
सुप्रीम कोर्ट ने 20 फरवरी को एक निर्णय दिया है जिसके अमल में आने के बाद 16 राज्यों के लगभग 11 लाख लोगों को जंगल खाली करना होगा. कोर्ट ने कहा है कि जिन परिवारों के उनके पारंपरिक वनक्षेत्रों के दावे वन अधिकार अधिकारों के तहत अस्वीकार किए गए हैं उन्हें जंगल खाली करना होगा. ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कुछ संगठनों की याचिका पर अपना निर्णय दिया है. इस पर वन अधिकार मंच और भूमि अधिकार आन्दोलन का यह प्रेस रिलीज़ है.
नई दिल्ली, 21 फरवरी: वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, नेचर कंसर्वेशन सोसायटी और टाइगर रिसर्च व कंसर्वेशन ट्रस्ट द्वाया वनवासियों के विस्थापन संबंधित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया है. संस्थाओं का दावा था कि वन अधिकार काननू (फारेस्ट राइट्स एक्ट) के तहत वनवासियों को अधिकारों से वंचित कर दिया गया है. वर्ष 2006 में काननू लागू होने के बाद से ही प्रो-कॉर्पोरेट लॉबी के दबाव में वैन अधिकार कानून को कमज़ोर करने की कोशिशें जारी हैं. वनवासियों को वन्य अधिकारों से वंचित करने की ये साजिशें वन अधिकार कानून 2006 को ध्वस्त कर देगी. भूमि अधिकार आन्दोलन इस फैसले को कोर्ट में चुनौती देगा और जंगलों के अधिकार के साथ हो रहे छेड़छाड़ के खिलाफ शांत नहीं बैठेगा. हम राजनीतिक दलों से अपील करते हैं कि वे भी इस फैसले पर अपना विरोध दर्ज करवाएं और जंगलों को ख़त्म करने के इस षड्यंत्र में न फंसें. हम यह भी अपील करते हैं कि राजनीतिक दल वन अधिकार कानून को और भी सुचारू ढंग से लागू करने की प्रतिबद्धता दिखाएं. आम चुनावों के नज़दीक आते ही यह भी विमर्श जारी है कि सोची-समझी साज़िश के तहत वन अधिकार कानून को सरकारी संस्थाओं द्वारा कमज़ोर किया जा रहा है ताकि कारोबारी समूहों और तथाकथित जंगल बचाने वाले समूहों की मदद की जाए.
यह गौर किया जाना चाहिए कि कानून का अनुच्छेद 12 ग्राम सभा को विभिन्न वन अधिकार से जुडी कमेटियों और उनके मशविरों पर फैसले लेने का अधिकार प्राप्त है. जिला स्तर की कमेटियां ग्राम सभा के फैसलों और मशविरों पर सिर्फ राय व्यक्त कर सकती है. ऐसा मालूम होता है कि कोर्ट ने इन महत्वपूर्ण बिन्दुओं को दरकिनार कर दिया. केंद्र सरकार के वकील की गैर मौजूदगी में कानून के अंतर्गत विभिन्न प्रावधानों और राज्य सरकार द्वारा दायर की गयी याचिकाओं की विस्तार से विमर्श का अभाव महसूस होता है.
इस कानूनी प्रक्रिया में सुनवाई के दौरान सरकार के वकील की अनुपस्थिति वन समुदाय के खिलाफ औपनिवेशिक मानसिकता को पुष्ट करती है और बताता है कि सरकार उनके अधिकारों और कल्याण को कैसे देखती है. यह फैसला, अगर लागू किया गया तो यह वन अधिकारीयों को वनवासियों को प्रताड़ित करने का बहाना दे देगा. वनवासियों को इसी तरह की प्रशासनिक अत्याचार से बचाना वन अधिकार कानून का मकसद रहा था. औपनिवेशिक शासकों द्वारा ऐतिहासिक तौर पर अन्याय सहती आए समुदायों को आज़ादी के बाद न्याय और आत्म सम्मान देने के लिए वन अधिकार को लाया गया था.
पिछली बार एनडीए सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आदेश पर इसी तरह देश भर में वन समुदायों के निष्कासन की प्रक्रिया 2002-2004 में चलाई जाती है, वो भो सुप्रीम कोर्ट के 23 नवम्बर 2001 के अप्रभावी आदेश के सन्दर्भ में ही था. एक गलत धारणा पर कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को लगभग 12.50 लाख हेक्टेयर वन भूमि अतिक्रमण के अधीन है और यह कि सभी अतिक्रमण जो नियमतिकरण के योग्य नहीं है को संक्षेप में निकाला जाना चाहिए. समयबद्ध तरीके से और किसी भी मामले में 30 सितम्बर, 2002 से बाद में नहीं.
क्या एक बार फिर ऐतिहासिक अन्याय को दोहरा जाएगा? कम से कम देश का दो तहाई वन भूमि आदिवासी भूमि है जो संविधान के पांचवी सूची में आते हैं. यदि इस आदेश को माना जाता है तो निश्चित तौर पर देश के कई हिस्सों में अशांति पैदा होगी जिससे आदिवासियों और दुसरे वन समुदायों के जीवन पर खराब असर पड़ेगा. इस आदेश के साथ ही पहले से वन अधिकार पाने वालों के अधिकार पर भी खतरा होगा. इतना ही नहीं इस बात की भी आशंका है कि उनपर वन विभाग और निजी कंपनियों के द्वारा शोषण किया जाएगा.
यह गौर करने वाली बात है कि पिछले साल और आज भी मुंबई में हो रहे ऐतिहासिक किसान मार्च में वन अधिकारों के दावों को स्वीकार करने में अनियमितता होने की बात को प्रमुखता से उठाया गया था. जब से वनाधिकार कानून आया है, देश भर में वन समुदाय इस अधिकार को हासिल करने और कानून के पालन करने के मांग को लेकर संघर्षरत हैं. लेकिन सरकार द्वारा इस कानून को लागू करने में इच्छाशक्ति की कमी की वजह से आजतक इसे ज़मीन पर प्रभावी तरीके से लागू नहीं करवाया जा सका है. उलटे सरकार ने विकास और संरक्षण के नाम पर इस कानून को कमज़ोर करने की ही कोशिश की है.
वन अधिकार मंच और भूमि अधिकार आन्दोलन एनडीए सरकार के अभाववादी रवैये की निंदा करती है और मांग करती है कि वनाधिकार कानून को प्रभावी तरीके से लागू करे तथा कानून को कमज़ोर करने के किसी भी प्रयास को रद्द करें और उच्चतम न्यायलय के मौजूदा कानून के आलोक में जबरन निष्कासन या विस्थापन को होने से रोकें.
हम यह भी मांग करते हैं कि सरकार अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने के नाम पर उत्पीडन के प्रयासों को रोकें और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करें.