अश्फाक़ुल्ला और बिस्मिल की दोस्ती को फिर से आज बहाल करने की ज़रूरत




अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ (साभार: विकिपीडिया)

-समीर भारती

22 अक्तूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर शहर में एक अमीर खाते पीते घराने में अश्फाक़ुल्ला ख़ां का जन्म हुआ। इस महान क्रांतिकारी देशभक्त की इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएं साधारण युवाओं से अलग थीं। परिवार के पसंदीदा पुत्र थे। पंद्रह साल की उम्र में ही अश्फाक़ुल्ला ख़ां इंडियन रिपब्लिक एसोसिएशन में शामिल हो गए और देश की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध रहे यहाँ तक कि मात्र 27 वर्ष की आयु में अपनी जान को फांसी की बेदी पर हँसते हँसते देश पर न्योछावर कर दिया।



अश्फाक़ुल्ला जालियावाला बाग़ काण्ड से बहुत निराश थे। उनका करुणा से भरपूर हृदय हर पल स्वतंत्रता के लिए धड़कता रहता था। वह नहीं चाहते थे कि उनका यौवन बेकार बातों में बर्बाद हो जाए। संयोगवश उन्हें ऐसा साथी मिल गया जिसने उनके महत्वकांक्षाओं को सही दिशा दी। और वह कोई और नहीं बल्कि महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल थे। राम प्रसाद बिस्मिल यूं तो अशफाक उल्लाह ख़ां के बड़े भाई के सहपाठी थे लेकिन अशफाक के दोस्त और राहबर दोनों थे। बिस्मिल पहले अशफाक को छोटे भाई की तरह मानते थे धीरे-धीरे वह बिस्मिल के सहायक और दोस्त बन गए। कुछ ही दिनों में, वह पूरी तरह से राम प्रसाद बिस्मिल के रंगों में रंग गए।

9 अगस्त 1925 स्वतंत्रता आंदोलन का यादगार दिन है जब अशफाक उल्लाह ख़ां, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और उनके आठ साथियों ने सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई जो रेल से जा रहा था। उद्देश्य था इन रुपयों से स्वतंत्रता आंदोलन के लिए सामान ख़रीदा जाएगा। वह लोग 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन में सवार होकर लखनऊ के लिए रवाना हुए। ट्रेन जैसे ही काकोरी स्टेशन पहुंची ट्रेन की ज़ंजीर खींच कर उसे रोक दिया गया और खजाना लूट लिया गया। इस पूरे काण्ड में किसी को चोट तक नहीं पहुंचाई गयी। यह सारा काम पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में हो रहा था। इस काण्ड से अंग्रेज सरकार के दलों में आतंक पैदा हो गया। ब्रिटिश प्रशासन हरकत में आया और क्रांतिकारियों के पीछे लग गया। जगह जगह छापे पड़े। पुलिस कुत्ते की तरह विद्रोहियों के पीछे पड़ गयी। बचते बचते अशफाक़ुल्ला बनारस के रास्ते डाल्टन गंज (झारखंड) पहुंचे और उनहोंने वहां नौकरी कर ली। लेकिन देशप्रेम की भावना ने उन्हें फिर से दिल्ली आने के लिए मजबूर कर दिया। वह दिल्ली चले आए।

8 सितंबर 1926 को अशफाक उल्लाह ख़ां के एक देशद्रोही साथी ने पुलिस में उनकी मुखबिरी कर दी और वह गिरफ्तार कर लिए गए। लखनउ अदालत में उन पर मुकदमा चलाया गया। काकोरी मामला में तीन आरोपियों के साथ उन्हें भी फांसी की सजा सुनाई गई और फैजाबाद सेंट्रल जेल में उन्हें बंदी बना लिया गया। कारावास के दौरान वे सामान्य रूप से पांच बार प्रार्थना करते थे। कुरान का पाठ सामान्य था। जब तक वह जेल में रहे, एक सामान्य इंसान और सच्चे मुसलमान की तरह रहे। यहां तक ​​कि जब फांसी का दिन निकट आ गया, तब भी घबड़ाहट की किसी भी तरह की कोई झलक नहीं थी। अशफाक उल्लाह ख़ां ने इस अवसर पर मिलने आने वाले साथियों से कहा था – ” आप लोगों को जरूर हैरानी होगी कि मैं आज इतना खुश क्यों हूँ और मैंने अच्छे कपड़े क्यों पहन रखे हैं। जानते हैं…? कल मेरी शादी होने वाली है, कल सुबह मेरी बारात निकलेगी और सवेरे शादी भी हो जाएगी। अरे यारो, यह तो बताओ कि दूल्हे के सँवरने में कोई कमी तो नहीं रह गई?” यह कहकर अशफाक उल्लाह ख़ां ने इतने जोर से ठहाका लगाया कि उनके उदास और शोक में डूबे दोस्तों को भी मजबूरन ‘हँसना पड़ा। 19 दिसंबर 1927 को निश्चित समय से कुछ पहले ही वह जाग गए। नहाया, धुले हुए कपड़े पहने, प्रार्थना की और कुरान पढने के बाद जो प्रार्थना की वह आज भी मातृभूमि से प्रेम करने वालों के लिए एक उदाहरण है। हाथ उठाकर ईश्वर के दरबार में कहा,

“हे ईश्वर! मैं आपसे और कुछ नहीं मांगता। अगर तू मेरे अंतिम समय की प्रार्थना स्वीकार कर ले तो यह मांगता हूँ कि हर हिन्दू और मुसलमान को बुद्धि दे कि वे आपसी झगड़ों में अपना समय बर्बाद न करके दोनों मिलकर देश को आजाद और समृद्ध करें।”

प्रार्थना के बाद गले में कुरान को लटकाए हुए फांसी की बेदी की ओर चल पड़े। फाँसी की बेदी पर पहुँच कर कुरान की कुछ आयतें (श्लोक) पढ़ा और फाँसी के फंदे को चूमते हुए कहा। “मेरे हाथ कभी मानव रक्त से रंगीन नहीं हुए। जो आरोप मुझ पर लगाए गए वह गलत हैं। मेरा न्याय अब ईश्वर के यहाँ होगा। गले में फंदे को फूलों के हार की तरह डालने के बाद उनहोंने यह शेर पढ़े:

फ़ना है सबके लिए हम पर कुछ नहीं मौक़ूफ़

बक़ा है एक फ़क़त ज़ात किब्रिया के लिए

तंग आकर हम भी उनके ज़ुल्म से बेदाद से

चल दिए सूए अदमे (ईश्वर के यहाँ) ज़न्दाने (जेल) फ़ैज़ाबाद से

परंपरा के अनुसार अंतिम इच्छा पूछे जाने पर अश्फाक़ुल्ला खां ने कहा था.

कुछ आरज़ू नहीं है, है आरज़ू तो यह है

रख दे कोई ज़रा सी ख़ाके वतन कफ़न में

और फिर ईश्वर का नाम लेते ही रस्सी खिंची गयी शरीर फाँसी के फंदे में झूल गया. महान क्रांतिकारी भगत सिंह ने अशफाकुल्लाह के बारे में लिखा है कि फांसी के बाद लखनऊ स्टेशन पर माल गाड़ी के डिब्बे में उनकी लाश देखने का अवसर कुछ लोगों को मिला. फांसी के दस घंटे के बाद भी चेहरे पर वैसा ही तेज था ऐस लगता था कि अभी भी सोए हैं. उनके संबंधी उनकी लाश को शाहजहाँपुर ले गए.

अशफाकुल्लाह की कविता की पंक्तियों से भी करुणा का भाव टपकता था. उनहोंने अपना उपनाम हसरत वारसी रखा था. उनकी कविताओं में मातृभूमि का प्रेम कूट कूट कर भरा है. परतंत्रता को लेकर दिल में दर्द का अनुभव होता है. उनकी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ:

वह गुलशन जो कभी आज़ाद था गुज़रे ज़माने में

मैं हूँ शाख़े शिकस्ता अब उसी उजड़े गुलिस्तां की

नहीं तुमसे शिकायत हम सफ़ीराने चमन (एक साथ रहने वाले) मुझ को

मेरी तकदीर ही में था क़फ़स और क़ैदे ज़ंदान (कारावास) की

ज़मीं दुश्मन ज़मां दुश्मन जो अपने थे पराए हैं

सुनोगे दास्ताँ क्या तुम मेरे हाले परेशां की

यह झगड़े और बखेरे मीटा कर आपस में मिल जाओ

अबत तफरीक़ (बेकार का भेदभाव) है तुम में यह हिन्दू और मुसलमां की

सभी सामान इशरत थे, मज़े से अपनी कटती थी

वतन के इश्क़ ने हमको हवा खिलवाई ज़न्दां (जेल) की

आज इस दौर में भी जब मुस्लिम और हिन्दू अलग अलग समूहों में बंटते नज़र आ रहे हैं अशफाकुल्लाह और बिस्मिल से प्रेरणा लेकर यह प्रण लेने का है कि हम हिन्दू और मुस्लिम का मात्र एक उद्देश्य होना चाहिए कि हम अपनी मातृभूमि को वैसी भूमि बनाने के लिए दृढसंकल्प लें जिसका आज़ादी के इन दीवानों ने कभी सपना देखा था। हालांकि आज मैंने अपने दोस्त से अशफाकुल्लाह के बारे में कुछ पूछना चाहा तो उनहोंने कहा कि क्या कहूं अब अपने स्वतंत्रता सेनानी पर, अब तो टीपू सुलतान को रेपिस्ट कहा जा रहा है। मुझे तो डर यह है कि पंडित बिस्मिल और अशफाकुल्लाह जैसे आज़ादी के दीवानों को भी कोई डकैत, हत्यारा या रेपिस्ट न कह दे।

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