

तेजस्वी यादव जिस दिन चुनाव लड़ने योग्य हुए, उसी दिन से उन्होंने खुद को बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया. उनकी इस आकांक्षा को राजद और इसके भीतर के मूल समर्थन-आधार से कोई चुनौती देने वाला भी नहीं था. उनके लोगों की दृष्टि में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की शागिर्दी में उनके उपमुख्यमंत्री की शुरुआत, महज उनके मुख्यमंत्री के तौर पर गद्दी संभालने से पहले का अस्थायी अवधि था. सौभाग्य से, यह अवधि (दो साल से भी कम का) बहुत सारे लोगों की सोच की अपेक्षा बहुत कम समय का निकला.
बमुश्किल अपनी आयु के 20वें वर्ष में, तेजस्वी के कन्धों पर बहुत ही डरावनी चुनौतियां आ पड़ी. उन्हें अपने लोगों को एक साथ रखना, संगठन को मजबूत करना, और यादवों और मुसलमानों से बाहर जाकर राजद के आधार को व्यापक बनाना पड़ा, क्योंकि, यादवों का एक वर्ग उन्हें छोड़ कर भाजपा में चला गया. मुसलमान अब तक इनके बंधुआ मतदाता बने रहे.
लालू प्रसाद जो चुनाव अभियान में अपने अनोखे शैली से मनोरंजन कर भीड़ खींच सकते थे के जेल में रहने पर, तेजस्वी को चाहिए कि वह आक्रामक अभियान चलाएँ और मोदी सरकार को अर्थ व्यवस्था, गाँव की बदहाली, युवा बेरोज़गारी, नोटबंदी के कष्ट, GST से व्यापारियों की बदहाली, जन धन जैसी कल्याणकारी योजनाओं की विफलताएं, काला धन लाने में नाकामी, प्रत्येक नागरिक को 15 लाख न मिलना जैसे मोर्चों पर बेनकाब करें.
इससे भी बड़ी बात, आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण देकर जो सामाजिक न्याय पर मोदी ने हमला किया वह भी तेजस्वी के अभियान का हिस्सा नहीं लगता. मुसलमानों के उत्पीड़न और उनकी लिंचिंग तो मूक धर्मनिर्पेक्षों के मुद्दों में ही नहीं हैं!
टिकट आबंटन के कारण मधुबनी, शिवहर, मोतिहारी सहित कई सीटों पर पहले ही गलत संदेश गया है.
ऐसी अफवाहें हैं कि: (अ) छोटे संगठनों ने टिकट चाहने वालों से भारी मात्रा में शुल्क वसूल किया है, (ब) इन संगठनों के बड़े नेता चुनावी सभाओं की सार्वजनिक बैठकों में जाने के लिए भी पैसे मांग रहे हैं. इन अफवाहों पर बड़े पैमाने पर बहुत सारे मतदाताओं ने भरोसा भी कर लिया है.
लालू परिवार के भीतर पारिवारिक कलह है और बेतुकी बातें खुलकर सामने आ रही हैं. इन सब ने पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर असर डाला है.
इन सभी को शांत करने के लिए, उन्हें अपनी क्षमता अनुसार, राजग की विफलताओं को बेनकाब करने के लिए जितना हो सकता हो, सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करना चाहिए. तेजस्वी के समर्थकों को उनसे यह भी उम्मीद है कि वह लालू की सज़ा को चुनाव में भुना कर सहानुभूति लेंगे.
ग्राउंड रिपोर्ट से ऐसा लगता है कि औरंगाबाद को छोड़कर, उपेंद्र कुशवाहा (रालोसपा) के साथ गठबंधन होने के बावजूद कुशवाहा वोट महागठबंधन में नहीं आ पा रहे है. इसका एक कारण यह समझ में आ रहा है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि नीतीश कुमार ने पहले ही कुशवाहा समाज के कई राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अपने में मिला लिया है.
इसी तरह, मुकेश साहनी के साथ गठबंधन करने के बावजूद मुजफ्फरपुर और वैशाली में महागठबंधन मल्लाह वोट को आकर्षित नहीं कर पा रहा है. 2014 में, बीजेपी के अजय निषाद मुजफ्फरपुर से चुने गए थे, और जद (यू) के विजय साहनी ने वैशाली में लगभग 1.5 लाख वोट हासिल किया था.
लोगों को यह भी उलझन है कि आखिर तेजस्वी और उनके सहयोगियों के बड़े चेहरे अपने साझा सार्वजनिक रैलियां करने को लेकर इतना इत्मीनान (चैन) से क्यों हैं.
जिस तप के साथ उन्होंने बेगूसराय से चुनाव लड़ने पर ज़ोर दिया और सीपीआई के साथ गठबंधन नहीं किया, और जिस सहजता के साथ तेजस्वी ने मधुबनी में साहनी के वीआईपी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, और राजद के एक वरिष्ठ मुस्लिम नेता अशरफ़ फ़ातमी को भी बाहर फेंक दिया, वह भी बहुत पेचीदा है. तेजस्वी ने इतना ही नहीं किया बल्कि फातमी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी (दरभंगा किसी की बपौती नहीं है) भी की.
बता दें कि 2014 में आरजेडी बेगूसराय 60,000 वोटों से हारी थी, जबकि मधुबनी में इसको मात्र 16000 वोटों से हार मिली थी, जहां से फातमी को इस साल चुनाव लड़ना था. इस सीट पर अब अब्दुल बारी सिद्दीकी को दरभगा से बदल कर लड़वाया जा रहा है.
घाव पर नमक छिड़कने के लिए, फातमी को बगल का शिवहर भी नहीं दिया गया. इसके बजाय, मगध के एक बाहरी मुसलमान और राजनीति के एक नए चेहरे को यहाँ से उतार दिया गया. इस उम्मीदवार का कथित तौर पर कुछ विशेष भाजपा नेताओं से करीबी है. इस पसंद पर न केवल शिवहर के राजद कार्यकर्ताओं ने आपत्ति की बल्कि तेजस्वी के बड़े भाई तेजप्रताप यादव ने भी इस पर नाराजगी जताई है.
परिणामस्वरूप, फातमी बसपा में चले गए हैं और उन्होंने मधुबनी से कुछ मुस्लिम संगठनों के साथ-साथ सीपीआई से समर्थन हासिल करने के बाद नामांकन दाखिल कर दिया. सीपीआई की यहाँ अच्छी पकड़ है और 1970 और 1980 के दशक में सीपीआई मधुबनी में जीतती भी रही है. मधुबनी में वीआईपी उम्मीदवार के तौर पर पहली पसंद को आरएसएस के साथ उनके संबंध होने को लेकर हंगामे के बाद बदल दिया गया. नए उम्मीदवार पर भी भगवा संगठनों के प्रति सहानुभूति रखने का आरोप है.
इन सभी ने मुसलमानों के एक वर्ग को और राजद के कई वरिष्ठ नेताओं जैसे मंगनी लाल मंडल और कई अन्य लोगों को नाराज़ किया है.
बिहार पर नजर रखने वालों का मानना है कि आपसी कलह, विद्रोह और उम्मीदवारों के गलत चयन के कारण, महागठबंधन मोतिहारी, शिवहर, मधुबनी, दरभंगा, सुपौल आदि में हार सकती है.
उन्हें लगता है कि तेजस्वी ने चुनौती देने वाले पप्पू यादव को मात देने के लिए शरद यादव को पार्टी में लिया है और पप्पू को महागठबंधन से बाहर कर दिया; यहाँ तक कि तेजस्वी पप्पू की पत्नी रंजीता रंजन के खिलाफ भी राजद उम्मीदवार खड़ा करने का मन बना रहे थे, जो सुपौल से कांग्रेस (महागठबंधन) की उम्मीदवार हैं. हालांकि इस निर्णय को बाद में वापस ले लिया गया. अब भी रंजीता रंजन को लेकर राजद कार्यकर्ताओं में उदासीनता बनी हुई है. (इस पर द हिन्दू ने रिपोर्ट भी की है.)
अब, सवाल यह है कि तेजस्वी ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या वह वास्तव में खुद को हराने वाली दुर्गति की ओर ले जा रहे हैं? या इसके पीछे कोई तरीका/मंसूबा है? उनके अभियान में इतना फीकापन और समन्वय की कमी क्यों है?
राजद के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि तेजस्वी ऐसा किसी मंसूबे (रणनीति) के तहत कर रहे हैं. वह वरिष्ठ और मुखर नेताओं से छुटकारा पाना चाहते हैं और अपनी पार्टी अपने ऐसे वफादारों के साथ तैयार करना चाहते हैं जिनकी पकड़ जनता के बीच कमजोर हो या न हो और राजद संगठन पर भी पकड़ कमजोर हो. वह ऐसा 2020 के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों को नज़र में रख कर कर रहे हैं. वह यह सोचते हैं कि अगर लोकसभा में आरजेडी के सहयोगी अधिक सफल हो गए, तो ये पार्टियाँ विधानसभा चुनावों में अधिक से अधिक सीटें मांगेंगी. इस स्थिति में, मुख्यमंत्री के लिए तेजस्वी की उम्मीदवारी को पूरी तरह से खतरा हो सकता है. ऐसी आशंकाएं भी हैं कि अगर कांग्रेस की नेतृत्व वाला गठबंधन नई दिल्ली में एनडीए का स्थान ले लेगा, तो नीतीश कांग्रेस के साथ फिर से जुड़ सकते हैं, और समय से पहले विधानसभा चुनाव करा सकते हैं.
यह भी माना जा रहा है कि इस तरह की आशंकाओं के कारण, तेजस्वी ने बड़े पैमाने पर टिकट आवंटन में अजलाफ-अरज़ल (मुस्लिम पिछड़े/दलित) नेताओं की अनदेखी की है, क्योंकि लंबे समय से यह धारणा है कि मुसलमानों के इन वर्गों में राजद की तुलना में नीतीश का झुकाव अधिक है; और, जिस पल नीतीश बीजेपी को छोड़ देंगे, यह आधार उनकी ओर वापस चला जाएगा. नए परिवर्तन के इस संभावित परिदृश्य में, बिहार की सवर्ण जातियां भी तेजस्वी के अलावा किसी और को मुख्यमंत्री बनाने में अधिक सहज होंगी.
तेजस्वी को यह भी लगता होगा कि मुख्यमंत्री बन कर ही वह अपने “वंशवादी साम्राज्य” - बिहार को संभाल सकते हैं. ऐसा परिदृश्य उन्हें राजनीतिक गुमनामी में भेज देगा.
इसके विपरीत, यदि उनके सहयोगी कम सफल होते हैं, और बीजेपी मजबूत होती है, तो इससे मुसलमान भयभीत होंगे, और निराश होकर राजद का दामन ज्यादा शिद्दत से थामेंगे और उभरते आकांक्षी मुस्लिम युवाओं को सत्ता में आनुपातिक हिस्सेदारी मांगने का अवसर नहीं मिलेगा. उलटे, ऐसी स्थिति में मुसलमानों के वोटों को राजद के लिए अपने क़ब्ज़े में रखना आसान होगा.
फिर भी, तेजस्वी और उनके कूट सलाहकारों को एक और संभावना का अनुमान लगाना चाहिए: यदि एमआईएम किशनगंज लोकसभा जीतती है, तो आगामी विधानसभा चुनावों में, सीमांचल में यह पार्टी कुछ और सीटें जीत सकती है. यह भी हो सकता है कि, एमआईएम 2020 के विधानसभा में निम्न वर्गों के साथ गठबंधन में प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभर आए; या कम से कम, एमआईएम सीमांचल की कई विधानसभा सीटों पर राजद की जीत की संभावना को बिगाड़ने की क्षमता रख सकती है.
इसी तरह, कन्हैया बेगूसराय जीतें या न जीतें, वह और उनकी सीपीआई और सीपीआई-एमएल बिहार की राजनीति में गंभीर शक्ति के रूप में बने रहेंगे. बड़ी संख्या में मतदाता विकल्प की तलाश में हैं. वैसे भी विधानसभा चुनाव में तेजस्वी को उनकी जरूरत होगी.
हालांकि, तेजस्वी को यह समझना ज़रूरी है कि “बंधुआ मतदाताओं” की बढ़ती आवाज़ों और आकांक्षाओं को लंबे समय तक दबाया नहीं जा सकता है. इसके अलावा उनके इस तरह के निहितार्थों से भरे मंसूबों में खतरे बहुत हैं. यदि तेजस्वी के ये मोहरे कहीं बिखर गए तो इसका सबसे ज्यादा खमियाज़ा उन्हें ही भुगतना पड़ सकता है, और ऐसा न हो कि, यह सब करके वह राजनीतिक गुमनामी में चले जाएं.
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं. यह Muslim Politics in Bihar: Changing Contours (Routledge) के लेखक हैं.)