
-अमित
खेमराज को कॉलेज के समय आर एस एस ने अपने साथ जोड़ लिया जहाँ कुछ ही समय में ज़िले में वह प्रमुख भूमिका में आ गए। लेकिन ब्राहमणवादी जातिगत राजनीति उसे रास न आई और गरीबी-अमीरी के सवाल को लेकर प्रचारक से बहस करके आर एस एस से बाहर हो गए। खेमराज की यह कहानी जंगल में हो रहे अमीर और गरीब के संघर्ष को उजागर करती है….
1982। शायद जनवरी या फ़रवरी। राजस्थान के SWRC – अब बेयरफ़ुट कॉलेज – का कदमपुरा फ़ील्ड सेन्टर।
क्रांति और क्रांतिकारिता का पहला चेहरा, मेरे जीवन में, खेमराज का ही था। बाइस साल की उम्र में, खेमराज ही मेरे लिये स्पार्टाकस था और वह ही चे गुवेरा। खेमराज जो 300 रू तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा पार्टी को चंदा दे देता था।
खेमराज जो पाउडर भरने वाली बंदूक लेकर ट्रैक्टर पर रात भर घूमा, खरगोश मारने के लिये, क्योंकि अमित को खरगोश का मांस खिलाना था। खेमराज जो फ़ील्ड सेन्टर प्रमुख होने के बावजूद घण्टों तक सहकर्मियों के साथ हॅंसी ठठ्ठा कर लेता था।
खेमराज जो लठ्ठ लेकर राजपूतों से अड़ जाता था क्योंकि उन्होने दलितों के लिये लगाये गए हैण्डपम्प पर कब्ज़ा कर लिया था और उतनी ही सहजता से किसी अनजान घर में नाक बहते, मिट्टी में लतपथ, नंगे, रोते हुए बच्चे को गोदी में उठाकर, नाक पोंछ कर उसे नहला देता था।
खेमराज, जो आदिवासियों के हकों के लिये लड़ते हुए अनेकों बार पीटा गया – कभी सरकारी कर्मचारियों से तो कभी गाँव के दबंगों से। दो साल पहले भी मरते मरते बचा, एक भील के साथ भेदभाव के लिये आवाज़ उठाने पर।
खेमराज जो बड़े बड़े बुद्धिजीवियों या अधिकारियों के लम्बे बखानों के बाद कुछ बुनियादी सवाल खड़े करके उन्हे क्लीन बोल्ड कर देता था।
खेमराज जो पूरी तरह निडर था। शोषण और अन्याय के खि़लाफ़ लड़ने का ज़बर्दस्त जज़्बा था। और इस लड़ाई को आगे ले जाने के लिये नई रणनीतियां सोचता रहता था। खेमराज एक बहुत ही प्रयोगशील कार्यकर्ता था।
खेमराज जो …. और बहुत कुछ था। खेमराज वो शख्सियत थी जिसकी किंवदंतियां बनती हैं, कहानी किस्से बनते हैं।
वैसे तो खेमराज का संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था। पिता की हत्या के बाद माँ नें खेमराज को निम्बाहेड़ा कस्बे के किसी सेठ के घर काम करने के लिये रख दिया था। सेठ की लम्बी कमीज़ पहन कर उसके बच्चे के साथ वह स्कूल जाने लगा। तेज़ दिमाग के चलते कॉलेज पहॅुंच गया जहाँ छात्र संगठन का अध्यक्ष बन गया।
कॉलेज के समय आर एस एस नें अपने साथ जोड़ लिया जहाँ कुछ ही समय में ज़िले में प्रमुख भूमिका में आ गया। लेकिन ब्राहमणवादी जातिगत राजनीति उसे रास न आई और गरीबी-अमीरी के सवाल को लेकर प्रचारक से बहस करके आर एस एस से बाहर हो गया।
कई साल SWRC नामक संस्था में बिताने के बाद उसे समझ आया कि सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सत्ता के केन्द्रों को छेड़े बगैर केवल विकास कार्य करते रहने से समाज बदलने वाला नहीं है, न ही गरीबों का कुछ भला होने वाला है। यह भी कि संस्था की साधन सम्पन्नता देखकर लोगों के साथ बराबरी का रिश्ता कायम नहीं हो सकता, हम दाता के रूप में ही बने रहते हैं। इसी समय वामपंथी विचारधारा में उसे गरीबी के कारणों को समझने और उनसे लड़ने की एक अलग दृष्टि मिली।
लोगों के बीच रहकर उनकी ताकत को संगठित कर ज़िन्दगी की समस्याएं सुलझाने की एक नई सोच लेकर, एक झोला लटकाये, खेमराज 1982 में देश के सबसे पिछड़े ज़िले झाबुआ की सबसे दूरस्थ तहसील आलीराजपुर के बड़ी वेगल गाँव पहुँच गया जहाँ उसे खेमला के परिवार नें अपने साथ रख लिया। उस समय हमारा आग्रह था कि जैसा जीवन गरीब लोगों का है वैसा ही हमारा भी होना चाहिये। जुवार का पतला घोल पीना, जंगल से लकड़ी लाना, मज़दूरी करना, ताड़ी पीना, भाषा – यह सब हमने खेमला की पत्नी थावली, उसके पिता चेना और माँ से वहां रहते हुए सीखा। खेमला की माँ के साथ वो बहुत मज़ाक करता था। ‘बाबू’ पागल है, कहती थी। लेकिन फिर प्यार से ताड़ी पिलाती थी।
सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसे आलीराजपुर ज़िले के आदिवासी गावों में बहुत सालों तक हम साथ साथ पैदल घूमे। अनजान गावों में, अनजान रास्तों पर, अनजान लोगों के बीच दोस्तियाँ बनाना, उनके घरों में खाना, रात रात भर बातें करना, कहीं भी सो जाना। उनकी भाषा सीखना। शादियों में नाचना, गीत गाना। जंगलों में भटकना। कहीं भी नदी में नहाने के लिये रूक जाना। सुंदर सुगंधित लम्बे रास्तों पर चलते हुए सोचना कि ये दुनिया कैसे बदलेगी? संगठन कैसे मज़बूत होगा। तरह तरह की बातें करना। प्यार की, क्रांति की। एक बहुत मस्त फ़कीरी का समय हमने साथ बिताया।
न्यूनतम मज़दूरी से शुरू हुई लड़ाई, आदिवासियों की इज्ज़त के सवाल को लेकर आगे बढ़ी और धीरे धीरे खेड़ुत मज़दूर चेतना संगठन बना जिसने कर्मचारियों और साहूकारों द्वारा आदिवासियों की लूट के खिलाफ़ ज़बरदस्त संघर्ष छेड़ा। झाड़ जंगल कुणिन छे, अमरो छे अमरो छे। ये लूट न पैहा कुणिन छे, अमरा छे अमरा छे के नारे तहत जंगल पर आदिवासियों का हक कायम करने के लिये भी बहुत संघर्ष हुआ। यह नारा आज, देश में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खि़लाफ़ लड़ रहे हर संगठन का प्रमुख नारा बन गया है। हालांकि इसके बाद वाले हिस्से को लोग नहीं लगाते।
यह उत्तर भारत में पहला जन संगठन था। उस समय गांधीवादी संस्थाओं के अलावा न के बराबर स्वयं सेवी संस्थायें थी। गैर पार्टी राजनीति के प्रयोगों में यह बहुत शुरूआती दौर का प्रयोग था। इससे प्रभावित होकर पश्चिम मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि जगहों पर संगठनों का सिलसिला बहुत बढ़ गया। बहुत से युवा खेमराज से प्रेरणा लेकर गये और अलग अलग जगहों पर जन आधारित काम शुरू किये।
लगभग एक दशक आलीराजपुर में काम करने के बाद वे राजस्थान चले गये जहाँ जंगल संघर्ष समिति, आदिवासी भील परिषद व खेतिहर खान मज़दूर संगठन बनाये जिसके तहत सैंकड़ों बंधुआ मज़दूर मुक्त करवाये, जंगल के हक दिलवाये व उच्च जातियों द्वारा भीलों के शोषण के खि़लाफ ज़ोरदार आवाज़ उठाई। इसमें खाट आंदोलन बहुत मशहूर हुआ। उच्च जाति के लोग भीलों को खाट पर बैठने नहीं देते थे। इस आंदोलन के बाद यह रीति बंद हुई। जातियों में बंटे गावों में हर समय दबंगों के साथ झगड़े होते रहे।
खेमराज के चरित्र के दो पहलू थे – ज़बरदस्त संघर्षशीलता और उतनी ही तीव्र करूणा।
खेमराज नें क्रांति का पाठ किताबों से नहीं, अपने संघर्षमय जीवन से सीखा। बचपन बेहद गरीबी में बीतने के कारण इन्होनें शोषण के खि़लाफ़ संघर्ष करने के साथ साथ मानवीयता से प्रेरित होकर गरीब लोगों के कष्ट दूर करने के लिये राहत के कामों को भी पूरे मन से किया। गत कुछ वर्षों से गावों में घूमते थे और फ़ेसबुक के माध्यम से अति गरीब, बीमार या परित्यक्त लोगों के जीवन की झलकियाँ दुनिया से साझा करते थे। इसके कारण बहुत से अनजाने लोग उनसे जुड़ गये जिन्होने उनके माध्यम से गरीब परिवारों की मदद करी। इनमें से बहुत से लोगों नें उनके इलाज के लिये भी मदद करी।
पिछले कुछ वर्षों से वे अपने परिवार के साथ मिलकर लड़कियों के लिये आधारशिला बालिका विद्यालय नामक आवासीय स्कूल चला रहे थे जहाँ लड़कियों को परिवार की तरह रख कर शिक्षण दिया जाता है। हम लोगों की एक कल्पना थी कि जन संगठनों के भी पूरे देश में स्कूलों की चेन हो। इसीलिये अपना अलग नाम रखने के बजाय उन्होने कहा कि मैं भी आधारशिला ही नाम रख देता हॅूं जिससे पता चलेगा कि हम सब एक साथ काम कर रहे हैं। इस कल्पना को फिर से बढ़ाने के दिन भी आ गये हैं।
वामपंथी विचारों से तो प्रेरित थे ही कुछ समय के लिये वे बसपा व आम आदमी पार्टी से भी जुड़े। ज़िंदगी भर गैर दलीय राजनीति करने के बाद व इनसे पूर्णतः सहमत न होते हुए भी, इनसे जुड़ने का एक ही कारण था कि किसी भी तरह कुछ वैकल्पिक राजनीति स्थापित हो। यह कसक हर समय हर नये प्रयोग को साथ देने के लिये उन्हे प्रेरित करती थी।
खेमराज, कार्यकर्ताओं के लिये एक प्रेरणा का स्रोत हैं। अंतिम समय में कर्क रोग से ग्रसित होते हुए, कीमोथेरेपी के बीच भी गावों में घूम कर, गरीब से गरीब लोगों के साथ अपनत्व का रिश्ता बनाने में लगे थे। हर परिस्थिती में गरीबों, शोषितों के पक्ष में खड़े रहना और क्रियाशील रहना – यही उनके जीवन का संदेश है।
बहुत ज़िद्दी इंसान था खेमराज। कीमो के पैसे अधिक ले रहा है, इसलिये डॉक्टर पर आर टी आई करने को तैयार हो गया और कीमो बंद कर दी। बहुत समझाने पर भी दिल्ली के बड़े अस्पताल में आने को राज़ी नहीं हुआ। जब हुआ, तब देर हो चुकी थी। अब लगता है कि क्यों हमने उसकी सुनी। यह दुःख हर समय रहेगा।
मेरा सौभाग्य रहा है कि मैं उनके साथ रहा व उनके मार्गदर्शन में लोगों को संगठित करने और हकों के लिये सरकार से टक्कर लेने के गुर सीखे और यह भी कि मज़े से लड़ना और लड़ाई में मज़ा लेना।
(अमित ने खेमराज के साथ झाबुआ में 1983 में आदिवासियों के बीच काम करना शुरू किया था। उनके घनिष्ट मित्र रहे। आदिवासी बच्चों के लिए आधारशिला शिक्षण केंद्र नाम की आवासीय शाला चलाते हैं। ब्लॉगर भी हैं, यह संस्मरण उनकी अनुमति लेकर उनके ब्लॉग से प्रकाशित किया गया है।)