
-मनीष शांडिल्य
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में राजद नेता तेजस्वी यादव को बिहार का पूर्व उपमुख्यमंत्री रहने के दौरान मिला सरकारी बंगला खाली करने का आदेश दिया. इतना ही नहीं अदालत का समय बर्बाद करने के लिए उन पर पचास हजार का जुर्माना भी लगाया गया.
दूसरी ओर इसी दिन देश की सर्वोच्च अदालत ने बसपा प्रमुख मायावती की लगवाई मूर्तियों पर टिप्पणी की. उनकी पार्टी के प्रतीक और खुद उनकी ये मूर्तियां उत्तर प्रदेश में उनके मुख्यमंत्री काल में लगी थीं. कोर्ट का कहना है कि उस खर्च की वसूली उनसे क्यों न की जाए?
शीर्ष अदालत की इन टिप्पणियों को तमाम राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को सबक की तरह लेना चाहिए. ये टिप्पणियां भले ही उन नेताओं पर हैं जो अभी विपक्ष में हैं मगर सच्चाई ये है कि क्या पक्ष-क्या विपक्ष, सभी दलों के नेता समय-समय पर ऐसे काम करते रहते हैं जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट को शुक्रवार जैसी टिप्पणियां करनी पड़ती हैं.
जैसे कि सरकारी बंगला मामले को लें. तेजस्वी यादव का मामला तो अदालत में गया और सरकार वहां जीत भी गई. मगर ये सच्चाई है और जैसा कि तेजस्वी आरोप लगाते भी हैं कि वर्तमान बिहार सरकार ने सत्तारूढ़ दल से जुड़े कई जनप्रतिनिधियों और नेताओं को नियम विरुद्ध सरकारी आवास आवंटित कर रखा है. तेजस्वी के मुताबिक जदयू के विधायकों और पूर्व मंत्रियों ने दस ऐसे बंगलो पर अवैध क़ब्ज़ा क्यों जमाया हुआ है? अब चूँकि ये मामले अभी अदालत में नहीं हैं तो सरकार अपने हिसाब से कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है? वह तेजस्वी यादव पर सख्त हो गई तो अपने नेताओं पर मेहरबान क्यों है? बिहार सरकार का नैतिक चेहरा तब चमकेगा जब वह तेजस्वी के बंगला खाली करने के बाद राजधानी के सभी सरकारी बंगलों के आवंटन में पारदर्शिता दिखाए. साथ ही सभी नेता अदालत के फैसले का इशारा समझते हुए जनता के पैसों से बने बंगलों को लेकर कोई नियमविरुद्ध आसक्ति नहीं दिखाएं.

बिहार में तो फिलहाल बंगलों को लेकर एक दूसरा मामला भी अदालत में है. पूर्व मुख्यमंत्रियों को बिना शुल्क आजीवन सरकारी आवास देने के मामले में पटना हाईकोर्ट ने नए साल के शुरुआत में कड़ा ऐतराज जताया था. कोर्ट ने इस संबंध में कार्रवाई करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत अन्य सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को नोटिस जारी किया था. कोर्ट ने नोटिस जारी कर पूछा कि आखिर पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुरक्षा मुहैया करायी जाये तो वे पटना में स्थित अपने निजी आवासों में क्यों नहीं रह सकते?
अदालत की कड़ी टिप्पणी के बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा था कि अगर हाईकोर्ट का कोई फैसला पूर्व सीएम के लिए आवंटित बंगला को रद्द करने से संबंधित आता है, तो सरकार इससे संबंधित कानून में अहम संशोधन करने को तैयार है. इसके लिए राज्य में बने कानून की अहम धाराओं को निरस्त करने की कवायद की जायेगी.
सुशील मोदी के ऐसा कहने में विरोधाभाषी बात यह है कि वे जब विपक्ष में थे तो इस मसले पर नीतीश कुमार पर खूब निशाना साधते थे मगर अब अदालत की टिप्पणी के बाद भी उनकी सरकार आगे बढ़ कर, नैतिकता के तहत कदम नहीं उठा रही है और अदालत के फैसले के इंतजार कर रही है.
पूर्व मुख्यमंत्रियों को बिना शुल्क आजीवन सरकारी आवास देने का कानून बिहार में नीतीश कुमार के पूर्व के कार्यकाल में बना था. लेकिन यह कानून अब उनके लिए एक बड़ा नैतिक सवाल बन गया है. फिलहाल वह मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री की हैसियत से दो आवास रखे हए हैं.
अब बात मायावती पर किए गए टिप्पणी की. उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने साल 2007 से 2012 के अपने शासनकाल के दौरान लखनऊ और नोएडा में दो बड़े पार्क बनवाए थे. इन पार्कों में मायावती ने बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, बीएसपी के संस्थापक कांशीराम और पार्टी के चुनाव चिह्न हाथी के अलावा खुद की भी कई मूर्तियां बनवाई थीं.
ये सभी मूर्तियां पत्थर और कांसे की हैं. इन परियोजनाओं की लागत उस समय 1,400 करोड़ रुपए से अधिक बताई जाती है. प्रवर्तन निदेशालय ने इस पर सरकारी खजाने को करोड़ों रुपए का नुकसान होने का मामला दर्ज किया था. साल 2014 में बसपा ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि प्रतिमाओं का बजट राज्य की विधानसभा में पास किया गया था. साल 2012 के चुनावों में भारतीय चुनाव आयोग ने मायावती और सभी हाथी की प्रतिमाओं को आचार संहिता लागू होने के बाद कपड़े से ढकने का आदेश दिया था.
मतलब ये कि इन मूर्तियों के साथ विवाद-विरोध का पुराना नाता है और अब तो अदालत की भी टिप्पणी आ गई है. इस टिप्पणी पर मायावती ने ट्वीट कर कहा कि मीडिया और विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को तोड़-मरोड़कर पेश न करे. वे सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष मजबूती से रखेंगी. जाहिर है मायावती अभी इस मामले पर इससे ज्यादा कुछ कहने की स्थिति में नहीं दिखाई देती हैं. मगर सबक ये कि जहां तक नेताओं और राजनीतिक दलों के प्रतीकों की प्रतिमा लगाने की बात, तो यह खर्च पार्टियों को खुद अपने कोष से करना चाहिए. उन्हें इसके लिए जमीन खरीदनी चाहिए. आम नागरिक का पैसा विकास कार्यों के अलावा कहीं और खर्च नहीं होना चाहिए. अगर वह खर्च होता है, तो यह एक नैतिक अपराध है.
अंत में बात भारत के राष्ट्र नायकों की लगाई जाने वाली प्रतिमाओं की. बीते साल 31 अक्तूबर को भारत सरकार ने लगभग तीन हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च से बने ‘दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति’ का अनावरण किया. ‘भारत के लौह पुरुष’ के नाम से मशहूर सरदार वल्लभ भाई पटेल की इस मूर्ति को भारत सरकार ने ‘स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी’ का नाम दिया है. लेकिन दक्षिणी गुजरात के नर्मदा ज़िले में इस मूर्ति के आसपास रहने वाले लोग मानते हैं कि इतनी बड़ी रकम अगर सूबे के ज़रूरतमंदों को मदद के तौर पर दी जाती तो उनकी हालत काफ़ी सुधर सकती थी. ख़ासकर उन किसानों के हालात तो सुधर ही सकते थे जो नर्मदा नदी के किनारे तो रह रहे हैं पर अपने खेतों में पानी के लिए तरस रहे हैं. बहुत से आदिवासी कहते हैं कि इस प्रतिमा को बनाने में खर्च हुई रकम को आदिवासी प्रधान इलाक़ों के विकास में खर्च किया जा सकता था.
इसी तरह अरब सागर में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा का निर्माण कार्य चल रहा है. स्थल पर शुरुआती काम चल रहा है. इस परियोजना का ठेका करीब 2500 करोड़ रुपये में लार्सन एंड टूब्रो को दिया गया है. पूरा होने पर यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी. इसी तरह अयोध्या में हिंदुओं के देवता भगवान राम की प्रतिमा निर्माण का भी प्रस्ताव है.
नायकों के सम्मान में प्रतिमाएं बने, पार्क बने मगर उस पर कितनी धन राशि खर्च की जाए इस पर संवेदनशील होकर सोचने की जरुरत है क्यूंकि फिलहाल इन सब पर खूब पैसा खर्च हो रहा है और देश के पास पैसा सीमित है. इलाज, शिक्षा, सड़क, बिजली, यातायात जैसी बुनियादी सुविधाओं पर अभी बहुत काम होना बाकी है. सरकारें अगर यह पैसा अगर आमजन के विकास पर खर्च करे तो निश्चय ही सबसे ज्यादा ख़ुशी उन नायकों को होगी जिनके नाम पर इतना पैसा खर्च किया जा रहा है.