12 सितंबर 1730 – वह दिन जब महाराजा अभय सिंह राठौर ने अपना महल बनवाने के लिए बिश्नोई समाज के 363 लोगों की करवाई थी नृशंस हत्या

12 सितंबर, 1730 की इस घटना को याद कर आप काँप उठेंगे जब तत्कालीन मारवाड़ के महाराजा अभय सिंह ने 294 पुरुष और 69 महिलाओं सहित कुल 363 लोगों की नृशंस हत्या महज अपना महल बनवाने के लिए करवाई थी. महाराज को अपना राजमहल बनवाने के लिए चूने का गाड़ा बनानी थी और वह पेड़ो की लकड़ियों को जलाकर बनता था. पेड़ों को बचाने के लिए स्थानीय बिश्नोई समाज की महिला शहीद अमृता देवी बिश्नोई और उनकी दो बेटियां जिन पेड़ों की सुरक्षा के लिए उनसे लिपटीं उन पेड़ों के साथ उनके शरीर को भी काट दिया गया.




12 सितंबर, 1730 की इस घटना को याद कर आप काँप उठेंगे जब तत्कालीन मारवाड़ के महाराजा अभय सिंह ने 294 पुरुष और 69 महिलाओं सहित कुल 363 लोगों की नृशंस हत्या महज अपना महल बनवाने के लिए करवाई थी. महाराज को अपना राजमहल बनवाने के लिए चूने का गाड़ा बनानी थी और वह पेड़ो की लकड़ियों को जलाकर बनता था. पेड़ों को बचाने के लिए स्थानीय बिश्नोई समाज की महिला शहीद अमृता देवी बिश्नोई और उनकी दो बेटियां जिन पेड़ों की सुरक्षा के लिए उनसे लिपटीं उन पेड़ों के साथ उनके शरीर को भी काट दिया गया.

खेजड़ली नरसंहार

खेजड़ली गांव राजस्थान के जोघपुर ज़िला का गाँव है जो जोधपुर से दक्षिण पूर्व में लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. खेजड़ी वृक्षों (Khejri Tree) की बहुत अधिक संख्या होने के कारण इस गाँव का नाम खेजड़ली (Khejadli) या खेजरली (Khejarli) पड़ा था.

खेजड़ली स्मारक (साभार: विकिपीडिया)

यह घटना 1730 की है जब जोधपुर (Jodhpur) का महाराजा अभय सिंह राठौर (Maharaja Abhay Singh Rathore) था. महाराजा अभय सिंह राठौर के आदेश अनुसार उसके पुश्तैनी दीवान गिरधर दास भंडारी ने खेजड़ी वृक्षों को काटने का फरमान जारी किया था. खेजड़ी वृक्ष को बिश्नोई समाज द्वारा बहुत ही उपयोगी माना जाता है. इसे आम तौर पर कांडी के नाम से जाना जाता है और रेगिस्तानी इलाकों में अधिक होता है. इसका महत्व होने के कारण बिश्नोई समाज के लोगों की इससे बहुत अधिक श्रद्धा है.

उस समय जोधपुर के किले का निर्माण चल रहा था. चूने के पत्थरों को जलाने के लिए लकड़ी की आवश्यकता थी इसलिए दीवान गिरधर दास भंडारी (Girdhar Singh Bhandari) ने जोधपुर के आस-पास उन गांव का सर्वे करवाया जहां खेजड़ी के पेड़ सबसे अधिक थे. सर्वे के बाद खेजड़ली गांव में सबसे अधिक खेजड़ी के पेड़ पाए गए। उसके बाद महाराजा अभय सिंह का दीवान गिरधर दास भंडारी अपने सैनिकों के साथ खेजड़ली गांव में पेड़ काटने के उद्देश्य से आया तो गांव के लोगों ने इसका विरोध किया.

खेजड़ली के लोगों ने इस घटना की सूचना 84 गांव के बिश्नोईयों के पास भिजवा कर गुड़ा गांव में एक महापंचायत रखी और उस महापंचायत में यह निर्णय हुआ कि बिश्नोई समाज के लोग खेजड़ी के पेड़ों को नहीं काटने देंगे यह सूचना साफ साफ शब्दों में गिरधर दास भंडारी के पास पहुंचा दी गई फिर भी सैनिकों ने खेजड़ी के पेड़ों को काटना जारी रखा तो बिश्नोईयों ने यह निर्णय लिया कि पेड़ों को नहीं काटने देंगे और अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में एक व्यक्ति एक पेड़ के साथ लिपट कर कटता गया इस बलिदान में 60 गांव के 64 गोत्रों के 217 परिवारों के 294 पुरुष और 69 महिलाओं सहित काट दिया.

अमृता देवी बिश्नोई मंदिर (साभार: विकिपीडिया)

इस आंदोलन में 36 दंपत्तियाँ पूरी तरह से समाप्त हो गई. पेड़ों को बचाने के लिए इस नरसंहार में सबसे पहले अपना बलिदान देने वाली बिश्नोई शहीद अमृता देवी के नाम को चिरस्थाई रखने के लिए भारत सरकार, राजस्थान सरकार और मध्य प्रदेश सरकार पेड़ों और वन्यजीवों के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को अमृता देवी बिश्नोई के नाम से पुरस्कार प्रदान करते हैं.

हर वर्ष यहाँ इस नरसंहार को याद रखने के लिए इस दिन (भादो सुदी दशमी) मेले का आयोजन किया जाता है.

इस नरसंहार का उल्लेख रोजर एस. गोटलिब (Roger S. Gottlieb) ने अपनी पुस्तक This Sacred Earth: Religion, Nature, Environment में किया है. बिश्नोई समाज के बलिदान की याद में यहाँ अमृता देवी बिश्नोई के नाम से एक मन्दिर और स्मारक का निर्माण भी कराया गया है.

खेजड़ी का महत्व

विकिपीडिया के अनुसार, खेजड़ी का वृक्ष जब अक्सर पेड़ सूख जाते हैं तब भी हरा रहता है. भयंकर गर्मी के महीनों में रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है. जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है. इसका फूल मींझर कहलाता है. इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है. यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है. इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है. इसकी जड़ से हल बनता है. अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है. सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे. इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है.

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