
–कृष्ण मुरारी
“औरत के सहभाग बिना हर बदलाव अधूरा है।’’ उपरोक्त नारे आधरित बोधगया भूमि आंदोलन की शुरूआत लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा निर्देशित और छात्रा-युवा संघर्ष वाहिनी द्वारा संचालित बोधगया भूमि आंदोलन की शुरुआत 1978 के पूर्वार्द्ध में हुई। आज 40 वर्षों बाद भी वाहिनी, जसवा और मजदूर किसान समिति के बैनर तले संघर्ष कायम है। संघर्ष के छः प्रखंड इस प्रकार हैं – बोधगया, मोहनपुर, पफतेहपुर, बाराचट्टी, टेनकुप्पा और शेरघाटी। इस पूरे इलाके का संघर्ष देश भर में बोधगया भूमि अंदोलन के नाम से मशहूर हुआ। साल 1978 के अंत तक इलाके भर में संगठन का निर्माण लगभग पूरा हो गया। औरत-मर्द, बूढ़े-बच्चे कतार के कतार लाम बंद होकर महंत के खिलाफ विद्रोह का बिगूल फूंकने लगे। 18 से 25 वर्ष की युवतियों ने घर से कोसों दूर जो कारनामा कर दिखाया, वह अपने आप में एक उदाहरण है । स्थानीय महिलाओं को बोधगया महंत के फैले साम्राज्य के खिलाफ संगठित करने में उन्होेंने अद्भूत सांगठनिक क्षमता का प्रदर्शन किया। औरत-मर्द और युवक-युवतियों के संगठन की ताकत ने ऐसा समा बाँधा कि इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता । प्रख्यात समाजशास्त्राी उमा चक्रवर्ती ने बोधगया भूमि आंदोलन में महिलाओं की अग्रणी भूमिका पर दिल्ली और पटना के सेमिनारों में अपने व्यक्तव्यों में कहा कि ‘‘इस आंदोलन ने लोकतंत्र के मूलभूत तत्व समता, बराबरी और बंधुत्व के अपने नारे को महिलाओं के दृष्टिकोण से साकार किया। दुनिया के किसी भी आंदोलन में युवतियों की भूमिका, जिस तरह बोधगया भूमि आंदोलन में हुई, उस तरह किसी आंदोलन में आज तक नहीं हुई है।’’ देश भर की 18 वर्ष से लेकर 25 वर्ष की युवतियों ने जिस तरह इस भूमि आंदोलन में शिरकत की वह आज भी उदहरण है और यह इतिहास में दर्ज हो चुका है। एक औैर चर्चित नारा इस आंदोलन का रहा है ‘‘जो जमीन को जोते बोये वह जमीन का मालिक होवे।’’ जे.पी. का कहना था कि ‘‘पढ़े-लिखे युवाओं और युवतियों को डिग्री प्राप्त कर या उससे पहले गांवों के भोले-भाले मजदूर-किसानों के बीच जाकर अवश्य काम करना चाहिए, तब ही समाज में सम्पूर्ण क्रांति की धरा मजबूत होगी और समाज परिवर्तन का काम पूर्ण हो सकता है। सिर्फ़ राजनीतिक सत्ता बदलने से समाज नहीं बदल सकता । समाज में जात-पात, धर्म-अधर्म और कर्मकांड जैसे अंधविश्वास की जो बेड़ियां हैं, उसे दूर करने में युवक-युवतियों की महत्वपूर्ण योगदान हो सकती है, क्योंकि युवा ही क्रांति का वाहक हो सकता है ।’’ महिलाओं के लिए समता और बराबरी आंदोलन के मूल मंत्र शांतिमय भूमि संघर्ष की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका जे.पी. की सम्पूर्ण क्रांति विचार धरा की महत्वपूर्ण कर्म भूमि थी।
मेहनतकश हाथ के मालिक के पास जमीन का मालिकाना हक का न होना, सृजनशील मानवता का अपमान था। प्रकृति प्रदत जमीन के बुनियादी मालिक उस इलाके के मेहनतकश खेतिहर भूमिहीन मजदूर और खून-पसीना एक कर देने वाले मेहनतकश किसान थे, जो जमीन की कोख से अनाज का उत्पादन कर अपने और अपने परिवार तथा देश-समाज के अन्य शहरी इलाके के वासियों का पेट भरने का काम करते हैं। 8 अप्रैल 1978 के बोधगया की सड़कों पर निकले जुलूस पर जे.पी. ने अपना महत्वपूर्ण संदेश भेजा था ‘‘8 अप्रैल को बोधगया पहुंचने का सम्पूर्ण बिहार एवं देश के अन्य इलाके से छात्रा-युवा संघर्ष वाहिनी के क्रांतिकारी साथीगण संघर्षरत् एवं मठ के खिलाफ स्थानीय मजदूर-किसानों का बोधगया पहुंचने का निर्णय स्वागतयोग्य है, ऐसे क्रांतिकारी कार्यों में शामिल होकर एवं दलित-शोषित वर्गों से जुड़कर सम्पूर्ण क्रांति की गति को तेज करें यही मेरा आवाहन है।’’ युवतियों की भूमिका का महत्व इस एक घटना से समझा जा सकता है, जो 8 अगस्त, 1979 को मस्तीपुर गोली कांड से मशहूर हुआ था। 8 अगस्त, 1979 दिन बुधवार को मस्तीपुर गोली कांड मुझे खासकर याद आता है, जो महंत के गुंडे द्वारा किया गया था, जिसमें रामदेव मांझी की मौत गोली लगते ही हो गयी थी, पाँचू मांझी को बम और गोली के हमले के कारण बोधगया अस्पताल में इलाज के दरम्यान मौत हो गयी थी, साथ ही जानकी मांझी को पैर में गोली लगी थी, जिनका इलाज स्थानीय बोधगया अस्पताल में चल रहा था। उस दिन पूरा देश रक्षाबंधन का पर्व मना रहा था। गोली कांड के बाद क्षेत्र के बाहर के युवा साथियों – सुशील कुमार, प्रभात, कारू एवं फिरंगी लाल, दाहू मांझी, विपत मांझी, रामबली मांझी सहित अन्य साथियों को महंथ के गुंडों की मिली भगत से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। इलाके में गोली कांड के फलस्वरूप भय का वातावरण कायम हो गया था। ऐसे माहौल में संपूर्ण इलाके में सांगठनिक काम करते रहना कठिन हो गया था। चारो ओर भय का माहौल व्याप्त था। ऐसी विषम परिस्थिति में पटना की कंचन बाला और कुमुद ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए बचे हुए साथियों के साथ संगठन के केन्द्रों से सम्पर्क साध् कर रणनीतिक संदेश देने का काम किया कि ‘‘ऐसे माहौल में गिरफ़्तारी से बचना ही आंदोलन के हित में है, साथ ही हम सभी साथियों को इस भय के महौल को तोड़ते हुए, भूमिगत होकर क्षेत्राबार जिम्मेवारी लेकर काम करना चाहिए।” दोनों युवतियों ने 9 अगस्त को गया में स्थानीय साथियों के साथ अपराह्न में प्रेस कान्प्रफेंस किया। 10 अगस्त, 79 को पटना आकर कदमकुंआ स्थित जे. पी. निवास पर जे. पी. से मिलकर मस्तीपुर गोली कांड की विस्तृत रिपोर्ट देने का काम किया। उस समय कंचन बाला पटना वाहिनी की संयोजक भी थी, बैठक बुलाकर आगे की कार्यवाई क्या हो, इस पर संगठन के सभी साथियों के साथ विचार विमर्श किया। बैठक से दो महत्वपूर्ण कार्यक्रम की घोषणा की गयी। प्रथमतः पटना के शहीद स्मारक स्थल पर विशाल धरने का आयोजन और 15 अगस्त, 79 को वाहिनी एवं अन्य समर्थित साथियों के साथ विशाल जुलूस का आयोजन करना, जिससे की इलाके में व्याप्त भय का वातावरण समाप्त हो। 12 अगस्त, 79 को पटना शहीद स्मारक स्थल पर धरने का आयोजन वाहिनी के नेतृत्व में किया गया, जिसमें वशिष्ट नारायण सिंह, नीतिश कुमार, शिवानंद तिवारी, लालू प्रसाद और नरेन्द्र सिंह सहित 74 आंदोलन के नेतृत्वकारी साथियों की भी भागीदारी हुई। 15 अगस्त को मस्तीपुर में विशाल जुलूस निकाला गया, जिसमें 74 आंदोलन के नेतृत्वकारी साथीगण भी शामिल हुए थे।
किसी भी आंदोलन की रीढ़ अगर युवतियां होती हैं, तो आंदोलन को चलाने में सहूलियत होती है, क्योंकि घर – परिवार को चलाने में किसी भी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका महिलाओं की ही होती है । स्थानीय स्तर पर आंदोलन में आधी आबादी की अगर महत्वपूर्ण भूमिका होती है, तो पढ़ी-लिखी और समाज के बारे में बेहतर समझ रखने वाली बाहरी युवतियां उस आंदोलन में स्थानीय महिलाओं से बेहतर सहकार कर सकती हैं, क्योंकि ‘‘खग ही जाने खग की भाषा’’ वाली कहावत हर समाज और हर परिवेश में लागू होता है। इलाके की स्थानीय महिलाओं को अपनी पीड़ा नौजवान युवाओं के साथ साझा करने में स्वभाविक झिझक होती थी, खासकर बाहरी लोगों से, चाहे वह युवा किसी उम्र के हों, लेकिन अपने सामने युवतियों को देखकर अपने मन की पीड़ा स्वभाविक रूप से व्यक्त होने लगती थी। चुल्हा-चैकी की जबावदेही तो पूरी तरह महिलाओं की ही होती है। बच्चों का भूख से बिलखना पिता से ज्यादा मां को पीड़ा देती है। 500 कि.मी. में फैले बोधगया भूमि आंदोलन की बैकबोन अगर बाहरी युवतियां बनी, तो सिर्फ़ इसलिए कि उक्त क्षेत्र में पसरे बेकारी, बेरोजगारी और भूख की मार उक्त इलाके की महिलाएं सीधे – सीधे झेल रहीं थीं। भूख के अलावे भी उनके सामने शराबखोरी, अशिक्षा, अंधविश्वास, दहेजप्रथा और महंत के लठैत-गोमास्ते द्वारा महिलाओं का उत्पीड़न और यौन शोषण जैसी दूसरी समस्याएं भी थी। महिलाओं को दबाने, कुचलने और झुकाने के लिए बलात्कार मर्दो के पास एक कारगार हथियार हैं। धीरे-धीरे इलाके में भूमि आंदोेलन की पकड़ मजबूत होती गयी और देश भर में फैले वाहिनी संगठन की युवतियों का आना-जाना बोधगया महंत के भूमि साम्राज्य में होने लगा। शांतिमय भूमि संघर्ष में स्थानीय महिलाएं और बाहर की पढ़ी-लिखी युवतियों को आंदोलन में नये-नये आंदोलन से उभरने वाले मुद्दे जोड़ने की जरूरत महसूस होने लगी। मसलन सबसे पहले स्थानीय महिलाओं से सहकार कर बाहर से गई विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली युवतियों ने शराबखोरी पर हमला बोला। मर्दों की शराबखोरी से प्रत्येक परिवार के चूल्हे पर सीधे-सीधे असर पड़ता था । शराबखोरी के बाद सामाजिक कुरीतियों के तौर पर अंधविश्वास, तिलक-देहज और इलाके में बगैर वापसी की कोई आस के कर्ज के दलदल में फंसते जाना महिलाओं के लिए पीड़ा की एक अलग अनंत कथा थी। महाराष्ट्र से लेकर गुजरात व बिहार के पटना विश्वविद्यालय एवं अन्य इलाके की युवतियों के सामने अपनी पीड़ा को परत-दर-परत खोल कर रखने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी। यही कारण है कि स्थानीय महिलाएं और वाहिनी की आंदोलनकारी युवतियां बोधगया भूमि आंदोलन में अग्रणी भूमिका में रहीं। जुलूस, प्रदर्शन हो या कई-कई दिनों तक शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन का कार्यक्रम उनमें बाहरी युवतियां और स्थानीय महिलाओं का उत्साह देखते बनता था। पुलिस प्रशासन को भी अपनी लाठी भांजने में महिलाओं को आगे देखकर स्वाभाविक हिचक होती थी, क्योंकि महिलाएं किसी भी जाति-बिरादरी की हों, थी तो महिलाएं ही। आंदोलनकारी युवाओं पर जितनी आसानी से पुलिस द्वारा लाठी भांजी और दमन चलाई जा सकती है, उसी अंदाज में महिलाओं का दमन और उन पर लाठी चलाने में उन्हें हिचक होती थी। ज्यों-ज्यों भूमि आंदोलन की पकड़ इलाके पर होती गई, त्यों-त्यों महिलाओं की भूमिका भी बढ़ती गयी। शुरू-शुरू में आंदोलन में स्थानीय युवाओं और मर्दों की उस कदर भूमिका मंहत के गुंडे-लठैतों के कारण नहीं हो पाती थी, कारण उनका आतंक चहुओर व्याप्त था। लेकिन महिलाएं बिना हिचक आंदोलन में सीधे-सीधे भागीदार हो जाती थी, कारण उनकी समस्या मर्दों से ज्यादा थी और हो भी क्यों नहीं बच्चों के लिए रोटी की फ़िक्र तो मां को ही करनी पड़ती थी। पिता तो ताड़ी और दूसरे व्यसनों में लग कर अपना समय काट ले सकता है, लेकिन दिन भर काम करने के बाद भी रोटी का एक निवाला बच्चों तथा परिवार को न मिले तो मां जाएं तो जाएं कहां। पूरे बोधगया मंहत के इलाके में ताड़ के पेड़ की बहुतायत थी और आज 40 वर्षो के बाद भी ताड़ का पेड़ कायम है, कुछ कमी के साथ। इसलिए भूमि आंदोलन की प्रमुख मांग थी कि जीत होने पर जमीन का पट्टा औरत और मर्द दोनों के नाम होगा। पितृसत्तात्मक समाज में औरत खेती की जमीन की मालिक बनेगी यह एक क्रांतिकारी नारा भी था और मांग भी। खेती की जमीन की मालकिन बनने और दूसरे के यहां मजूरी करने के बजाए अपने खेत में काम करने का आनंद तथा और दूसरे तरह की गुलामी से सम्पूर्ण आजादी के बोध के आनंद का महिलाओं को आंदोलन में शिरकत करने को प्रेरित करता था। बोधगया भूमि आंदोलन की एक ऐतिहासिक बात यह थी कि आंदोलन की जीत के बाद औरतों के नाम भी जमीन का मालिकाना पट्टा होना था। परम्परागत कानून के अनुसार सिर्फ़ मर्दों के नाम ही जमीन के कागज में नाम दर्ज होता है, औरतों का नाम नहीं। एक परिवार एक एकड़ की जमीन का पट्टा, साथ में बच्चों के स्कूल जाने पढ़ाने-लिखाने की आजादी, पूर्ण शराबबंदी, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड और तिलक-दहेज से छुटकारा, कम उम्र में लड़कियों की शादी से मुक्ति, औरतों को परिवार और समाज में बराबरी का अधिकार, साथ ही इज्जत की जिंदगी जीने की आजादी अर्थात बलात्कार जैसे घृणित मर्दमारू प्रवृति से मुक्ति, बोधगया भूमि आंदोलन का मुख्य लक्ष्य था। अगर हम बोधगया भूमि आंदोलन में पढ़ी-लिखी आंदोलन की अग्रणी दस्ता बनी देश भर की युवतियों की सूची बनाएं तो हो सकता है कि यादाश्त धोखा दे जाए। लेकिन आंदोलन में युवतियों की भूमिका बगैर युवतियों की सूची को दर्शाये बात मुक्कमल नहीं हो सकती, तो नामों की सूची की फेहरिस्त में सर्वप्रथम नाम जो मुझे याद आता है, उसमें सर्वप्रथम नाम है – मणिमाला का, जिन्हें बाद में टाइम्स का प्रतिष्ठित फेलोशिप मिला। कनक, कंचन बाला, कुमुद, एलिस कंचन, अंजली, चेतना गाला, सुभा शमीम, रजिया पटेल, सुध चैध्री, गीता, मीना, किरन, पूनम, नूतन, नेत्रा इत्यादि। स्थानीय युवतियों में कुंति देवी, आसा देवी, मागर देवी, सामा देवी, बुध्नी देवी, सोना देवी, लेवड़ा गाँव से फूलीया देवी, सोना देवी, मुसीचक गाँव से समरी देवी, शांती देवी, धनवती देवी, मीना देवी, जेठनी देवी, कजरी देवी, सोमरी देवी, मीना देवी, सरसती देवी, सुनेना देवी, चनवा देवी एवं कुसावीघा गांव की महिलाएं जिनका नाम याद नहीं है, कुंती देवी के अलावे भी शेखवारा गांव की अन्य महिलाएं भी थी, जिनका नाम यादाश्त में नहीं आ रहा है।
आंदोलन जारी है…
1978 से लेकर आज तक 40 वर्षो का स्वर्णिम इतिहास बोधगया के इलाके के क्रांतिकारी खेत मजदूर-किसान क्रांति की मशाल को आज भी जगाये हुए हैं। मजदूर-किसानों ने बोधगया महंत के खिलाफ क्रांतिकारी जीत के बाद मिली एक एकड़ खेती की जमीन से अपने को इतना भर समृद्ध किया कि बंधुआ मजूरी के जीवन से तो मुक्ति मिली, लेकिन जीवन के अन्य जरूरतों को समय के साथ बढ़ती गैर बराबरी की ओर धकेलती राज्य और केन्द्र सरकार की आर्थिक गैरबराबरी की नीतियों के खिलाफ हमेशा उन्हें आंदोलनरत होने को मजबूर होना पड़ता है। इंदिरा आवास का मसला हो या बी.पी.एल. में नाम जुड़वाने की जद्दोजहद् या राशन की विभिन्न गैरबराबरी वाली कार्डों को प्राप्त करने की जिद्कारी आंदोलन, उन्हें आज भी गांव से पंचायत तक ब्लाक से गया कलेक्टर के दरबार तक तथा पटना के विधान सभा तक धरना-प्रदर्शन से ही उनकी जीवन पति में परिवर्तन आ सकता है, इलाके के लोगों ने यह समझ लिया है। अतः ‘‘संघर्ष ही जीवन है’’ के नारे को हमेशा हाथ में तख्ती लिए आंदोलन की मशाल को जलाये रखने को मजबूर हैं। हाल ही में केन्द्र सरकार ने वनाधिकार कानून 2006 (Forest Right Act, 2006) बनाकर वन की जमीन पर वर्षो वर्ष से बसे गरीब-गुरबा को वन विभाग के द्वारा बेदखल करने के खिलाफ वन की जमीन पर बसे गरीब-गुरबा को कानूनी रूप से सशक्त किया गया है, जिसे मजदूर-किसान समिति, छात्रा-युवा संघर्ष वाहिनी तथा जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी ;जसवाद्ध ने स्वागत योग्य कदम माना। छात्रा-युवा संघर्ष वाहिनी के नेतृत्वकारी साथियों ने 1989 में उम्र सीमा रहित संगठन के लिये पहल ली और इस तरह 1990 से जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी ;जसवाद्ध अस्तित्व में आया। बोधग़या क्षेत्र में 1994 से जसवा ने बोधगया आंदोलन के बकाया कामों को आगे बढ़ाने के लिए वाहिनी और मजदूर किसान समिति के पुनर्गठन का बीड़ा उठाया, इसका परिणाम है कि आंदोलन आज भी जारी है। बोधगया के शांतिमय भूमि-संघर्ष ने बोधगया मठ की सम्पूर्ण सत्ता ध्वस्त कर दी है। बोधगया मठ के सम्पूर्ण ध्वंस और शांतिमय भूमि-मुक्ति-संघर्ष के विजय का उद्घोष लखैपुर में 25-27 अक्टूबर, 87 के ‘विजय सम्मेलन’ 27 अक्टूबर-3 नवम्बर, 87 के लखैपुर-पटना के पैदल मार्च-विजय मार्च, और 4 नवम्बर, 87 को पटना में आयोजित संगोष्ठी कृषि-क्रांति का द्वितीय चरण के माध्यम से किया जा चुका है। यह सफलता भारतीय भूमि-संघर्ष के इतिहास की एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक सपफलता है। 9 साल की संघर्ष यात्रा की इस विजय ने शांतिमय वर्ग-संघर्ष की अवधरणा को वस्तुगत प्रमाणिकता तो, प्रदान की है, समाज-परिवर्तन की रणनीति के रूप में शांतिमयता की प्रस्थापना को अकाट्य हैसियत दी है। साथ ही हिंसा की अनिवार्यता के अंधविश्वासी नजरिये को सशक्त चुनौती भी दी है।
मजदूर किसान समिति, वाहिनी और जसवा ने वन के जमीन पर पुश्तैनी रूप से बसे निवासियों के साथ उनकी पीड़ा को मूर्त रूप देने का अपने आंदोलन का लक्ष्य जनवरी 2008 में तय किया और जिनकी समस्या उन्हीं का आंदोलन की जमीनी हकीकत के साथ व्यापक प्रदर्शन का आयोजन किया। 2008 से 2017 तक लगभग 9 साल के लगातार संघर्ष के परिणाम स्वरूप वन की जमीन पर बसे मजदूर किसानों को सुधि नागरिकों द्वारा हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका पर पूर्ण सुनवाई कर हाइकोर्ट ने वन की जमीन पर बसे और खेती करते बाशिंदे के पक्ष में सरकारी दलीलों को खारिज करते हुए सरकारी दमनकारीकारी नीतिओं के खिलापफ स्टे आर्डर दिया। हाईकोर्ट द्वारा अपने आर्डर में सरकार को स्पष्ट आदेश दिया कि 2000 एकड़ जंगल-जमीन पर वर्षों से खेती कर रही जनता के दावों को कानूनी मान्यता दे दी गयी है। साथ ही वन के जमीन पर बसे मजदूर-किसान को तब तक बेदखल नहीं कर सकते जब तक कि उन बाशिंदों का पूर्ण रूप से कानूनी निपटारा न कर लें। इलाके में आज शिद्दत से मजदूर किसान समिति और जसवा के क्रांतिकारी साथी डटे हैं। इलाके के बाशिंदे के हाथ में कानून का स्पष्ट आदेश प्राप्त हो जाने के बाद, इलाके के लोगों का सीना चौड़ा और इरादे बुलंद हैं। आगे कोई भी कानूनी या अन्य बाधा को पार कर जाएंगे, इस इरादे के साथ लोग आज भी डटे हैं। लिखे जाने तक मजबूत इरादों के साथ आंदोलन जारी है ।
(लेख जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी के सदस्य हैं। समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में छपते रहते हैं।)