होली पर मुसलमान शायरों की शायरी में आज भी असल भारत की झलक मौजूद




-समीर भारती

इतिहासकारों ने मुगलों की होली पर भी खूब लिखा है. मुग़ल शासकों के ज़माने में होली के दिन बादशाह स्वयं उपस्थित होते थे और उस दिन अदना से अदना नागरिक भी बादशाह से बगैर जान की अमान मांगे उनपर रंग फ़ेंक सकता था.

आज जब सांप्रदायिक सद्भावना ख़तरे में है तब सांप्रदायिक सद्भावना न जाने कितने लोगों की रोज़ी रोटी का ज़रिया बना हुआ लेकिन जब सांप्रदायिक सद्भावना ख़तरे में नहीं था तब भी कई मुसलमान शायरों ने अपनी शायरी में होली की ख़ासीयत को सजा कर हिंदुस्तानियत को बढ़ावा दिया था और गंगा-जमुनी तहज़ीब की शान को बिना किसी दबाव के बनाए रखा था.




जैसे सागर निज़ामी की यह कविता:

फ़स्ल-ए-बहार आई है होली के रूप में

सोला-सिंघार लाई है होली के रूप में

राहें पटी हुई हैं अबीर-ओ-गुलाल से

हक़ की सवारी आई है होली के रूप में

पिचकारियाँ लिए हुए देवी नशात की

हर घर में आज आई है होली के रूप में

सिन्दूर है इक हात में इक हात में गुलाल

तक़दीर मुस्कुराई है होली के रूप में

वो हम से मुजतनिब नहीं होली के नाम पर

हम ने मुराद पाई है होली के रूप में

होली ने उन को और भी दीवाना कर दिया

दीवानों की बन आई है होली के रूप में

रंगों की लहर लहर में पिचकारियाँ लिए

क़ौस-ए-क़ुज़ह ख़ुद आई है होली के रूप में

देखो जिसे वो ग़र्क़ है रंग-ओ-सुरूर में

इक मैं नहीं ख़ुदाई है होली के रूप में

‘साग़र’ नवेद-ए-दावत-ए-आब-ओ-हवा लिए

बाद-ए-बहार आई है होली के रूप में

इसी तरह नज़ीर अकबराबादी की यह कविता:

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की

ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की

महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे

कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे

दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे

कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे

कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का

वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का

हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का

इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का

कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो

कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो

मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो

उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो

सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो

मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो

बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो

मय-नोशी हो बेहोशी हो ”भड़वे” की मुँह में गाली हो

भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के

हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के

कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के

कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के

कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो

उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो

माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो

लड़-भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो

जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की

नज़ीर बनारसी की यह कविता भी होली में आपको झुमा देगी:

कहीं पड़े न मोहब्बत की मार होली में

अदा से प्रेम करो दिल से प्यार होली में

गले में डाल दो बाँहों का हार होली में

उतारो एक बरस का ख़ुमार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

लगा के आग बढ़ी आगे रात की जोगन

नए लिबास में आई है सुब्ह की मालन

नज़र नज़र है कुँवारी अदा अदा कमसिन

हैं रंग रंग से सब रंग-बार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

हवा हर एक को चल फिर के गुदगुदाती है

नहीं जो हँसते उन्हें छेड़ कर हंसाती है

हया गुलों को तो कलियों को शर्म आती है

बढ़ाओ बढ़ के चमन का वक़ार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

ये किस ने रंग भरा हर कली की प्याली में

गुलाल रख दिया किस ने गुलों की थाली में

कहाँ की मस्ती है मालन में और माली में

यही हैं सारे चमन की पुकार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

तुम्हीं से फूल चमन के तुम्हीं से फुलवारी

सजाए जाओ दिलों के गुलाब की क्यारी

चलाए जाओ नशीली नज़र से पिचकारी

लुटाए जाओ बराबर बहार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

मिले हो बारा महीनों की देख-भाल के ब’अद

ये दिन सितारे दिखाते हैं कितनी चाल के ब’अद

ये दिन गया तो फिर आएगा एक साल के ब’अद

निगाहें करते चलो चार यार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

बुराई आज न ऐसे रहे न वैसे रहे

सफ़ाई दिल में रहे आज चाहे जैसे रहे

ग़ुबार दिल में किसी के रहे तो कैसे रहे

अबीर उड़ती है बन कर ग़ुबार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

हया में डूबने वाले भी आज उभरते हैं

हसीन शोख़ियाँ करते हुए गुज़रते हैं

जो चोट से कभी बचते थे चोट करते हैं

हिरन भी खेल रहे हैं शिकार होली में

मिलो गले से गले बार बार होली में

इतिहासकारों ने मुगलों की होली पर भी खूब लिखा है. मुग़ल शासकों के ज़माने में होली के दिन बादशाह स्वयं उपस्थित होते थे और उस दिन अदना से अदना नागरिक भी बादशाह से बगैर जान की अमान मांगे उनपर रंग फ़ेंक सकता था.

आइए, फिर से एक बार होली के दिन हम सद्भाव के साथ दूसरों की मर्ज़ी का ध्यान रखते हुए होली खेलें. लोगों को प्रेम के रंग से पोतें. ऐसा रंग जो धुल जाने के बाद भी प्रेम का दाग़ पूरा साल शरीर और आत्मा पर शेष रहे. होली सद्भावना का त्यौहार है, किसी से ज़बरदस्ती होली खेल कर इस त्यौहार के सन्देश को फीका न करें. हो सके तो कम पानी बहाया जाए, कच्चे रंग की होली खेली जाए और हाँ आपके यहाँ के पकवान की खुशबू केवल न जाए आपके पड़ोसियों तक आपका पकवान भी जाए, इसका अवश्य ध्यान रखें.

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