
गौरक्षक समूहों के हमलों और गौहत्या और मवेशियों के परिवहन पर सख्त कानूनों ने भारत के पशु व्यापार और ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है. साथ ही, खेती और डेयरी क्षेत्र से जुड़े चर्म और मांस निर्यात उद्योग पर भी इसका असर पड़ा है.
पशुओं से संबंधित उद्योगों को नुकसान पहुंचाने वाले कानूनों, नीतियों और गैरकानूनी हमलों से मुसलमान और दलित काफी प्रभावित हुए हैं. बूचड़खाने और मांस की दुकानें ज्यादातर मुसलमान चलाते हैं. दलित परंपरागत रूप से मवेशियों के शवों का निपटारा करने और चमड़े और चमड़े के सामान जैसे व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए उनकी खाल उतारने का काम करते हैं. लिहाजा, ये नीतियां सभी समुदायों, विशेषकर किसानों और मजदूरों को नुकसान पहुंचा रही हैं.
गौरक्षा आंदोलन किसानों और चरवाहों को नुकसान पहुंचा रहा है और उनकी आजीविका के अधिकार को प्रभावित कर रहा है. राजस्थान स्थित लेखक और पशुपालन विशेषज्ञ एम.एल. परिहार ने कहा कि इस आंदोलन से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है: “गायों से जुड़े इस जुनून को बढ़ावा दे रहे हिंदुत्ववादी नेताओं को यह एहसास नहीं कि वे अपने ही हिंदू समुदाय और देश को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं.”
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भारत की लगभग 55 प्रतिशत आबादी कृषि और सम्बद्ध गतिविधियों से जुड़ी हुई है. यह क्षेत्र देश के सकल मूल्य वर्धन में 17 प्रतिशत का योगदान करता है किसान अक्सर पशुपालन और पशु व्यापार तथा डेयरी उत्पादों की बिक्री करके पूरक आय जुटा पाते हैं और खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. भारत में लगभग 19 करोड़ मवेशी और 10.8 करोड़ भैंसें हैं. भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक भी है.
हालांकि, कृषि के बढ़ते यंत्रीकरण के साथ, सांड और बैल जैसे नर मवेशियों की मांग में गिरावट आई है. नर बछड़ों को अक्सर बेच दिया जाता है. किसान अनुत्पादक और बूढ़े मवेशियों को भी बेचते हैं. लेखक हरीश दामोदरन बताते हैं कि किसान के लिए, अनुत्पादक जानवरों को खिलाना महंगाई का सौदा है, गौरतलब है कि अतीत में ‘हिंदू’ किसान का कभी भी ‘मुस्लिम’ कसाई के साथ कोई विवाद नहीं था.”
गौहत्या, मवेशियों के परिवहन पर सख्त कानून और गौरक्षा समूहों के हमलों ने न केवल मवेशी व्यापार और ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था को बाधित किया है, बल्कि खेती और डेयरी क्षेत्रों से जुड़े चर्म और मांस निर्यात उद्योग पर भी इसका असर पड़ा है. ट्रांसपोर्टर्स भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. राजस्थान में अलवर जिले में एक परिवहन कंपनी के मालिक शहाबुद्दीन ने अपने व्यवसाय पर पड़े असर का बयान किया. उन्होंने बताया कि पेहलू खान हत्या के समय अपने मवेशियों के लिए जिस वाहन का इस्तेमाल कर रहा था, पुलिस ने उसके चालक और मालिक के खिलाफ एफआईआर दर्ज की. शहाबुद्दीन ने कहा कि खान के पास खरीदे गए मवेशियों की रसीद होने के बावजूद ऐसा किया गया जिससे यह साफ़ हो जाता है कि अब मवेशियों की ढुलाई सुरक्षित नहीं रह गई है.
समुदायों पर प्रभाव
गौरक्षा के नाम पर हुए हमलों से मुसलमान और दलित बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए हैं. ज्यादातर बूचड़खाने और मांस की दुकानें मुसलमानों की होती हैं. दलित परंपरागत रूप से मवेशियों के शवों का निपटारा करते हैं और चमड़े और चमड़े के सामान जैसे व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए उनकी खाल उतारने का काम करते हैं. हालांकि, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अस्तव्यस्त होने से सभी समुदाय प्रभावित हुए हैं, चाहे वह हिंदू, मुस्लिम, दलित, आदिवासी हों या खानाबदोश. लेखक, पत्रकार और भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ पी. साईनाथ ने कहा, “यह सिर्फ मुसलमानों से जुड़ा नहीं है.” हिंदू, यहां तक कि ऊंची जाति के माने जाने वाले हिंदू भी प्रभावित हुए हैं. उदाहरण के लिए, कई पशुपालक अपने मवेशी नहीं बेच सकते क्योंकि मवेशियों की कीमतें कम हैं या फिर उन पर हमला किया जाता है. लिहाजा, वे अपने मवेशियों को मरते हुए देखते हैं या उन्हें आवारा छोड़ देते हैं. और सिर्फ किसान और चरवाहे ही नहीं है, बल्कि व्यापारी और मवेशियों से जुड़े अन्य पेशेवर भी प्रभावित हुए हैं. साईनाथ ने आगे कहा, “पशु बाजारों में, बिचौलिए अक्सर अन्य जातियों के होते हैं. कई लोग मवेशियों या चमड़े से जुड़ी घंटियां, जूते, गहने जैसे सामान बनाने में भी लगे हुए हैं, वे सभी तबाह हो गए हैं.”
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आम किसानों सहित हिन्दू किसान भी पहले अपने अनुत्पादक मवेशियों को बेच देते थे, लेकिन अब उन्हें उनकी देखभाल के लिए मजबूर किया जाता है, जबकि वे उन्हें खिलाने का खर्च नहीं उठा सकते. अब ज्यादातर किसान उन्हें छोड़ देते हैं, इससे आवारा पशुओं द्वारा फसलों के नुकसान के कारण किसानों के लिए एक और समस्या खड़ी हो गई है. पशुपालन विशेषज्ञ एम.एल. परिहार ने कहा, “हिंदू किसानों ने भी कभी पशुओं को कसाईखाना भेजने का विरोध नहीं किया क्योंकि वे जानते थे कि अगर पशु गांव में रहेंगे, तो फसलों को नुकसान पहुंचाएंगे. यह अर्थव्यवस्था का हिस्सा था. किसान को पशु से भावनात्मक लगाव हो सकता है, लेकिन फिर भी वह इसे बेचाता था, जानते हुए कि यह कसाईखाने जा रहा है. किसान जानता था कि वह इसे खिलाने और रखने का खर्च नहीं उठा सकता”.
इन हमलों ने खानाबदोश चरवाहों की रोजी-रोटी को करीब-करीब बर्बाद कर दिया है. अप्रैल 2017 में, जम्मू और कश्मीर के जम्मू क्षेत्र में भीड़ ने एक मुस्लिम खानाबदोश चरवाहा परिवार के 9 वर्षीया बच्ची समेत पांच सदस्यों पर क्रूरतापूर्वक हमला कर दिया. भीड़ को शक था कि वे अपनी गायों को कसाईखाना ले जा रहे हैं. राजस्थान में बंजारा खानाबदोश समुदाय पर कई हमले हुए हैं. बंजारा समुदाय के नेताओं का कहना है कि सरकार द्वारा संचालित बाजारों में भी मवेशियों का व्यापार करने पर उन्हें लगातार हमलों का सामना करना पड़ रहा है. “गौरक्षक समूह बार-बार हैरान-परेशान, मारपीट और वसूली करते हैं.”
इस हिंसा के कारण सरकार द्वारा आयोजित पशु मेलों में पशुओं की खरीद-बिक्री में उल्लेखनीय कमी देखी जा सकती है. राजस्थान सरकार प्रतिवर्ष 10 पशु मेलों का आयोजन करती है. 2010-11 में, इन मेलों में 56 हजार से अधिक गाय और बैल आए और उनमें से 31 हजार की बिक्री हुई. 2016-17 में, उनकी संख्या 11 हजार से भी कम रह गई, जिनमें 3 हजार से भी कम की खरीद-बिक्री हुई.
गैरकानूनी पशु व्यापार
गौरक्षक अक्सर अपने कार्यों को सही ठहराने के लिए भारत-बांग्लादेश सीमा पर अवैध मवेशी व्यापार और फलते-फूलते मवेशी-तस्करी का उदहारण देते हैं. 2014 में, भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बांग्लादेश की सीमा पर भारतीय सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) से “किसी भी कीमत पर गायों की तस्करी रोकने” को कहा. उन्होंने दावा किया कि 2016 में, सीमा पर गौ-तस्करी में 80 प्रतिशत गिरावट आई है, और लगातार सतर्कता बरतने का आह्वान किया.
मांस उद्योग में अनिश्चितता
भारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ़ निर्यातक है, जो प्रति वर्ष लगभग 400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भैंस मांस निर्यात करता है. हालांकि, 2014 में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद निर्यात में तेज गिरावट आई है और देश के शीर्ष मांस उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार की कार्रवाई से इस व्यापार का भविष्य अनिश्चित हो गया है. मार्च 2017 में, भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त होते ही आदित्यनाथ ने तुरंत ज्यादातर मुसलमानों द्वारा चलाए जा रहे कई बूचड़खानों और मांस की दुकानों पर कार्रवाई की. उन्होंने दावा किया कि वह अवैध प्रतिष्ठानों को बंद कर रहे हैं, लेकिन व्यवसायियों ने बताया उन्हें बिना किसी नोटिस या तय प्रक्रिया के बंद करने के लिए मजबूर किया गया.
वर्षवर्ष | भैंस मांस का निर्यात भैंस मांस का निर्यात
(बिलियन अमेरिकी डॉलर में) |
प्रतिशत वृद्धि प्रतिशत वृद्धि (%) |
2010-11 | 1.88 | |
2011-12 | 2.86 | 52.12 |
2012-13 | 3.20 | 11.88 |
2013-14 | 4.35 | 35.93 |
2014-15 | 4.78 | 9.88 |
2015-16 | 4.07 | -0.01 |
2016-17 | 3.91 | -3.93 |
2017-18 | 4.03 | 3.06 |
स्रोत: कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार
चमड़ा निर्यात में गिरावट
भारत दुनिया के चमड़े का लगभग 13 प्रतिशत उत्पादन करता है और चमड़ा उद्योग विदेशी मुद्रा आय का एक प्रमुख स्रोत है. इससे 1200 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का वार्षिक राजस्व प्राप्त होता है (निर्यात 570 करोड़ अमेरिकी डॉलर और घरेलू बाजार 630 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है) और यह लगभग 30 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करता है, जिनमें से 30 प्रतिशत महिलाएं हैं. 2017 में, सरकार ने चमड़ा उद्योग को रोजगार पैदा करने और विकास के लिए महत्वपूर्ण उद्योग के रूप में चिन्हित किया. उसी समय, एक सरकारी सर्वेक्षण में स्वीकार किया गया कि “बड़ी पशु आबादी होने के बावजूद, मवेशियों के चमड़े के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी कम है और पशुवध की सीमित उपलब्धता के कारण घट रही है.”
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चमड़ा उत्पादकों और निर्यातकों का कहना है कि गौरक्षकों के डर और सैकड़ों बूचड़खानों को बंद करने से चमड़े की उपलब्धता घटी है. जहां चमड़ा और चमड़ा उत्पादों का निर्यात 2013-14 में 18 प्रतिशत से अधिक और 2014-15 में 9 प्रतिशत बढ़ा, वहीं 2015-16 में इनमें लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट आई. 2017-18 में, इनमें 1.4 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज की गई.
वर्षवर्ष | चमड़ा और चमड़ा उत्पादों का निर्यात (बिलियन अमेरिकी डॉलर में) | प्रतिशत वृद्धि (%) |
2011-12 | 4.87 | |
2012-13 | 5.01 | 2.87 |
2013-14 | 5.93 | 18.36 |
2014-15 | 6.49 | 9.44 |
2015-16 | 5.85 | -9.86 |
2016-17 | 5.66 | -3.25 |
2017-18 | 5.74 | 1.41 |
स्रोत: वार्षिक रिपोर्ट 2017-18, वाणिज्य विभाग, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार
गौ संरक्षण की बढ़ती लागत
अधिक-से-अधिक किसानों को अपने मवेशियों को आवारा छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिसके कारण आवारा पशुओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इससे उन किसानों में गुस्सा है जिनकी फसलों को इन मवेशियों से खतरा है. कई राज्यों की भाजपा सरकारों ने गौशालाओं का आवंटन बढ़ाया है, यहां तक कि नए कर लगाए हैं. इसके आलावा, इन राज्यों की जेलों में गौशाला खोलकर कैदियों के स्वास्थ्य के साथ समझौता किया जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में, नाराज ग्रामीणों ने दिसंबर, 2018 में सरकारी स्कूलों और कार्यालयों में आवारा पशुओं को बंद करना शुरू कर दिया, जिसके दवाब में मुख्यमंत्री ने जिला अधिकारियों को एक सप्ताह के अन्दर सभी आवारा गायों और सांडों को आश्रय देने को कहा. लेकिन अधिकांश मौजूदा गौशालाओं, यहां तक कि अस्थायी आश्रयों में भी पहले से ही बहुत ज्यादा भीड़ है. इससे पहले, सरकार ने 12 जेलों में गाय आश्रय स्थापित करने के लिए 2 करोड़ रुपये और पूरे राज्य में गौशाला खोलने के लिए 81.6 करोड़ रुपये आवंटित किए.
2016 में, हरियाणा सरकार ने गायों के संरक्षण और कल्याण हेतु गौसेवा आयोग के लिए 20 करोड़ रुपये आवंटित किए. 2018 में, यह बजट बढ़कर 30 करोड़ रुपये हो गया. 513 गौशालाओं में अभी 3.80 लाख गाय, सांड और बैल रखे गए हैं, जिनमें से अधिकांश अनुत्पादक हैं. राज्य में अभी भी लगभग 1.50 लाख आवारा पशु हैं और यह संख्या आगे और बढ़ सकती है. इसे देखते हुए सरकार ने जेलों में गौशालाएं स्थापित करने का फैसला किया, इस कदम की टिप्पणीकारों ने आलोचना की है. उनका कहना है कि भीड़भाड़ और उचित स्वच्छता की कमी के कारण पहले से ही कैदियों के बीच स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बनी हुई, गौशालाएं शुरू करने से यह स्थिति और बदतर हो सकती है.
राजस्थान में एक अलग गौ मंत्रालय है. 2016 में, सरकार द्वारा वित्त पोषित गौशालाओं में 5.50 लाख गाय और बैल थे. 2018 तक, यह संख्या बढ़कर 9 लाख हो गई. इस विशिष्ट मंत्रालय का सरकारी बजट 2015-16 के 13 करोड़ रुपये के मुकाबले तेजी से बढ़कर 2017-18 में 256 करोड़ रुपये हो गया. अनुत्पादक गायों और सांडों की देखभाल हेतु पैसे जुटाने के लिए, सरकार ने संपत्ति खरीद-बिक्री पर लगने वाले स्टाम्प शुल्क पर 10 प्रतिशत और शराब की बिक्री पर 20 प्रतिशत अधिभार लगाया है.
मध्य प्रदेश ने सितंबर 2017 में 32 करोड़ रुपये की लागत से अपना पहला गौ अभयारण्य शुरू किया. हालांकि, उद्घाटन के दिन ही इसमें जबरदस्त रूचि दिखाते हुए आसपास के गांवों के किसान दो हजार गायों के साथ पहुंच गए. पांच माह बाद, कर्मचारी और पैसों की कमी के कारण अभयारण्य ने नई गायों को अपने यहां रखना बंद कर दिया.
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झारखंड ने 2016 में गौशालाओं के लिए आर्थिक सहायता को बढ़ाकर दोगुना 10 करोड़ रुपये कर दिया. 2017 में, महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि वह गौशालाएं बनाने के लिए 34 करोड़ खर्च करेगी. पंजाब में, जब सरकारी बिजली कंपनी ने मई, 2017 में गौशालाओं को मुफ्त बिजली आपूर्ति बंद कर दी, तो इससे भाजपा नेताओं का गुस्सा भड़क गया और राज्य के गौसेवा आयोग प्रमुख ने इस फैसले पर सवाल उठाया.
सरकार के पास मवेशियों की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने वाले कानूनों और नीतियों को लागू करने का अधिकार है, लेकिन ऐसा करते हुए उसे अल्पसंख्यक समुदायों को होने वाले असंगत नुकसान से बचाना होगा. साथ ही सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे तमाम कानून या नीतियां सभी भारतीयों की आजीविका के अधिकार के अनुरूप हों.
(ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट “भारत में हिंसात्मक गौ संरक्षण: गौरक्षकों के निशाने पर अल्पसंख्यक” का एक अंश)