गांधी के आखरी दिन- 1




Gandhi in Mirazpur
उत्तर प्रदेश के Charlea प्रदर्शन के दौरान चरखा से सूत कातते हुए महात्मा गाँधी (फ़ोटो साभार: हल्टन आर्काइव/गेट्टी इमेजेज)

-अपूर्वानंद

कांग्रेस के साथ गांधी की बहुत बहस हुई और यह बहस शब्दों की बहस थी, भाषा की बहस और जो लोग मानते हैं कि भाषा बेकार चीज़ है और किसी भी शब्द में कुछ भी कहा जा सकता है उन्हें देखना चाहिए कि कैसे कांग्रेस के यह नेता आपस में शब्दों को लेकर बहस करते थे.

आज के दिन को यानी 30 जनवरी को हम शहादत दिवस के नाम से जानते हैं, शहीद दिवस के नाम से जानते हैं. हम दो लोगों को शहीद ए आज़म के विशेषण से याद करते हैं. शहीद ए आज़म विशेषण का इस्तेमाल हम भगत सिंह के लिए भी करते हैं और गाँधी जी के लिए भी करते हैं. दोनों की मौत दो तरह की है, दोनों शहीद हैं. भगत सिंह की मौत अंग्रेजों के हाथ हुई, अंग्रेजों ने फैसला किया कि भगत सिंह की मौत इस तरह से होगी, फांसी से, अंग्रेजों के कब्जे वाले गुलाम भारत में भगत सिंह मारे गए. गांधी जी शहीद हुए आज़ाद हिंदुस्तान में, हिंदुस्तान को आज़ाद हुए बमुश्किल पांच महीने ही हुए थे.



गांधी गुलाम हिंदुस्तान में, ब्रिटिश हिंदुस्तान में तकरीबन 35 साल रहे अगर आप 1915 से 1947 को देखें. उसके पहले के वर्षों को भी गिन लें. हालांकि उनमें 21 साल वह दक्षिण अफ्रीका में रहें. तो इतने वर्षों तक दुनिया के सबसे ताक़तवर हुकूमत को चुनौती देते रहे हैं और वो हुकूमत जिसे खुद अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानती है वह दुश्मन पैंतीस साल तक उसकी जेलों में रहा या जैसे भी रहा लेकिन जिंदा रहा और लड़ता रहा लेकिन आज़ाद हिंदुस्तान उसे पांच महीने भी नहीं रख सका, पांचवे महीने में आज़ाद हिंदुस्तान ने उसे रुखसत कर दिया, ऐसा लगा कि कुछ ज्यादा ही गांधी को देख लिया गया था. कुछ ज्यादा हो रहा था गांधी. और अब उसे हमारे बीच से चले जाना चाहिए था क्योंकि काम हो चुका था. और अब गांधी हमें परेशान कर रहा था. काम हो चुका. हमारे हाथ में ताक़त आ चुकी और अब गांधी यह कह रहा कि उस ताक़त का इस्तेमाल तुम वैसे नहीं करोगे जैसे कर रहे हो. और यह वह सुबह दोपहर शाम कहता है. और यह वह सिर्फ़ एक हक से कह रहा है. उसका कहना है कि मैंने तुम्हें रास्ता दिखाया था. जिस रास्ते तुम्हें आज़ादी मिली है. तो जो एक परेशानी थी.परेशानी यह कि यह गांधी 1947 के 15 अगस्त के बाद हिन्दुस्तानियों और पाकिस्तानियों को लगातार कह रहे थे कि यह जो आज़ादी तुम्हें मिली है, तुम्हारे हाथ में ताक़त आ गयी है. इस ताक़त का इस्तेमाल तुम कैसे करोगे यह तुम्हें सोचना होगा. वैसे नहीं जैसे तुम अभी कर रहे हो.

अहिंसा कभी भी कमजोरों की हथियार हो नहीं सकती. अहिंसा तो हमेशा मज़बूत का हथियार ही हो सकती है, ताक़तवर का, ताकत आप के पास है और तब आप उसका हिंसक इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं तभी आप अहिंसक हैं लेकिन ताक़त आपके पास आ गयी और उसके बाद आप वह कर रहे हैं जो १९४७ और १९४६ में हिन्दुस्तानियों ने एक दुसरे के साथ किया यानी हिन्दुओं ने मुसलमानों के साथ सिखों ने मुसलमानों के साथ और मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ जहाँ जो ज्यादा तादाद में था तो इससे यह साबित होता है कि दरअसल हिन्दुस्तानी अहिंसा के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते

गांधी ने इस विषय पर बात करते समय एक विदेशी पत्रकार से कहा जब विदेशी पत्रकार ने उनका ध्यान इस तरफ दिलाया कि आपका कहना यह था कि भारत हिंसा के रास्ते आज़ाद हुआ है लेकिन ऐसा दिखाई पड़ता है कि आज़ादी के बाद अब वे ही भारतीय जिनके बारे में कहा जाता है कि उनहोंने आपके बताए हुए अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए आज़ादी हासिल की है वही भारतीय आपके अहिंसा को पूरी तरह से भूल गए हैं या फिर वे उसे मानते ही नहीं हैं. गांधी ने उस पत्रकार को कहा कि मैं आपकी बात पर विचार कर रहा हूँ और मुझे आपकी बात एक हद तक ठीक मालूम होती है और गांधी ने कहा कि मुझे याद आता है बहुत पहले दक्षिण अफ्रीका में मेरा परिचय दिलाते हुए एक अँगरेज़ ने कहा था कि यह पैसिव रेसिस्टर (passive resistor) हैं क्योंकि यह बेचारे भारतीय हैं और इनके हाथ में ताक़त नहीं हैं और उस वक़्त मैं नाराज़ हुआ था ऐसा परिचय दिलाने पर कि मैं पैसिव रेसिस्टर हूँ निष्क्रिय प्रतिरोध करने वाला, लेकिन अब मुझे लगता है कि वह ठीक था और आप जो मुझे कह रहे हैं तो मैं कह सकता हूँ कि हाँ शायद यह बात ठीक थी और अब तक हिंदुस्तान ने जो किया जिसे अहिंसक प्रतिरोध कहा जाता है उसे अहिंसक प्रतिरोध नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि अब तक जो हमने किया था वह वाक़ई अहिंसा नहीं थी. और शायद जो हम कर रहे थे वह एक रणनीति थी और वह रणनीति इसलिए थी क्योंकि हमारा मुकाबला एक ऐसे दुश्मन के साथ था जिसके पास बहुत ताक़त थी, फ़ौज थी, और हथियार थे और बहुत कुछ था और हम उसका मुक़ाबला हथियारों से नहीं कर सकते थे इसलिए हम ने एक रणनीति निकाली जिसे हमने अहिंसा कहा लेकिन वह उसूल नहीं था. गांधी ने अंग्रेज़ी में कहा it was not a creed it was a policy. कांग्रेस के बारे में भी उनहोंने कहा कि मैं साफ़ करना चाहता हूँ कि for me non violence has been a creed धर्म या उसूल but for congress it was never a creed it was a policy, it never became a creed for Congress कांग्रेस के लिए कभी भी उसूल नहीं रहा.



कांग्रेस के साथ गांधी की बहुत बहस हुई और यह बहस शब्दों की बहस थी, भाषा की बहस और जो लोग मानते हैं कि भाषा बेकार चीज़ है और किसी भी शब्द में कुछ भी कहा जा सकता है उन्हें देखना चाहिए कि कैसे कांग्रेस के यह नेता आपस में शब्दों को लेकर बहस करते थे. बहस थी जिसमें गांधी कह रहे हैं कि कांग्रेस पीसफुल (peaceful) को बदले और नॉन वायलेंट (non violent) करे और कांग्रेस तैयार नहीं होती. दोनों ईमानदार हैं. क्योंकि कांग्रेस जानती है कि नॉन वायलेंट करने के मानी क्या है और गांधी जानते हैं कि कांग्रेस नॉन वायलेंट नहीं कर सकती इसलिए पीसफुल ली.

पीसफुल और नॉन वायलेंट के खाई गहरी है. इसको मोटा मोटी तौर पर ऐसे समझा जा सकता है कि यह क्रीड और पालिसी का मामला है. यानी यह रणनीति है स्ट्रेटेजी है क्योंकि मैं एक ताक़तवर शत्रु से उसी की ज़मीन पर नहीं लड़ सकता इसलिए मैं एक दुसरी ज़मीन खोज रहा हूँ और वह जिसे गांधी ने कहा कि मैं ने नॉन वायलेंस कहा अहिंसा कहा लेकिन वह वाक़ई अहिंसा नहीं था. क्योंकि गांधी ने परिभाषित किया दुसरे तरीके से उनहोंने कहा कि अहिंसा कभी भी कमजोरों की हथियार हो नहीं सकती. अहिंसा तो हमेशा मज़बूत का हथियार ही हो सकती है, ताक़तवर का, ताकत आप के पास है और तब आप उसका हिंसक इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं तभी आप अहिंसक हैं लेकिन ताक़त आपके पास आ गयी और उसके बाद आप वह कर रहे हैं जो 1947 और 1946 में हिन्दुस्तानियों ने एक दुसरे के साथ किया यानी हिन्दुओं ने मुसलमानों के साथ सिखों ने मुसलमानों के साथ और मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ जहाँ जो ज्यादा तादाद में था तो इससे यह साबित होता है कि दरअसल हिन्दुस्तानी अहिंसा के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते यह एहसास गांधी को अपने आखरी दिनों में होता है वह इस पर बार बार बोलते हैं और बार बार लिखते हैं और उस बात को स्वीकार करते हैं खुले आम और गांधी की एक खासियत है जो हमारे आज कल के नेताओं के तरह नहीं थे. वह स्वीकार करते हैं कि हाँ यह कमी थी और फिर वह कहते हैं और तब मुझे यह सोचना पड़ेगा जब उनसे कहा जाता है कि तो क्या यह मान लिया जाए कि अहिंसा का सिद्धांत ही गलत था. और विफल हुआ. गांधी कहते हैं नहीं, मैं यह मान नहीं सकता है.

अहिंसा तो सत्य है और अहिंसा का सिद्धांत भी बिलकुल ठीक है लेकिन अहिंसा के सिद्धांत का पालन करने के लिए और उसे लागू करने के लिए जो औज़ार था, जो उपकरण वह उपकरण पक्का नहीं था. और उसमें वह भारतीय जनता को दोष नहीं देते हैं, वह अपने आप को दोष देते हैं. उसमें दोनों बातें हैं वह दिलचस्प है वह कहते हैं यह हो सकता है कि ईश्वर ने मुझे चुना इस रणनीति के लिए, और इससे हमने एक चीज़ हासिल कर ली जो कि आज़ादी थी. इतना तो हुआ लेकिन मैं जो चाहता था वह न हुआ और वह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि शायद मैं जो उपकरण था वह पूर्ण नहीं था, वह पक्का नहीं था, और मुझमें कुछ दोष है, और मुझे अपने आप को पक्का करना है. तो गांधी हर जगह और आखरी दिनों में ख़ास कर इसकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए दिखाई देते हैं. यह जो कमी थी इसकी वजह शायद मैं था. मैं पक्का नहीं था और मुझे अपने आपको पक्का करना है. गांधी के अंतिम दिनों में यह बहस उनके मन के भीतर बहुत तेज़ होती है और दुसरे लोगों से इस पर लगातार बात चीत करते रहते हैं कि अहिंसा कितनी ठीक है. और अहिंसा कितनी दूर तक लागू की जा सकी और नहीं की जा सकी और उनहोंने कहा कि मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है.

लोगों को संबोधित करते हुए फिर उनहोंने कहा मैं यह कहना चाहता हूँ कि आपने जो अब तक किया है वह अहिंसा नहीं है वह बाध्यता है क्योंकि अब जो आप कर रहे हैं उससे यह साबित होता है कि आप अहिंसक नहीं हैं, और तब वे जो कर रहे थे वह यह था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बन जाने के फैसले के बाद हिन्दू मुसलमानों को ज़िंदा नहीं देखना चाहते और मुस्लमान जहाँ ज्यादा थे वह हिन्दुओं को जिंदा नहीं देखना चाहते और तब गांधी के अहिंसा की अपील बिलकुल ही बेकार हो गयी थी.

आज एक सवाल उठा कि आखिरकार गांधी जो इतना लोकप्रिय थे जिनके आवाज़ से पूरा देश चल पड़ता था वह अचानक इतना अलोकप्रिय कैसे हो गए. यानी गांधी अपने आखरी दिनों में शायद एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में सबसे अलोकप्रिय थे. क्योंकि गांधी की बात किसी को पसंद नहीं आ रही थी, कोई सुनने को तैयार नहीं था, और गांधी एक जगह से दूसरी जगह भागते फिर रहे थे कहते हुए, मिन्नत करते हुए, प्रार्थना करते हुए, पुकारते हुए, डांटते हुए लेकिन वही जनता जो जनता उनकी पुकार पर एक कतार में खड़ी हो जाती थी वह इसके लिए तैयार हुई कि अंग्रजों की लाठी उस पर चले और वह ऊफ न करे, लाठी चले और वह लाठी का भार बर्दाश्त करे, पीट जाए, फिर एक दुसरी सफ आ कर खड़ी हो, लाठी पड़े और गिर जाए जो इसके लिए तैयार थी वह यह क्यों नहीं सुन रही थी. हिन्दू मुसलमान को नहीं मारेंगे और मुस्लमान हिन्दू को नहीं मारेंगे क्यों यह नहीं सुन रही थी. इसका उत्तर पूरी तरह से मेरे पास नहीं है सिवाय कि मुझे प्रेमचंद याद आते हैं और प्रेमचंद का एक उद्धरण याद आता है, प्रेमचन्द ने कहा है कि उस उद्धरण में कि “व्यक्ति के भीतर एक उदार प्रवृति होती है और एक हिन प्रवृति होती है अंग्रेज़ी में कह सकते हैं एक सबलाइम इंस्टिक्ट और लेसर इंस्टिक्ट. प्रेमचंद कहते हैं कि किसी शासन को कोई यदि आप नापना चाहें कि वह शासन कैसा है तो आप इसकी जांच सिर्फ़ इस बात से कर सकते हैं कि उस शासन में जनता की बेस इंस्टिक्ट उभर रही हैं या सबलाइम इंस्टिंक्ट उभर रही हैं, जीडीपी से किसी शासन की जांच करने से बेहतर है कि आप यह देखें कि उस शासन में जनता के अंदर के जो बेस इंस्टिंक्ट (base instinct) हैं उसका उभार हो रहा है या उसके जो डिवाइन इंस्टिंक्ट हैं या सबलाइम इंस्टिंक्ट हैं उनका उभार हो रहा है. उससे आप आज के शासन की भी जांच कर सकते हैं. हमारे भीतर का कौन सा पक्ष उभर रहा है. हमारे भीतर दोनों ही प्रकार के पक्ष होते हैं.

(क्रमशः)

(अपूर्वानंद जाने माने समाज शास्त्री और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं. यह आलेख पिछले वर्ष उनके सरिता-महेशा व्याख्यान पर दिए गए भाषण का ट्रांसक्रिप्ट है. अगली कड़ी कल 31 जनवरी, 2019 से कुछ किस्तों में प्रकाशित होगी)

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