
-मोहम्मद मनसूर आलम
दीवाली ऐसे चंद हिन्दुस्तानी त्योहारों में से है जिसकी जगमगाहट क्या हिन्दू, क्या मुस्लमान, क्या दलित, क्या ब्राह्मण सबके घरों को अपनी रौशनी से जगमगाता है। मियां गफूर के घर के दिया से दीना नाथ के घर के दरवाज़े को रौशनी मिलती है और सोहन चचा जिस दिए को जलाते हैं उस दिए से सुभान मामू का घर भी रौशन होता है। कुम्हार के हाथों के मिटटी के दिए जब घी में डूबे पलीते से जलता है तो उसकी रौशनी तो हमारी रूह को ताज़ा करती ही है उसकी खुशबु से पूरा वातावरण प्रेम की सुगंध लिए कई दिनों तक रहता है। आज भी मैं अपनी छत के बालकनी से उन दीयों को गौर से देखने की कोशिश करता हूँ तो उन दीयों में मुझे कोई हिन्दू, कोई मुसलमान नहीं दीखता है बस दीखता है तो वह मासूम दिया जिसको क्या पता वह किस दरवाज़े को रौशन कर रहा है। बस वह अपनी पूरी तन्मयता से किरणें बिखेरता रहता है।
दिवाली की रात का मुझे पूरा साल इसलिए भी इंतज़ार रहता है क्योंकि इस रात को मुझे वही अनुभूति होती है जो जो मुझे ईद की सुबह को होती है। खुशियाँ बांटने वाली रात बिलकुल ईद की प्रभात की तरह। मैं हमेशा अपने घरों में कुछ दिए इस रात जलाता हूँ इस आस्था के साथ कि इस दिए का कोई धर्म नहीं है और न ही इस दिए से मेरा अल्लाह बुरा मानेगा बल्कि मुझे तो लगता है कि मेरा अल्लाह इससे खुश होता होगा क्योंकि ये दिए मेरी इंसानियत के प्रतीक होते हैं। मेरे दिए ज्यादा रौशन होते हैं मेरे हिन्दू पडोसी की अपेक्षा क्योंकि इसमें धर्म की कोई बू नहीं आती बल्कि सिर्फ इंसानियत के नाते के यह दिए जल रहे होते हैं और इस का केवल यही उद्देश्य होता कि हमारे दीयों को देख कर मेरा पड़ोसी उस अपनापन का एहसास करे जिसके लिए त्योहारों का हमारे पूर्वजों ने अविष्कार किया।
दीवाली मनाई क्यों जाती है इसका धार्मिक उद्देश्य क्या है यह तो पता नहीं। सुना है लोग इस रात को धन की देवी की पूजा करते हैं और इससे संपन्नता आती है लेकिन मैं मानता हूँ कि किसी भी धर्म काण्ड से कोई संपन्नता नहीं आती। संपन्नता आती है संपन्नता का साझा करने से। हमें इस दीवाली अपनी संपन्नता का साझा असंपन्न लोगों के साथ करना चाहिए। अगर हम ऐसा करेंगे तभी संपन्नता आएगी। और लोग ऐसा करते भी हैं। मालिक अपने नौकरों को इस अवसर पर बोनस बांटते हैं। दुकानदार अपने ग्राहकों को उपहार देते हैं और मिष्ठान बांटते हैं। बड़े स्टोर आम तौर से ज्यादा उत्पादों पर छूट देते हैं। हम तो कभी अपनी महंगी ज़रूरत के सामान की ख़रीदारी के लिए दीवाली का इंतजार भी करते हैं। त्यौहार का फलसफा इससे अच्छा नहीं हो सकता है। यही होना भी चाहिए हमारी सपन्नता से दुसरे भी संपन्न हों। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा भी था कि अमीरी खराब चीज़ नहीं हैं अमीरों के खर्च करने से गरीबों को धन प्राप्त होता है।
हालांकि अब यह चलन कम हुआ है! उपभोक्तावाद ने हमें इतना लालची बना दिया है कि हम एक गाड़ी खरीदते ही दूसरी गाड़ी पर अपनी निगाहें टिका देते हैं। अपनी फ्रिज की तुलना तुरंत अपने पडोसी की फ्रिज से शुरू कर देते हैं और खुद को कुंठा मोड (mode) में डाल देते हैं। इस दीवाली यह न करें। इस दीवाली हम यह करें कि अपने पड़ोसियों के साथ अपने संबंध गहरे करने के लिए उन्हें कुछ तोहफे दें। उनसे कुछ तोहफे लें। तोहफ़ों के लेन देन में इसका ख्याल रखें कि उन तोहफ़ों से एक दुसरे की ज़रूरतें पूरी तो भला इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। बीमारों की तीमारदारी करें। गरीबों को खाना खिलाएं। वृद्ध आश्रम का दर्शन कर आएं। अपने आस-पास की झोपड़-पट्टी में जाकर दीवाली का आनंद लें। एक बात का ख्याल रखें कि जिन बेटियों ने आपके घरों को प्रज्ज्वलित करने के लिए अपने हाथों को मिटटी में सना है उनके दिए जला कर अपनी सपन्नता का साझा उनके साथ अवश्य करें।
दीवाली आपका हमारा सबका त्यौहार है। अपनी संपन्नता से दूसरों को संपन्न करने का पूरा प्रयास करें।