“भारत में हिंसात्मक गौ संरक्षण: गौरक्षकों के निशाने पर अल्पसंख्यक”




पुलवामा हमले के बाद भारत के बड़े हिस्से में दुःख और आक्रोश है तो साथ-साथ यह युद्धोन्माद के चपेट में भी है जिसमें मुस्लिम-विरोधी भावना भी शामिल है. यह उन्माद तो एक बहुत ही दुखद घटना से पैदा किया जा रहा है मगर यह हकीक़त है कि केंद्र और कई सूबों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की हमेशा से रणनीति रही है कि किसी-न-किसी तरह का उन्माद हमेशा बना रहे और लोग अलग-अलग वजहों से उन्माद की गिरफ्त में आकर सड़कों पर आएं. भाजपा उन्माद की राजनीति करती है. बीते करीब पांच वर्षों से गाय के नाम पर भी ऐसा ही किया जा रहा है.

गौरक्षा भारत में बहुत ही भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दा है. गाय से जुड़े धार्मिक-भावनात्मक मुद्दों को कैसे संबोधित किया जाए यह एक बहुत चुनौतीपूर्ण काम है. गौसंरक्षण भी हो, गौहत्या भी न हो, गौसंरक्षण के नाम पर मॉब लीचिंग न हो, गोमांस को लेकर जो भावनाएं हैं वो भी आहत न हो और दूसरी तरफ गोमांस का सेवन करने वालों के भोजन के अधिकार की भी रक्षा हो, ये सब जटिल मुद्दे हैं जो बहुत तार्किक सोच की मांग करते हैं. मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह कि ऐसा न कर गाय से जुड़े मुद्दों को सीधे उन्माद में बदल दिया गया है और उन्माद पैदा करने से मॉब लीचिंग होता है और ऐसा हो रहा है. केंद्र की वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान गौरक्षा एक उन्माद में तब्दील होता जा रहा है और यह उन्माद बीते कुछ सालों में करीब पचास लोगों की जान ले चुका है.



मानवाधिकार पर काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने भारत में चल रहे हिंसात्मक गौरक्षक अभियान के राजनीतिक-आर्थिक पहलुओं समेत अन्य पक्षों को विस्तार से समेटते हुए “भारत में हिंसात्मक गौ संरक्षण: गौरक्षकों के निशाने पर अल्पसंख्यक” शीर्षक से आज रिपोर्ट जारी की है.

इस रिपोर्ट में 11 गौरक्षक हमलों, जिनमें 14 लोगों की मौत हुई, और सरकार की कार्रवाई का विवरण दर्ज है. यह गौरक्षा और हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक आंदोलन के बीच की कड़ियों और असुरक्षित अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए संवैधानिक और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों को लागू करने में स्थानीय सरकारों की विफलता की पड़ताल करती है. रिपोर्ट में इन हमलों के असर और सरकार द्वारा उन लोगों के लिए किए गए उपायों की भी पड़ताल की गई है जिनकी जीविका पशुधन से जुड़ी हुई है, इनमें किसान, चरवाहे, पशु ट्रांसपोर्टर, मांस व्यापारी और चर्म उद्योग श्रमिक शामिल हैं. पढ़िए ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट का सार:

मई 2014 में, केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद इसके कार्यकर्ता लगातार सांप्रदायिक और उग्र बयानबाज़ी करते रहे हैं. इसके कारण, गोमांस का उपभोग करने और इससे जुड़े समझे जाने वाले लोगों के खिलाफ गौरक्षकों का हिंसक अभियान शुरू हुआ. मई, 2015 से दिसंबर, 2018 के बीच, भारत के 12 राज्यों में कम-से-कम 44 लोग मारे गए जिनमें 36 मुस्लिम थे. इसी अवधि में, 20 राज्यों में 100 से अधिक अलग-अलग घटनाओं में करीब 280 लोग घायल हुए.

इन हमलों का नेतृत्व तथाकथित गौरक्षक समूहों द्वारा किया गया. इनमें से कई समूह अक्सर भाजपा से सम्बद्ध उग्र हिंदू संगठनों से जुड़े होने का दावा करते हैं. अनेक हिंदू गायों को पवित्र मानते हैं और ऐसे समूह पूरे देश में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं. उनके हमलों के शिकार ज्यादातर मुस्लिम या दलित और आदिवासी समुदाय हैं. इन 44 हत्याओं में 26 हत्याएं भाजपा शासित राज्य हरियाणा, राजस्थान, झारखंड और उत्तर प्रदेश में हुईं हैं.

लगभग सभी मामलों (ह्यूमन राइट्स वाच वॉच की रिपोर्ट में जिन 11 गौरक्षक हमलों, जिनमें 14 लोगों की मौत हुई, की पड़ताल की गई है) में, शुरू में पुलिस ने जांच रोक दी, प्रक्रियाओं को नजरअंदाज किया और यहां तक कि हत्याओं तथा अपराधों पर लीपापोती करने में उनकी मिलीभगत रही. पुलिस ने तुरंत जांच और संदिग्धों को गिरफ्तार करने के बजाय, गौहत्या निषेध कानूनों के तहत पीड़ितों, उनके परिवारों और गवाहों के खिलाफ शिकायतें दर्ज की. कई मामलों में, हिंदू राष्ट्रवादी समूहों के राजनीतिक नेताओं और भाजपा के जनप्रतिनिधियों ने इन हमलों का बचाव किया. दिसंबर, 2018 में उत्तर प्रदेश में भीड़ की हिंसा में एक पुलिस अधिकारी सहित दो लोगों के मारे जाने पर मुख्यमंत्री ने घोर राजनीतिक अवसरवाद का परिचय देते हुए इन हत्याओं को एक “दुर्घटना” बताया और फिर चेतावनी जारी की: “पूरे राज्य में न सिर्फ गोहत्या बल्कि गैरकानूनी पशुबध प्रतिबंधित है.”

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जुलाई, 2018 में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने “लिंचिंग” को रोकने के उपायों के बतौर कई “निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक” निर्देश जारी किए. सुप्रीम कोर्ट ने तथाकथित गौरक्षकों के हिंसक हमलों की निंदा करते हुए कहा: “उन्हें याद रखना चाहिए कि वे कानून के अधीन हैं और वे धारणाओं या भावनाओं या विचारों या इस विषय में आस्था से निर्देशित नहीं हो सकते हैं.”

गौरक्षा की राजनीति

हिंदू-बहुल भारत के अधिकांश हिस्सों में गौहत्या प्रतिबंधित है. हालांकि, पिछले कुछ दशकों में, एक राजनीतिक अभियान के तहत हिंदू राष्ट्रवादियों की शिकायत रही है कि सरकारें प्रतिबंध लागू करने और पशु तस्करी रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाती हैं. चूंकि गोमांस का उपभोग मुख्य रूप से धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यक करते हैं, भाजपा नेताओं ने हिंदू मतदाताओं को लुभाने के लिए गौरक्षा संबंधी भड़काऊ बयान दिए. निस्संदेह, यह सांप्रदायिक हिंसा की बड़ी वजह रही है और कुछ मौकों पर तो इससे सांप्रदायिक हिंसा भड़की भी है. गुजरात के मुख्यमंत्री रहते और 2014 के आम चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने गायों की सुरक्षा का मुद्दा बार-बार उठाया था, “गुलाबी क्रांति” के खतरे को सामने रखते हुए उन्होंने दावा किया था कि गायों और अन्य मवेशियों को मांस निर्यात के लिए खतरे में डाल दिया गया है. प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद, नरेन्द्र मोदी ने गौरक्षक समूहों के हमलों की सख्त निंदा नहीं की. आखिरकार अगस्त, 2018 में उन्होंने कहा, “मैं यह साफ़ करना चाहता हूं कि मॉब लिंचिंग अपराध है, चाहे इसके पीछे कोई भी उद्देश्य हो.” जनवरी, 2019 में उन्होंने कहा कि ये हमले “सभ्य समाज की निशानी नहीं हैं,” हालांकि, उन्होंने मुस्लिम समाज के बीच बढ़ती असुरक्षा के दावों को खारिज करते हुए इसे राजनीति से प्रेरित बताया.



न्यू देल्ही टेलीविजन के एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि पहले के पांच साल के मुकाबले 2014 से 2018 के बीच भाजपा के सत्ता में रहने से चुने हुए नेताओं के भाषणों में सांप्रदायिक भाषा के उपयोग में लगभग 500 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है और ऐसा करने वाले 90 प्रतिशत नेता भाजपा के हैं. गौरक्षा ऐसे कई भाषणों का मुख्य विषय बनी रही.

पशु व्यापारियों और ट्रांसपोर्टरों की पिटाई करने, जिसमें उन्हें गंभीर चोटें आईं और यहां तक कि उनकी मौत हुई, के अलावा गौरक्षकों ने मध्य प्रदेश में ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर मुस्लिम पुरुषों और महिलाओं के साथ कथित तौर पर मारपीट की, गुजरात में दलितों को नंगा कर पीटा, हरियाणा में दो पुरुषों को जबरन गोबर खिलाया और गौमूत्र पिलाया, जयपुर में एक मुस्लिम होटल पर हमला किया और घर में कथित रूप से गोमांस खाने के लिए हरियाणा में दो महिलाओं का बलात्कार किया और दो पुरुषों की हत्या कर दी.

भारतीय संगठन फैक्ट चेकर के सहयोगी डेटाबेस हेट क्राइम वॉच ने जनवरी 2009 और अक्टूबर 2018 के बीच धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमलों की 254 घटनाओं, जिनमें कम-से-कम 91 लोग मारे गए और 579 घायल हुए थे, की रिपोर्ट तैयार की है. इनमें से लगभग 90 प्रतिशत हमले मई, 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद हुए और ऐसी 66 प्रतिशत घटनाएं भाजपा शासित राज्यों में सामने आईं. ऐसे 62 प्रतिशत मामलों में मुसलमान और 14 प्रतिशत में ईसाई निशाने पर रहे. इनमें सांप्रदायिक झड़पें, अंतर-धार्मिक जोड़ों पर हमले और गौरक्षा और धर्मांतरण से संबंधित हिंसा शामिल हैं. नागरिक समाज संगठन कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के वरिष्ठ सलाहकार माजा दारूवाला कहते हैं, “यह साफ़ है कि इन अपराधों के लिए मिला अभयदान और कुछ नेताओं द्वारा बेहद शर्मनाक तरीके से इन्हें उचित ठहराया जाना ऐसी घटनाओं के जारी रहने का एक बड़ा कारण है.”

जवाबदेही से इनकार

2014 के बाद, कई भाजपा शासित राज्यों ने गौहत्या पर रोक के लिए कड़े कानून पारित किए हैं और ऐसी गौरक्षा नीतियां अपनायी हैं जो आलोचकों के मुताबिक हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लोकलुभावन तरीके हैं. नए कानूनी प्रावधानों में से कई गौहत्या को संज्ञेय, गैर-जमानती अपराध बनाते हैं, सबूत का बोझ आरोपित पर डाल देते हैं. यह सब किसी को निर्दोष माने जाने के अधिकार का उल्लंघन करते हैं. यह मौलिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता है.

कुछ राज्यों के कानूनों में गौहत्या के लिए आजीवन कारावास समेत कठोर दंड का प्रावधान है. गुजरात में 2017 में गौ संरक्षण कानूनों में संशोधन किया गया ताकि सजा बढ़ सके. तब राज्य के गृह मंत्री प्रदीप सिंह जडेजा ने कहा था, “हमने इंसान की हत्या और गाय या गौवंश की हत्या को एक जैसा अपराध बना दिया है.”

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भाजपा शासित राज्य सरकारों द्वारा गौरक्षा के लिए निर्मित कई नीतियों से गौरक्षक समूहों को बढ़ावा मिला है. गौरक्षा समितियों के सदस्य, कभी-कभी पुलिस के साथ, रात में गलियों और राजमार्गों पर गश्ती करते हैं, वाहनों को रोकते हैं, उनमें मवेशियों की मौज़ूदगी की जांच करते हैं, ड्राइवरों को धमकी देते हैं और वाहन में गाय पाए जाने पर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. भारत में घृणा अपराधों पर काम करने वाले समूह सिटिजन्स अगेंस्ट हेट के संयोजक सैयद सज्जाद हसन कहते हैं, “पुलिस ने इन गौरक्षा कानूनों के कथित उल्लंघनकर्ताओं की पहचान और धर-पकड़ का जिम्मा ठेके पर दे दिया है.”

 

2016 में, हरियाणा सरकार ने गौहत्या और तस्करी के बारे में आम नागरिकों द्वारा सूचना देने के लिए 24-घंटे काम करने वाली एक हेल्पलाइन स्थापित की और शिकायतों पर कार्रवाई के लिए पुलिस कार्य बलों को नियुक्त किया. मार्च 2017 में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद हिंदू धार्मिक नेता आदित्यनाथ ने कई बूचड़खानों और मांस की दुकानों को बंद करने का आदेश दिया. उल्लेखनीय है कि ये ज्यादातर मुसलमानों द्वारा चलाए जा रहे थे. राजस्थान में, पिछली भाजपा राज्य सरकार ने गौ तस्करी पर अंकुश लगाने के लिए छह गौरक्षा पुलिस चौकियां खोलीं. ये चौकियां गौरक्षा समूहों का अड्डा बन गईं, जहां पर उन्होंने, दूध उत्पादक किसानों, चरवाहों और हरियाणा के मुस्लिम मवेशी व्यापारियों को निशाना बनाया, हालांकि इन व्यापारियों के पास मवेशी खरीद की अधिकारिक रसीदें थीं.



खुद पुलिस इन राजनीतिक संरक्षण प्राप्त समूहों से खतरा महसूस कर सकती है. राजस्थान के पूर्व अपर पुलिस अधीक्षक रीछपाल सिंह कहते हैं कि गौरक्षकों के हमलों में वृद्धि का कारण राजनीतिक है: “पुलिस को गौरक्षकों के प्रति सहानुभूति रखने, कमजोर जांच करने और उन्हें खुली छूट देने के लिए राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ता है. इन गौरक्षकों को राजनीतिक आश्रय और मदद मिलती है.”

जांच और कानूनी कार्रवाई करने में पुलिस की विफलता

गौरक्षा हमलों की मुस्तैदी से जांच करने और अपराधियों पर मुकदमा चलाने की बजाय पुलिस ने ऐसे कम-से-कम एक तिहाई मामलों में पीड़ित परिवार के सदस्यों और सहयोगियों के खिलाफ ही गौहत्या पर रोक लगाने वाले कानूनों के तहत मामले दर्ज किए हैं. गवाहों और परिवार के सदस्यों के खिलाफ जवाबी कार्रवाई अक्सर उन्हें न्याय पाने की कोशिश करने से डराती है. कुछ मामलों में, अधिकारियों और अभियुक्तों की धमकी के कारण गवाह अपने बयान से पलट गए.

इस रिपोर्ट में वर्णित आठ मामलों में पुलिस ने अनुचित तरीके से काम किया: दो मामलों में, उन्होंने अपराध की जांच शुरू करने के लिए जरूरी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने में देरी की; दो अन्य मामलों में, उन्होंने प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया, यहां तक कि उनमें से एक में कथित रूप से गलत विवरण दर्ज किए; और अन्य चार मामलों में पीड़ित की मौत में पुलिस की कथित रूप से मिलीभगत थी और उन्होंने अपराध छिपाने की कोशिश की. मीडिया की आलोचना, व्यापक विरोध या मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों द्वारा अदालतों के माध्यम से किए गए हस्तक्षेप के बाद पुलिस कार्रवाई करने के लिए मजबूर हुई.

झारखंड में इम्तेयाज़ खान और मजलूम अंसारी की हत्या मामले में पुलिस ने आठ लोगों को गिरफ्तार किया. इन सभी ने हत्या करने की बात कबूल की और बताया कि वे एक ऐसे गौरक्षक समूह के सदस्य हैं जिसने पहले मुस्लिम पशु व्यापारियों को धमकी दी थी. पुलिस ने मई, 2016 में सभी आठ अभियुक्तों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया लेकिन स्थानीय गौरक्षक समूह के एक प्रमुख सदस्य को इसमें शामिल नहीं किया. यह एकमात्र ऐसा अभियुक्त था जिसे मामले के एक गवाह द्वारा दायर की गई प्राथमिकी में नामजद किया गया था. प्रक्रिया में बरती गई एक बड़ी विफलता देखिए, किसी भी आरोपी के बयानों को मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज नहीं किया गया, जबकि एक पुलिस अधिकारी के समक्ष इकबाले जुर्म भारतीय कानून के तहत सबूत के रूप में मंजूर नहीं है. पीड़ित परिवारों ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि जून, 2016 में आठ आरोपियों के जमानत पर रिहा होने के बाद वे अपनी सुरक्षा को लेकर डर गए. दिसंबर, 2018 में, झारखंड की एक अदालत ने सभी आठ अभियुक्तों को दोषी करार दिया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

कुछ मामलों में, कथित अपराधियों को खुला राजनीतिक संरक्षण मिला. उदाहरण के लिए, भाजपाई मंत्री जयंत सिन्हा ने जून, 2017 में झारखंड में हुए अलीमुद्दीन अंसारी हत्याकांड के सजायफ्ता लोगों की जमानत पर रिहाई का स्वागत किया. यह फैसला उनके द्वारा अपनी सज़ा के खिलाफ़ हाई कोर्ट में याचिका दायर के बाद आया था. रिहा किए गए लोग जब जयंत सिन्हा को उनकी कानूनी सहायता के लिए धन्यवाद देने गए तब उन्होंने दोषियों को माला पहनायी और साथ में तस्वीरें खिंचवाईं.

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दिसंबर, 2018 में, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गुस्साई भीड़ ने एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी और कई वाहनों को जला दिया. यह हिंसा ग्रामीणों को कुछ जानवरों के कंकाल, जिन्हें मारे गए गायों का बताया गया, मिलने के बाद भड़की. इस घटना में पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह सहित दो लोग मारे गए. सरकार ने तीन पुलिस अधिकारियों का तबादला कर दिया और 30 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि, चौतरफा आलोचना से घिरने के बाद अधिकारियों ने दो मुख्य आरोपियों को गिरफ्तार किया. इनमें एक वैचारिक रूप से भाजपा से जुड़े कट्टरपंथी युवा संगठन बजरंग दल का स्थानीय नेता है और दूसरा भाजपा के युवा संगठन का नेता है. दूसरी ओर, पुलिस ने तुरंत गौहत्या के आरोप में छह लोगों को गिरफ्तार किया और उनमें से तीन के खिलाफ दमनकारी कानून राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत भी मामला दर्ज किया, जिसमें बिना किसी आरोप के एक साल तक हिरासत में रखने का प्रावधान है. हिंसा और हत्याओं के तुरंत बाद, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि जांचकर्ता गायों की हत्या करने वालों पर मुकदमा चलाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं. “गौ-हत्यारों को सजा दिलाना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है. हत्या और मारपीट का मामला फिलहाल प्राथमिकता में नहीं है.”

गौरक्षकों की हिंसा से निपटने के उपाय

जुलाई 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने तहसीन एस. पूनावाला और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य मामले में केंद्र और राज्य सरकारों को सार्वजनिक रूप से बयान देने और यह संदेश फैलाने के लिए निर्देश दिया कि “लिंचिंग और किसी भी तरह की भीड़-हिंसा के लिए कानून के तहत गंभीर परिणाम भुगतने होंगे.” जवाब में, गृह मंत्री ने संसद को बताया कि सरकार ने देश में भीड़-हिंसा रोकने के उपाय सुझाने हेतु एक पैनल का गठन किया है. उन्होंने कहा,”यदि आवश्यक हुआ तो हम एक कानून भी लाएंगे.”

अदालत ने सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया कि भीड़-हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए हर जिले में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नियुक्त किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि पुलिस अपराधियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई करे और पीड़ितों और गवाहों को सुरक्षा प्रदान करे. इसने पीड़ित मुआवजा योजना की सिफारिश की और कहा कि ऐसे सभी मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में की जाए, पीड़ितों या परिवार के सदस्यों को आरोपी व्यक्तियों द्वारा जमानत, दोष मुक्ति, रिहाई या पैरोल के लिए दायर आवेदन समेत सभी अदालती कार्यवाही की समय पर सूचना दी जाए. अंत में, अदालत ने कहा कि इन निर्देशों का पालन करने में विफल रहने वाले पुलिस या सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए.



अब तक, कई राज्यों ने अधिकारियों को नामित कर दिया है और भीड़-हिंसा रोकने के लिए पुलिस अधिकारियों को सर्कुलर जारी किए हैं. हालांकि, अदालत के अधिकांश निर्देशों का अभी तक अनुपालन नहीं किया गया है. अधिकांश राज्यों ने अनुपालन रिपोर्ट नहीं भेजी है और जिन राज्यों ने यह रिपोर्ट भेजी भी है उन्होंने विवरण मुहैया नहीं कराए हैं.

गौरक्षकों के सांप्रदायिक हमलों से अल्पसंख्यक समुदायों को बचाने या इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त कदम उठाने में भारत की केंद्र और राज्य सरकारों की विफलता जीवन के अधिकार, समानता, कानून के समान संरक्षण और आजीविका के अधिकार का उल्लंघन करती है. सरकार को अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक विश्वास के इस्तेमाल का समर्थन नहीं करना चाहिए या इसमें भागीदार नहीं बनना चाहिए.

मुख्य अनुशंसाएं

सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लागू करें और यह सुनिश्चित करें कि भीड़ के हमलों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को जवाबदेह ठहराया जाए.

सांप्रदायिक हमलों के दोषियों और इसे भड़काने वालों के खिलाफ़ त्वरित और निष्पक्ष जांच और अभियोजन सुनिश्चित करें और गौरक्षकों की हिंसा रोकने में कथित पुलिस निष्क्रियता की जांच करें.

राज्य के वरिष्ठ अफसरों और उच्च पुलिस अधिकारियों के सार्वजनिक बयानों और उनके प्रयासों से यह साफ़-साफ़ जाहिर करना चाहिए कि भीड़-हिंसा के मामलों में दोषियों और उनमें राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े लोगों पर भी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

प्रस्तुति: मनीष शांडिल्य

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