स्पष्ट शब्दों में हिंसा की अनुमोदन की गई है, और उसकी अनिवार्यता भी मानी गई है.

शुक्राचार्य ने धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा को देख कर, षड्-विध आततायियों की गिनती भी की है :-

  1. अग्नि में जला देनेवाला, 2.विष देनेवाला, 3. शस्त्र उठा कर आनेवाला, 4. धन की चोरी करने वाला, 5. खेत की जमीन ले लेने वाला, और 6. पत्नी का अपहरण करनेवाला – ये सब आततायिन् है.
    (मनुस्मृतिः ( कुल्लुक भट्टटीका संहिता ), सं. जगदीशलाल शास्त्री, प्रका.- मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1983, पृ. 333 – 334)

इस्लाम के आलोचक एक और प्रश्न उठाते हैं, विशेष कर हिन्दू आलोचक यह कहते हैं कि कुरआन में यह लिखा है कि अगर आप जिहाद में किसी को मारते हैं तो आपको जन्नत की प्राप्ति होती है. वे केवल कुरआन का ही नहीं अपितु सहीह बुखारी की एक हदीस का भी हवाला देते हैं जहाँ वर्णित है;

“मुहम्मद सल्ल॰ से कथित है कि जिहाद करने वाला ठीक उसके समान है जो रात में सदैव नमाज़ पढ़ता रहे तथा दिन में सदैव रोज़े रखता रहे. अल्लाह ने अपने रास्ते में जिहाद करने वाले के लिए ये ज़िम्मेदारी ले ली है कि अगर कोई जिहाद करने वाला लड़ते- लड़ते शहीद हो जाता है तो वह स्वर्ग में जायेगा, और अगर वह लड़ाई के मैदान से विजय प्राप्त करके आता है तो उसे धन-धान्य और ऐश्वर्य मिलेगा” (बुखारी-2787).

मैं उनसे आग्रह करता हूँ कि भगवद गीता में भी ठीक ऐसे ही श्लोकों का वर्णन है कि अगर कोई लड़ते-लड़ते मर जाता है तो वो स्वर्ग में जाएगा, और अगर वो युद्ध के मैदान से विजय प्राप्त करके आता है तो उसे धन-धान्य और ऐश्वर्य मिलेगा. इसे आप स्वयं देख सकते हैं,

“या तो तू युद्ध में मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीत कर पृथ्वी का राज भोगेगा. इस कारण हे अर्जुन !  तू युद्ध के लिए निश्चय कर के खड़ा हो जा.  (गीता-2:37)

इसी तरह का आदेश ऋग्वेद मेंभी वर्णित है कि संग्राम में जीतने पर जो भी धन प्राप्त होता है वो विजयी का ही होता है इसे भी देखिये

“जो सभापति सब शूरवीरों का अपने समान सत्कार करता है वो शत्रुओं को जीत कर सबके लिए सुख दे सकता है, संग्राम में अपने पदार्थ औरों के लिए और औरों के अपने लिए करने चाहिए……….. (ऋग्वेद-1:132:2)

“सेना पुरुषों को जो सेनापति आदि पुरूषों के शत्रु हैं वह अपने भी शत्रु जानने चाहिए शत्रुओं से परस्पर फूट को न प्राप्त हुए धार्मिक जन उन शत्रुओं को विदीर्ण कर प्रजा जनों कि रक्षा करें. (ऋग्वेद-1:132:6)

मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि कैसे इस्लाम के आलोचक, ज़्यादातर हिन्दू आलोचक कुरआन की उन आयतों पर उंगली उठाते है, जिसमें अन्यायी दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए आदेश दिए गए हैं.ऐसे छुद्र विचारों की उत्पत्ति तो उस समय ही संभव होती है जब कोई हिन्दू आलोचक स्वयं अपनी ही धार्मिक पुस्तकों जैसे भगवद गीता, महाभारत और वेदों को पढ़ते ही नहीं, या पढ़ते भी हैं तो ढंग से उस पर चिंतन नहीं करते. जब मैं किसी हिन्दू भाई से यह पूछता हूँ कि आपके भगवद गीता में, मनुस्मृति में, वेद में तथा अन्य शास्त्रों मेंभी तो लड़ाई और युद्ध के प्रति ऐसा-ऐसा लिखा है, तो वह कहते हैं कि “वह तो बुराई के खिलाफ लड़ने का आदेश है”. तब मैं उनसे निवेदन करता हूँ यही “बुराई के खिलाफ़ लड़ने का आदेश” कुरआन में भी लिखा है, तब वह कहते हैं जी सही बात है, मैं आपकी बातों से सहमत हूँ. अगर कोई इस्लाम से सम्बंधित सवाल करते हैं, आलोचना करते हैं तो उनकी ग़लतफ़हमियों को दूर करने का सबसे बेहतर तरीका मेरे विचार से यही है कि मैं उनके भ्रांतियों को उनके ही धार्मिक पुस्तकों से सिद्ध करूँ ताकि वो भली भाँति उस प्रश्न, भ्रांति अथवा जिज्ञासा को समझ सकें.

आखिर में मैं यही कहना चाहूँगा कि क़ुरआन हम सब से आह्वान करता है कि

“कहो ऐ किताब वालों! आओ उस बात की ओर जो हम में और तुम में समान है” (कुरआन 3:64).

(इसका पहला भाग भी पढ़ें: भगवद गीता में जिहाद – I)

 

(हाफ़िज़ शान बिहारी इस्लाम और वेदों के ज्ञाता हैं. यह लेख दीने इस्लाम और हिन्दू धर्म के बीच समानताओं पर आधारित है तथा गीता और क़ुरआन के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर जिहाद को समझाने का एक प्रयास है.)

 

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