बिहार में मल्लाह समीकरण




अजय निषाद, मुकेश सहनी और डॉ संजय निषाद (बाएँ से दाएँ)
             मोहमम्द सज्जाद

हाल में, बिहार और पड़ोसी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में मल्लाहों (हिंदू मछुआरे और नाविक) की ओर से राजनैतिक पार्टी बनाने और राजनीति में दावेदारी को मज़बूत करने को लेकर प्रयास किए गए हैं.

2018 के अंत में, मुंबई में फिल्म निर्माता रहे और दरभंगा के मूल निवासी मुकेश सहनी ने 4 नवंबर, 2018 को अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी विकासशील इन्सान पार्टी (वीआईपी) का गठन किया, और राजद नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ इसका गठबंधन किया.

इसके थोडा पहले ही, डॉ. संजय निषाद ने एक पार्टी, निषाद पार्टी का गठन किया था, और उनके बेटे, प्रवीण निषाद ने उप-मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (अजय बिष्ट) के गृह-क्षेत्र, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) से उप-चुनाव लड़ा था. सपा और बसपा के समर्थन से उन्होंने जीत हासिल की. इसके बावजूद, 2019 के चुनाव में वह समाजवादी पार्टी को छोड़ कर भाजपा के साथ गठबंधन करके लड़ रहे हैं. इससे पता चलता है कि किस तरह निम्न ओबीसी वर्ग के लोग यादवों से दूरी बना रहे हैं. ओबीसी में निचला वर्ग उत्तर प्रदेश में लगभग 40% हैं. बिहार में इनकी आबादी 32% है.



आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी (HYV) बिहार के समीपवर्ती सारण और शाहाबाद क्षेत्रों में ख़ास कर राजपूत आबादी वाले इलाकों में फैल रही है. योगी आदित्यनाथ खुद राजपूत हैं. क्या इस चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश के इन इलाकों में राजपूत-मल्लाह की एकजुटता राजग के पक्ष में दिखाई देगा?

18 जनवरी 2015 को अज़ीज़पुर (सरैया, मुज़फ़्फ़रपुर, वैशाली लोकसभा क्षेत्र) में सांप्रदायिक हिंसा होने के बाद ख़ास कर, मीडिया और राजनीति का ध्यान बिहार के मल्लाहों की तरफ गया. कहा जाता है कि वे मुस्लिम विरोधी हिंसा और लूट में सबसे आगे रहे थे (EPW में प्रकाशित 31 जनवरी, 2015 के मेरे निबंध, “Caste, Community and Crime: Explaining the Violence in Muzaffarpur”देखें).

संभवतः, मुजफ्फरपुर और वैशाली लोकसभा (संसदीय) सीटों को मिला कर – आज के मुजफ्फरपुर में निषाद, सहनी और कभी-कभी मांझी के उपनाम वाले मल्लाह हिन्दू अति पिछड़ा (अत्यंत पिछड़ा) जाति में “प्रमुख जाति” बन गई हैं. उन्होंने राजपूतों और भूमिहार-ब्राह्मणों के साथ-साथ यादवों, कोइरी, कुर्मियों की जगह ले ली है, जो कुछ दशक पहले इन इलाकों में प्रभावी रहे थे.

कई बार, मुजफ्फरपुर से मल्लाह समुदाय के सांसद चुने गए हैं, जिनमें मुजफ्फरपुर के पिछले सांसद कैप्टन जयनारायण निषाद (1930-2018) के बेटे भाजपा के अजय निषाद शामिल हैं. सांसद चुने जाने से पहले, उनका मुजफ्फरपुर में रसोई गैस (एलपीजी) का व्यापार रहा है.

जयनारायण निषाद से पहले, 1970 से 1980 के दशक के दौरान, मुशारी (मुज़फ्फ़रपुर) के ज़मींदार नेता और विधायक रामकरन सहनी हुआ करते थे जिनको बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर (1924-1988) का संरक्षण हासिल था. ठाकुर ने उनकी रैलियों को 19 जून, 1983 में और अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले 14 फ़रवरी, 1988 को किया था. (https://www.rediff.com/news/column/karpoori-thakur-and-the-power-of-street-politics/20190123.htm )

यह भी पढ़ें: Karpoori Thakur and the power of street politics

वैशाली लोकसभा क्षेत्र में, 2014 में, जद (यू) के उम्मीदवार विजय सहनी मल्लाह ही थे. बिहार की अधिकांश संसदीय सीटों के विपरीत, वैशाली के जद (यू) उम्मीदवार ने मई 2014 में बहुत ज्यादा वोट हासिल किया था. जद (यू) द्वारा सुरक्षित यह वोट-शेयर को भाजपा-लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) गठबंधन के लिए अच्छे संकेत नहीं समझे गए. इस इलाके में हिंदू मल्लाह और मुस्लिम पसमांदा के बीच के संघर्ष के पीछे यह एक कारण हो सकता है.

इस क्षेत्र में माओवादियों की भी मौजूदगी है और अक्सर स्थानीय राजनेताओं के बयानों में यह शिकायत होती है कि ज्यादातर माओवादी मल्लाह हैं. बिहार के 2010 के विधानसभा चुनावों में, पारू के मौजूदा भाजपा विधायक, अशोक सिंह, जो राजपूत हैं, ने अपने प्रेस को दिए बयान में कहा था कि ज्यादातर माओवादी मल्लाह समुदाय के ही हैं को मल्लाह के विरोध का सामना करना पड़ा था.

सभी धर्म और जाति के स्थानीय लोगों में, मल्लाह, उनकी सामुदायिक एकजुटता और उनकी “हिंसा और आक्रामकता के तेवर” को लेकर कुछ न कुछ डर मौजूद है. मल्लाह को लेकर स्थानीय आबादी के बीच यह धारणा आम है.

अब, सवाल यह उठता है कि क्या मुकेश सहनी राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन को मल्लाह वोट ट्रांसफर कर पाएंगे? या, मुजफ्फरपुर से भाजपा के उम्मीदवार, अजय निषाद एनडीए को पूरे बिहार में मल्लाह वोट पाने में मदद करेंगे?

बिहार में राजनीतिक संगठन के रूप में मल्लाह की एकजुटता 2015 के अंत से ही है.



सितंबर 2015 की शुरुआत में मल्लाह और इसके अन्दर आने वाली उप-जातियों के मुख्य संगठन “निषाद समन्वय समिति” और इसकी एक घटक “वेद व्यास परिषद” को लेकर एक खबर बनी थी जब इन दोनों संगठनों ने मल्लाहों को अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने के नीतीश कुमार के प्रस्ताव को बुरी तरह खारिज कर दिया था जिससे इन्हें बिहार में सरकारी नौकरियों में 1% का आरक्षण मिलने वाला था. निषाद समन्वय समिति मल्लाहों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करवाना चाहती थी, जिनके लिए सरकारी नौकरियों और विधायी निकायों में 16% आरक्षण का प्रावधान है. अब तक वे अति पिछड़ा (निम्न पिछड़े) समुदाय में ही हैं.

2014 में, ए. एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़, पटना ने सरकार के कहने पर एक नृवंशविज्ञान रिपोर्ट (ethnography report) तैयार कर बिहार सरकार को सौंपा था. इस रिपोर्ट पर नीतीश कुमार ने आगे काम भी किया. दिलचस्प बात यह है कि मल्लाह के इन संगठनों से जुड़े नेताओं जैसेकि छोटे सहनी, राजेंद्र चौधरी, और उमा शंकर सहनी ने भी मुकेश सहनी का विरोध किया, जिनसे खबर के अनुसार, नीतीश कुमार और अमित शाह ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले संपर्क किया था.

“वेद व्यास परिषद” के संगठन सचिव उमा शंकर सहनी ने इन शब्दों में मुकेश सहनी के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त की: “हम बहुत सालों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और लड़ रहे हैं और यह नया आदमी अचानक हमारे प्रयासों का श्रेय लेने के लिए चला आया है. यह निषाद समुदाय के बारे में कुछ नहीं जानता है.” (Amit Bhelari, “Fishermen Junk ST Quota”, The Telegraph, Patna)

औपनिवेशिक नृवंशविज्ञान में मल्लाह

मानवविज्ञानी, विलियम क्रुक के अनुसार, मल्लाह शब्द एक अरबी शब्द से आया है, जिसका अर्थ नमक होता है, और जिसका अर्थ पक्षी के पंख की तरह चलना भी होता है. यह भी माना जाता है कि लंबे समय पहले, जब परिवहन का कोई अन्य साधन नहीं था, बहुत सारा माल नावों द्वारा लाया और ले जाया जाता था, तब नाविकों को मल्लाह, या “माल-ला” कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘माल या सामान लाने वाला’ होता है. इस प्रकार, मछली पकड़ना, माल ढोना, खेती और खलिहानों में काम करना इनके व्यवसाय हैं.

आपराधिक जनजाति अधिनियम 1924 (The Criminal Tribes Act 1924) में इन्हें ‘अपराधियों’ के रूप में पहचान मिली, जिसे समाजशास्त्रियों द्वारा यह कह कर ख़ारिज किया जाता है कि कोई जातीय/सामाजिक जन्मजात अपराधी नहीं होता, बल्कि गरीबी, कठिनाई, उत्पीड़न और सामाजिक लांछन उन्हें ऐसा बना देते हैं.

यहाँ यह भी जोड़ने की जरूरत है कि मल्लाह (हिंदू मछुआरे, जिसमें गंगोत और केवट – नाविक शामिल हैं जिनकी आजीविका नदी द्वारा द्वारा अर्जित होती है) बिहार के इन इलाकों में विशेष रूप से मुजफ्फरपुर के आस पास “ताक़तवर जाति” के रूप में उभर रहे हैं. स्थानीय आबादी उनके बारे में यह बताते हैं कि इनमें बहुत सारे लोग या तो चरम वामपंथी (माओवादी) बने या फिर चरम दक्षिणपंथी, बहुसंख्यकवाद, अराजकतावादी, बजरंग दल में शामिल हो गए.

मल्लाह और चौर अर्थव्यवस्था

इन चौरों में ज़मीन के मालिक किसानों ने चौर (उत्तर और पूर्व बिहार में जल जमाव वाले निचले इलाके) को लगभग छोड़ दिया है और यहाँ के पुरुष अपनी आजीविका और बच्चों की शिक्षा को लेकर पलायन कर चुके है. इन जमीनों की मिट्टी, ईंट बनाने वालों द्वारा उपयोग की जाती है और इस तरह चौर के इस भूभाग में जगह जगह बावलियां (तालाब और तड़ागीके) बन गए हैं.

ये मल्लाह इन बावलियों का उपयोग इनके मालिकों को कुछ दिए बिना मछली पालन के लिए करते हैं. इसके अलावा, ये ज़मीन पानी में रहने वाले पक्षियों को भी आकर्षित करती हैं. मल्लाह इन पक्षियों और मछलियों को स्थानीय गाँव के हाट और बाजारों में बेचते हैं. इससे इनकी अच्छी आमदनी होती है. (मटन और चिकन) का मांस आमतौर पर पिछड़े-दलित मुसलमान बेचते हैं. अब मल्लाह भी इस व्यापार (मुर्गा बेचने का) में आगे बढ़ रहे हैं. यह उन दो समुदायों के बीच आर्थिक संघर्ष का कारण प्रतीत होता है जो कई बार सांप्रदायिक तनाव का कारण बना है, जैसा कि 2013-18 के दौरान बिहार के कुछ हिस्सों में हुआ था. (EPW में मेरे छपे लेख देखें: Caste, Community and Crime, ; Underscoring Political-Criminal Nexus; इसे भी देखें: Muslims between the communal-secular divide).

चूंकि ज़मीन के मालिक किसान पलायन कर चुके हैं, इसलिए इन किसानों को इन ज़मीन के मालिकों को उनके बावली को इस्तेमाल करने के बदले कुछ देना नहीं पड़ता है. इस अर्थव्यवस्था के अपने मायने हैं. मल्लाह पुरुषों में आजीविका के लिए पलायन की दर काफी कम थी. गांवों में मल्लाह पुरुषों की मौजूदगी से लगातार ये स्थानीय गुंडों के तौर पर उभर रहे हैं. जिन ज़मीन मालिकों (ज़मींदार नहीं, क्योंकि उनमें से अधिकांश छोटे और मंझोले किसान हैं) के चौर की ज़मीन से यह कमाई कर रहे हैं उनके खिलाफ ये एकजुट है और इसी एकजुटता के कारण इन्हें अब राजनीतिक और चुनावी लाभ भी मिलने लगे हैं.

इन चौरों की जमीन के मालिक किसान, राज्य से चौर के पानी के निकास की व्यवस्था के लिए कुछ निवेश चाहते हैं ताकि रबी की फसलों और दालों के लिए इन चौरों की अत्यंत उपजाऊ मिट्टी का उपयोग किया जा सके. गांव के समुदायों के सामूहिक प्रयासों के साथ, कुछ चौरों में, पानी को बाहर निकालने में कुछ सफलता भी मिली है. इससे इन चौरों से जुड़े किसानों की आर्थिक स्थिति में स्पष्ट सुधार आया है. इन मुद्दों को लेकर अब तक राज्य सरकार बेहद ढीली रही है.

पटना स्थित कुछ अनुसंधान केंद्रों द्वारा संचालित बिहार से आंतरिक पलायन पर हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि मल्लाह के बीच भी पुरुषों का प्रवास हुआ है और इनके बीच गहरा आर्थिक असंतोष है.

उत्तर प्रदेश में मल्लाह नेताओं के दावेदारी भी ध्यान देने योग्य है. यूपी के फतेहपुर लोकसभा से सांसद साध्वी निरंजन ज्योति नरेंद्र मोदी कैबिनेट में केंद्रीय राज्य मंत्री थीं. इससे पहले, जब वह हमीरपुर से विधायक थीं तब वह मल्लाहों की आवाज़ उठाती रहती थीं. हालाँकि, उत्तर प्रदेश में जब फूलन देवी (2001 में हत्या) का उदय हुआ और जब वह पहली बार 1980 के दशक में “बैंडिट क्वीन (डाकू रानी)” बनीं और उसके बाद 1996, और 1999 में सांसद बनीं, तबसे मल्लाह राजनीति में बेहतर तरीके से जाने जाने लगे.

ऊपर के आर्थिक संघर्षों के अलावा, मल्लाह और मुसलमानों के बीच चुनावी संघर्ष भी दिखाई पड़ता है: खगड़िया और मधुबनी वे सीटें हैं, जहाँ अच्छा ख़ासा मुस्लिम वोट (20-22% से अधिक) है. इन दोनों सीटों पर मुकेश सहनी की वीआईपी चुनाव मैदान में है. जहाँ एक ओर मधुबनी की सीट वीआईपी के लिए राजद के मुस्लिम उम्मीदवार को छोड़ना पड़ता है, वहीँ खगड़िया में, एनडीए के मुस्लिम उम्मीदवार, महबूब क़ैसर को मुकेश सहनी के खिलाफ उतारा गया है.

तेजस्वी यादव ने खगड़िया में अपने अभियान में, मुसलमानों पर दया दिखाते हुए कहा कि राजद ने काफी मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है.

सीवान में, राजद के मुस्लिम उम्मीदवार को जदयू के राजपूत बाहुबली अजय सिंह की पत्नी के सामने खड़ा किया गया है जो कथित रूप से हिंदू युवा वाहिनी से जुड़े हुए हैं.

बिहार में, अति पिछड़ा से एनडीए के आठ उम्मीदवार हैं. इन जाति-वर्गों के बीच यादव विरोधी भावना प्रबल है, जैसा कि नमिता बाजपेयी, The New Indian Express, में कहती हैं कि उत्तर प्रदेश में ‘पिछड़ों’ को आगे बढ़ाने से बढ़त मिलने की संभावना है.

बिहार में एनडीए की ओर दलितों के कई समुदायों का झुकाव माना जाता है. बिहार के दलितों में कुल 22 समुदाय हैं. इनमें से सबसे ज्यादा पासवान, चमार (चमड़ा-श्रमिक), मुसहर (चूहे पकड़ने वाले), और धोबी (कपड़े धोने वाले) हैं. मुसहरों को छोड़कर, अन्य दलित समुदायों का झुकाव एनडीए के प्रति अधिक दिखाई देता है.

चुनाव-विश्लेषकों को भविष्यवाणी करने से पहले इन सभी ओबीसी और दलितों की चुनावी पसंदों का पता लगाना चाहिए और उन पर विचार करना चाहिए. जहाँ तक मल्लाह की बात है, वे बिहार में दो प्रतिस्पर्धी गठबंधन के बीच बंटे रह सकते हैं.

मोहम्मद सज्जाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं और Muslim Politics in Bihar: Changing Contours (Routledge)और अन्य पुस्तकों के लेखक हैं. इनके इस लेख का संक्षिप्त संस्करण पहले यहाँ अग्रेज़ी में छपा है. उसी का यह द मॉर्निंग क्रॉनिकल टीम द्वारा हिंदी में अनुदित संस्करण है. अंग्रेजी में लेखक द्वारा लिखित संपूर्ण और मूल लेख आप यहाँ  पढ़ सकते हैं.

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