
-श्यामाकांत झा
पहले तबादला, फिर पदावनति, निलंबन और अब समय पूर्व सेवा निवृत्ति की सज़ा मिली एक कर्मठ, निर्भीक और बेबाक वरीय आईपीएस ऑफिसर अमिताभ दास को. सज़ा तो गुनाह का होता है. बकौल अमिताभ दास – “मैंने कोई गुनाह किया ही नहीं फिर भी सज़ा मिली. आज की राजनीति में चमचागिरी नहीं करना गुनाह है, माफियाओं और राजनेताओं के गठजोड़ का खुलासा करना गुनाह है, माफिया से मंत्री तक का सफ़र करने वाले रामभक्त के प्रतिबंधित रणवीर सेना संबंध का खुलासा करना गुनाह है. मुझे तो इन्ही गुनाहों की सज़ा मिली है. मैंने इस बर्खास्तगी को कैट के बेंच में चुनौती दी है. यदि सत्य की जीत होनी होगी तो मैं जीतूंगा ही. वरना यह साबित हो जाएगा कि एक आईपीएस को इमानदार और बेबाक नहीं होना चाहिए.”
वाकई, अमिताभ दास के यह उदगार आज की राजनीति के असली चेहरे को उजागर करता है. यहाँ तरक्की उन्हें मिलती है जो सत्ता के शीर्ष के समक्ष दुम हिलाते रहते हैं, उनके गलत कार्यों में सहयोगी होते हैं. कानून-कायदे से काम करने वाले किसी भी पुलिस अधिकारी को सत्ता का मुखिया चैन से नहीं बैठने देता. अमिताभ दास अकेले भुक्तभोगी नहीं है. उनसे पहले का हालिया उदाहरण आईपीएस (अब अवकाश प्राप्त) मनोज नाथ थे जिन्हें इमानदार छवि के होने के बावजूद डीजीपी नहीं बनने दिया गया. उनके कनीय अधिकारीयों को उनके सेवा में रहते डीजीपी बना दिया गया. मनोज नाथ का कसूर यह था की वे इमानदार थे. उनहोंने विद्युत बोर्ड में हुए करोड़ों के घपले को उसके विजिलेंस अधिकारी रहते हुए उजागर किया था. लोक प्रसंग ने जनवरी 2012 के अपने अंक में उस घोटाले को ‘सुशासन का 420 वोल्ट’ शीर्षक आवरण कथा से सप्रमाण न्यूज़ स्टोरी की थी. इसे बिहार के पाठकों ने बेहद सराहा था. उस प्रमाणिक न्यूज़ स्टोरी के कारण लोक प्रसंग को निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत भी किया गया था.
बहरहाल हम बात कर रहे हैं बिहार के उन जांबाज़ आईपीएस पुलिस अधिकारियों की जिन्होंने भ्रष्ट सत्ता के आगे झुकने से साफ़ मना कर दिया. मनोज नाथ उनहीं में से एक हैं. उनके बाद अमिताभ दास ही ऐसे जुझारू आईपीएस हुए हैं जिन्होनें सत्ता के गतल कारनामों को न केवल उजागर किया है बल्कि उसके विरुद्ध लगातार आवाज़ उठाते हुए ‘धर्म युद्ध’ पर डटे हुए हैं. आईपीएस अजय वर्मा ने भी सत्ता के समाख घुटने टेकने से मना किया तो पहले उनके विरुद्ध विभागीय कार्यवाइयों का दौर चला और अंत में अमिताभ दास के साथ उन्हें भी मुअत्तल कर दिया गया. चूंकि उनकी सेवा अब कुछ ही महीने बची हुई हैं इसलिए उनहोंने इस समय पूर्व सेवा निवृत्ति को भी वीआरएस (स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति) की तरह लिया है. पर अमिताभ दास की सरकारी सेवा अभी कुछ वर्ष शेष थी. इसलिए भी उनहोंने कैट में अपनी समय पूर्व सेवा निवृत्ति के विरुद्ध अर्जी दे दी है. इस संबंध में पूछे जाने पर अमिताभ दास कहते हैं… ‘मेरा मुख्य उद्देश्य आईपीएस की नौकरी फिर से पाना नहीं है. मैं स्वयं को उन ईमानदार अधिकारीयों का प्रतिनिधि मानता हूँ जो सरकारी अन्याय के समक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं हैं. कैट में मैंने चुनौती इसलिए भी दी है की सत्य मेरे साथ है. आवश्यकता पड़ी तो देश की सबसे बड़ी कचहरी सुप्रीम कोर्ट तक भी जाऊंगा.”
अमिताभ दास के साथ हुए इस अन्याय को लेकर कई सामाजिक संगठन अपने स्तर से उन्हें न्याय दिलाने हेतु कटिबद्ध है. ऐसे ही एक सामाजिक संगठन ने देश में कार्यरत एक गणमान्य भ्रष्टाचार विरोधी संस्था ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ के प्रमुख रमा नाथ झा ने देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को एक गंभीर पत्र लिख कर मामले पर पुनर्विचार करना का आग्रह किया है.
उल्लेखनीय है की अमिताभ दास ने मीडिया के साथ यह भी आशंका ज़ाहिर की है कि राजनेता और माफियाओं की गठजोड़ के कारण उनकी हत्या भी हो सकती है. इस आशय का आवेदन उनहोंने न्यायालय में भी दे रखा है.
अमिताभ दास बनाम नीतीश कुमार वाला किस्सा शुरू होता है साल 2001 से. कड़क-मिज़ाज आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास की तैनाती पटना के रेल एसपी पद पर हुई. 1994 बैच के आईपीएस अमिताभ इसके पहले सीमांचल के किशनगंज के पुलिस कप्तान थे. वहां उनहोंने बाहुबली छवि के राजद नेता तस्लीमुद्दीन को नाको दम कर रखा था. तस्लीमुद्दीन बिहार सरकार के भवन निर्माण मंत्री थे. हैरान-परेशान मंत्री महोदय ने राबड़ी देवी को 3-4 पन्नों का पत्र लिख डाला. आईपीएस दास को सामाजिक न्याय का घोर विरोधी बताया गया. राजद हुकूमत में यह सबसे गंभीर इलज़ाम था. बहरहाल लालू यादव ने दास का बोरिया-बिस्तर किशनगंज से बंधवा दिया. चाचा तस्लीमुद्दीन ने तो चैन की सांस ली पर तत्कालीन रेल मंत्री नीतीश कुमार की खटिया खड़ी हो गयी.
दरअसल, अमिताभ कुमार दास को जिस पटना रेल ज़िला की कमान दी गयी वह बिहार का सबसे लंबा-चौड़ा रेल ज़िला है. झारखंड बनने के बाद बिहार में 4 रेल जिले बाक़ी रह गए – पटना, मुजफ्फरपुर, कटिहार और जमालपुर. पटना रेल ज़िला के तहत सूबे के ग्यारह जिले आते हैं. यहीं से अमिताभ दास और नीतीश कुमार की टकराहट शुरू हुई. नीतीश तब वाजपयी सरकार में रेल मंत्री थे. कहने को तो नीतीश का कार्यक्षेत्र कश्मीर से कन्याकुमारी था मगर मजाक मंल उन्हें लोग डेढ़ ज़िला का रेल मंत्री कहते थे. डेढ़ जिले थे – पूरा नालंदा एवं आधा पटना. पटना का ग्रामीण इलाका जहाँ नीतीश के स्वजाति कुर्मियों की अच्छी-खासी तादाद है. रेल मंत्री के रूप में नीतीश के दाहिना हाथ थे नालान्दवासी आरसीपी सिंह (आईएएस-1984 उत्तर प्रदेश). आरसीपी तब रेल मंत्रालय में ओएसडी (विशेष कार्य पदाधिकारी) थे. नीतीश और आरसीपी दोनों नालंदा ज़िला के कुर्मी हैं. कहा जाता है कि इस जोड़ी नम्बर वन ने रेल मंत्रालय पर क़ब्ज़ा जमा लिया था.
रेल मंत्रालय में हजारों करोड़ के रेलवे ठेके बांटे जाते हैं. वह इतना मलाईदार मंत्रालय है कि एक-दो बरस पहले तक रेल-बजट अलग से पेश होता था. यानी कि आम बजट में कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, रक्षा सबकुछ शामिल और रेल बजट सिर्फ रेल के लिए. रेलमंत्री बनकर भी नीतीश कुमार बिहार का मुख्यमंत्री बनने की योजना बना रहे थे. लालू के ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण का मुकाबला करने नीतीश ने कुर्मी-भूमिहार समीकरण बनाने की ठानी. कुर्मी रेल मंत्री ने तय कर लिया कि सारे के सारे रेलवे ठेके भूमिहार माफिया सरगनाओं को बाँट दी जाएं. बस शुरू हो गया रेल-माफिया का खेल.
आरोप है की नीतीश ने बड़ी चतुराई से रेलवे ठेकों का बन्दर बाँट किया. बकौल अमिताभ दास… ‘पटना-मोकामा रेलखंड के ठेके माफिया सरगना सूरजभान के गिरोह को दे दी गए. पटना-मुगलसराय रेल खंड के ठेके पर माफिया सरगना सूरजभान के गिरोह का क़ब्ज़ा हो गया. पटना-गया रेलखंड और धनबाद डिवीज़न के रेलवे ठेके बबलू सिंह के गैंग पांडव सेना के चरणों में समर्पित हो गए. नीतीश और आरसीपी की जुगलबंदी यह समझने में चूक कर गयी कि पटना रेल एसपी की कुर्सी पर अमिताभ कुमार दास बैठा है जिससे बिहार के माफिया थरथर कांपते थे. दास ने 12 अप्रैल 2003 को रेल माफियाओं का कच्चा चिटठा पुलिस विभाग को सौंप दिया. ज्ञापांक था 342/सी. अमिताभ दास के इस पत्र ने नई दिल्ली के रेल भवन में भूकंप ला दिया. नीतीश और आरसीपी सकते में आ गए. प्रधानमंत्री वाजपेयी ने नीतीश को तलब किया तो नीतीश की बोलती बंद. रेलवे ठेकों में माफियागिरी नीतीश को लानत-मलामत कर दी. मैंने बतौर रेल एसपी जो साक्ष्य जुटाए थे वे अकाट्य थे. इसी बीच, नीतीश ने एक और शातिराना चाल चली. हाजीपुर (वैशाली) में पूर्व-मध्य रेलवे का जोनल मुख्यालय खुलवा दिया. नीतीश ने इसे बिहार का विकास बताकर खूब वाहवाही लूटी. पर खेल तो कुछ अलग ही था. बिहार में जोनल मुख्यालय खोल देने का मकसद बिहार माफिया सरगनाओं की मदद करना था. इसके पहले जोनल मुख्यालय कलकत्ता (प. बंगाल) में था जहाँ बिहारी डॉनों की दाल नहीं गलती थी. हद तो तब हो गयी जब हाजीपुर ज़ोन में ज़बरदस्ती धनबाद रेल डिवीज़न को भी शामिल कर दिया गया. कोयले की धुलाई की वजह से धनबाद रेल डिवीज़न सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ जाता है. धनबाद रेल डिवीज़न पर रेल माफिया की विशेष कृपा रहती है. रेल माफिया के खिलाफ मेरी जंग से नीतीश कुमार बौखला गए. कुर्मी-भूमिहार समीकरण की तैयारियां खटाई में पड़ गयी.
इस बीच 24 नवम्बर 2005 को नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. और इसके साथ ही बिहार में ‘सुशासन माफिया’ का दौर शुरू हो गया. नीतीश के दुलरुआ आरसीपी अब मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव बन गए. अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाने के लिए ‘सुशासन माफिया’ ने एक हिट-लिस्ट बनाई. ज़ाहिर तौर पर इस हिट-लिस्ट में मेरा यानी आईपीएस अमिताभ दास का नाम सबसे ऊपर था.
इसी क्रम में अमिताभ दास आगे बताते हैं… ‘उस बीच बतौर रेल एसपी मेरी सख्ती से दुश्मनी पाले हुए भूमिहार सरगना भी बाहें चढाने लगे थे. ‘सुशासन’ में भूमिहारों का बड़ा दबदबा था. कुछ लोगों ने तो सुशासन का नाम भी ‘भू-शासन’ (यानी भूमिहारों का शासन) रख दिया था.
मुझ पर नीतीश ने दो-दो विभागीय कार्यवाईयां चलवा दी. विभागीय कार्यवाई लंबित रहने पर किसी अफसर का प्रमोशन बाधित हो जाता है. मेरे खिलाफ झूठे आवंटन दिलवाए गए. मनगढ़ंत आरोप लगाए गए. अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेरने का काम शुरू हो गया था. नीतीश की बौखलाहट का आलम यह था कि जब एक विभागीय कार्यवाई में दास को निर्दोष पाया गया तो नीतीश से उसको दोबारा चलाने के आदेश दे दिया. मैंने नीतीश के ‘सुशासन माफिया’ के विरुद्ध कानूनी लड़ाई छेड़ दी. मैंने ‘कैट’ (केंद्रीय प्रशासनिक प्राधिकरण) के पटना बेंच में सरकार को ललकारा. ‘कैट’ वह विशेष न्यायलय है जहाँ ऊँचे अफसरों के मामले सुने जाते हैं. जस्टिस श्रीमती रेखा कुमारी ने नीतीश सरकार की खिंचाई कर दी और दास के विरुद्ध मामले रद्द कर दी. बौखलाए नीतीश ने कैट के फैसले को पटना हाई कोर्ट में चुनौती दिलवाई. मगर पटना हाई कोर्ट में नीतीश ने फिर मुंह की खाई. अब ‘सुशासन माफिया’ ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. मगर सितम्बर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने मेरे पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुना दिया.’
यह अमिताभ दास की शानदार जीत थी. इस जीत के बाद अमिताभ दास को प्रोन्नति मिलना तय था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ‘सुशासन माफियाओं’ की आपात बैठक हुई. देश की सबसे ऊंची अदालत के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती थी. नीतीश सरकार पर अवमानना की तलवार लटक रही थी. मुख्य सचिव और गृह सचिव की गर्दन फंसने का डर था. लिहाज़ा अगस्त 2017 में दास को 10 अप्रैल 2007 के प्रभाव से ऊंचे वेतनमान में प्रोन्नति दे दी गयी. अमिताभ कुमार दास को आखिरकार आईजी का वेतनमान मिल गया. नीतीश एंड कंपनी को खून का घूँट पी कर रह जाना पड़ा. पर अंदर ही अंदर अमिताभ दास के विरुद्ध अगले क़दम की योजना बनती रही. इस योजना की परिणिति 13 अगस्त 2018 को सरकार के उस तुगलकी फरमान के रूप में सामने आया जिसमें अमिताभ दास को समय से पहले रिटायर करने की घोषणा कर दी गयी. न कोई आरोप, न स्पष्टीकरण, सिर्फ एक तुगलकी फरमान. ‘लोक हित’ में हटाया जाता है. भारत सरकार ने कहा कि बिहार सरकार से मशविरा ले लिया गया है. (यानी नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने फ़ोन पर कानाफूसी कर ली है.)
दास ने इस फैसले को भी ‘कैट’ के पटना बेंच में चुनौती दे दी है. उनहोंने सरकार के फैसले को विद्वेषपूर्ण, मनमाना एवं अकारण बताया है. मुक़दमे की ख़ास बात यह है कि परिवादियों की सूची में नीतीश कुमार, पुत्र स्व. राम लखन प्रसाद भी हैं. मतलब कानूनी लड़ाई सीधे-सीधे नीतीश एवं अमिताभ दास के बीच है.
दास के वकील दीनू कुमार बताते हैं की सरकार के फैसले में छेद ही छेद है. समय से पहले उन अफसरों को ही रिटायर कराया जा सकता है जिनकी उम्र 50 पार है. और जिनकी नौकरी के 25 साल बीत गए हों. अमिताभ दास की उम्र अभी 49 है और नौकरी का 24वां साल है. समय के पहले रिटायर सिर्फ ‘डेडवुड’ अफसरों को कराया जाता है. ‘डेडवुड’ मतलब जो कोई काम करे ही नहीं. दास की पहचान प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश स्तर पर कर्मठ अधिकारी की रही है. भारत निर्वाचन आयोग जो एक संविधानिक संस्था है ने दास को 2018 में नागालैंड और कर्णाटक चुनावों में अपना पुलिस प्रेक्षक बनाकर भेजा था.
वकील दीनू कहते हैं… ‘पूरा मामला विद्वेषपूर्ण है. नीतीश ने रेल माफिया और अनंत सिंह प्रकरण पर दास से दुश्मनी पाल रखी है तो नरेंद्र मोदी इसलिए नाराज़ हैं कि दास ने उनके मंत्री गिरिराज सिंह की कलई उतार दी थी. जिस आईपीएस अधिकारी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आईजी का वेतनमान मिला उसे रातोरात रिटायर करा देना सरासर नाइंसाफी है.
बहरहाल मामला अभी अदालत में है. अद्यतन सूचना के अनुसार अक्टूबर 2018 के दिन कैट के बिहार-झारखंड बेंच ने अमिताभ कुमार दास के मुकदमे की सुनवाई की. दास के वकील दीनू कुमार ने सरकार पर जमकर हमला बोला. विद्वान न्यायाधीश ने भारत सरकार और बिहार सरकार दोनों को नोटिस भेजकर तीन हफ्ते में जवाब देने का आदेश दिया है. सरकार बहादुर की फजीहत पक्की है.
अमिताभ दास के सारे भाई-बहन अमेरिका में बस चुके हैं और अमेरिकी नागरिक हैं. नीतीश एंड कंपनी का अनुमान था कि रिटायर करा दिए जाने के बाद अमिताभ दास भी सात समंदर पार जाकर बस जाएंगे. मगर नीतीश पर मुकदमा ठोंककर दास ने अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए हैं. असली योद्धा पीठ नहीं दिखाते. दास को जानने वाले कहते हैं कि दास ने ज़िन्दगी में सिर्फ दो चीज़ें सीखी हैं – पढना और लड़ना. अंग्रेजी में ऐसे लोगों को ‘स्कॉलर वारियर’ कहते हैं. दास ऐसे फाइटर हैं जिनकी गर्दन काट दो तो भूत बन कर लड़ेंगे. ‘आत्मसमर्पण’ उनकी डिक्शनरी में नहीं है. फिलहाल तो दास ने नीतीश कुमार को अदालत में घसीट कर ‘सुशासन’ का ‘शीर्षासन’ करा ही दिया है.
(लोक प्रसंग के अक्टूबर, 2018 अंक से साभार)