
हाईकोर्ट ने एक तरफ जहां वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों को देश की आजादी के इतिहास के लिए काला अध्याय बताया, वहीं दूसरी तरफ तेजी से बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा को भी चिंता का सबब बताया। हाईकोर्ट ने कहा है कि देश में एक नियमित अंतराल के बाद समय-समय पर सांप्रदायिक हिंसा बार-बार सिर उठा रही है।
जस्टिस आर. के. गाबा ने अपने फैसले में कहा कि सामान्य आपराधिक कानून इस तरह के दंगों से निपटने में पूरी तरह अक्षम हैं। खासकर तब जब हिंसा संचालन सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों द्वारा किया जाता है।
हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी करते हुए कहा है कि समय-समय पर नियमित रूप से बढ़ रही सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए विशेष कानून बनाने की जरूत है। इस तरह के मामलों से निपटने के लिए सामान्य कानून प्रशासन की जगह सरकार को विशेष कानून लाने की संभावना पर काम करना चाहिए।
जस्टिस गाबा ने कहा है कि इस तरह के मामलों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट ने विशेष जांच दल बनाने की कवायद की, लेकिन इसमें कई बार वक्त लग जाता है। जांच आयोग में भी वक्त लग जाता जिससे साक्ष्य नष्ट होने की संभावना काफी अधिक हो जाता है। हाईकोर्ट ने इस तरह के मामलों से निपटने के लिए सरकार को सुझाव भी दिए हैं।
दरअसल हाईकोर्ट ने अपने फैसले में देश में राजनेता, पुलिस-प्रशासन व अपराधियों के गठजोड़ पर तीखी टिप्पणी की है। हाईकोर्ट ने कहा है कि सिख दंगा के दौरान पुलिस व प्रशासन पूरी तरह कानून व्यवस्था संभालने में विफल रहा। दंगा के बाद राजनीतिक दबाव की वजह से दिल्ली पुलिस, प्रशासन ने मामले में राजनेता और आरोपियों के गठजोड़ के कारण जांच में कोताही बरती। पुलिस नहीं चाहती थी कि दोषियों को सजा मिले।