
-मोहम्मद मंसूर आलम
18 दिसम्बर को संजली नाम की एक दलित युवती को उत्तर प्रदेश में ज़िन्दा जला दिया जिनकी दो दिनों के बाद मौत हो गयी. आपने शायद ही इस घटना के बारे में अधिक सुना होगा. प्राइम टाइम पर तो बिलकुल नहीं देखा होगा. हाँ, आपने निर्भया के मामले में, एप्पल एग्जीक्यूटिव के मामले में और कई मामले में टीवी पर लोगों को चिल्लाते हुए, कैंडल मार्च करते हुए, नेताओं को हर्जाना की ऊँची बोली लगाते हुए, परिवार को नौकरियां देने की गुहार लगाते हुए सुना होगा और देखा होगा. इस मामले में यह सब क्यों नहीं सुना? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वह दलित थी?
क्या था मामला?
18 दिसम्बर को मलपुरा के लालऊ की दसवीं की छात्रा जब दोपहर को छुट्टी के बाद साइकिल से घर लौट रही थी तभी बाइक सवार दो युवकों ने पेट्रोल डालकर उसे आग के हवाले कर दिया। छात्रा गांव से नौ किमी दूर नौमील गांव स्थित अशरफी देवी छिद्दा सिंह इंटर कॉलेज में कक्षा 10 में पढ़ती थी। उसको गंभीर अवस्था में आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया जहाँ से उसे दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में रेफर कर दिया गया। वहीँ गुरुवार को उसकी मौत हो गई।
एक सप्ताह समाप्त हो गया. पुलिस अब तक इसका सुराग नहीं लगा सकी है कि हत्यारे सच में कौन हैं और हत्या के पीछे की हकीकत क्या है. साफ़ है कि लड़की दलित है और हत्यारे अज्ञात. हत्यारे सवर्ण भी हो सकते हैं, हत्यारे दलित या कोई भी हो सकते हैं. लेकिन पीडीता दलित है यह बात साफ़ है.
मीडिया में पुलिस रिपोर्ट के हवाले से इसे प्रेम प्रसंग का मामला बताया जा रहा है. बताया जा रहा है कि उस दलित लड़की से उसके ताऊ के बेटे (कुछ मीडिया इसे अपने ताऊ का बेटा कह कर अपने पर ज्यादा बल देना चाह रही है) योगेश को प्रेम था और उसी ने इस काम को अंजाम दिया है. पुलिस रिपोर्ट के अनुसार, संजली के चचेरे भाई योगेश की मोबाइल में कुछ ऐसा मिला है जिससे पता चलता है कि संजली योगेश से खफा थी.
हालांकि संजली की माँ की मानें तो पुलिस हत्यारे को ढूँढने के बजाय उनके अपनों को ही परेशान कर रही है.
पुलिस जिस योगेश को मुख्य आरोपी मान रही है वह इस दुनिया में नहीं है. उसने संजली की मौत के तुरंत बाद ही ज़हर खा कर जान दे दी.
योगेश के ज़हर खाने और मर जाने से पुलिस का काम बहुत आसान हो गया है. हालांकि एक प्रश्न है – जैसा मीडिया कह रही है कि पुलिस को योगेश पर पहले से संदेह था तो पुलिस ने उसे तत्काल ही हिरासत में क्यों नहीं लिया?
मान लें कि यह सब बात ठीक भी है तब भी क्या इससे उत्तर प्रदेश में अराजकता है यह स्पष्ट नहीं होता? किसी लडकी को बाइक पर सवार कुछ लड़के सरे आम ज़िन्दा जला देते हैं और मीडिया इस पर अराजकता का मुद्दा बनाने के बजाए इसे प्रेम प्रसंग का मामला कह कर ढीली पर जाती है.
क्या मीडिया इतना ही करती अगर यह मामला किसी सवर्ण लड़की का होता? क्या मीडिया की नज़र में दलित की जान का कोई स्पांसर नहीं मिलता?
हर हत्या के मामले में कोई न कोई कारण होता ही है. बिना विवाद, बिना कोई कारण किसी का खून नहीं बहता. लेकिन जब दलित का खून बहता है तो किसी का खून नहीं खौलता यह चिंताजनक है.
समाजवादी और दलितवादी नेताओं ने भी इसपर वैसा विरोध नहीं किया जैसे किसी सवर्ण की मौत पर. कहाँ किसी ने इस बहादुर लड़की के लिए 50 लाख की मांग नहीं की. कहीं किसी ने इस बहादुर बच्ची के परिवार वालों को नौकरी की मांग नहीं की. चाहे वह अखिलेश बौआ हों या मायावती बुआ, सबने विरोध के नाम पर महज खानापूर्ति ही की है.
जबकि एप्पल एग्जीक्यूटिव की मौत पर पूरा उत्तर प्रदेश मानो जैसे आग बगुला था. उनके परिवार को सब दे दिया गया जो उसने माँगा. उनके परिवार के साथ देश के राजनेता और मीडिया सब लगे रहे. कई दिन तक टीवी शो किए जाते रहे. मैं नहीं कहता कि उस एप्पल एग्जीक्यूटिव की हत्या पर रोष नहीं होना चाहिए था. बस मैं यह कह रहा हूँ कि संजली की मौत पर, दलितों की मौत पर, अल्पसंख्यकों की मौत पर वैसी संवेदना दिखने को क्यों नहीं मिलती? क्या इसलिए कि इससे हिन्दुओं के बीच जात-पात के अंदर 21वीं सदी में भी भेद भाव उजागर होते हैं?
ज्ञात रहे कि एप्पल एग्जीक्यूटिव के परिवार को वह सब जांच मुकम्मल होने से पहले ही दे दिया गया. क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि एप्पल एग्जीक्यूटिव खुद ही इस मामले में दोषी हो? क्या यह नहीं हो सकता कि जो कुछ पुलिस अभी संजली के बारे में कह रही है वह सब गलत हो. संजली को न्याय तो मिलना ही चाहिए. संजली की जान गयी है उसका हर्जाना भी उत्तर प्रदेश सरकार से उस परिवार को उतना ही मिलना चाहिए जितना एप्पल एग्जीक्यूटिव को मिला था.
एससी आयोग के अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया जब संजली की माँ अनीता से मिलने गए तब अनीता का यही कहना था कि हत्यारों ने जिस तरह उनकी बेटी को मार डाला उसी तरह उन्हें भी जलाया जाए। उनका कहना था कि पुलिस हत्यारों को अभी तक पकड़ नहीं पाई। हत्यारों तक पहुंचने की जगह पुलिस परिवार के लोगों पर ही शक कर रही है। नेता पर नेता आए जा रहे हैं। यहां आकर पानी मांगते हैं। नेतागिरी करते हैं। हम गरीब लोग हैं। कहां से उनकी मांग पूरी करें। हमें नेतागिरी नहीं इंसाफ चाहिए। अगर इंसाफ नहीं मिला तो मैं भूख हड़ताल करूंगी…।
लेकिन यह माँ का दर्द था जो उसने व्यक्त किया. राज्य का जो दायित्व है वह उसे अवश्य निभाना चाहिए.